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माइग्रेशन की ऊंची उड़ान ने लियो वराडकर को दिलाया सम्‍मान

लियो के पिता अशोक वराडकर अगर मुंबई में ही रह जाते, तो उनके बेटे आज पीएम बनने की जगह उपहास और अपमान से जूझ रहे होते

द क्विंट
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(फोटो: AP)
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7600 किलोमीटर- ये वो फासला है, जिसने 38 साल के एक नौजवान को एक मुल्क के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा दिया. लियो वराडकर नाम का ये नौजवान डॉक्टर आयरलैंड का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है. लियो के पिता अशोक वराडकर भारतीय हैं और उनकी मां आयरिश हैं.

पेशे से डॉक्टर अशोक वराडकर 1960 के दशक में मुंबई से पहले इंग्लैंड गए और फिर आयरलैंड में बस गए. आप चाहें तो ये भी कह सकते हैं कि शायद लियो की किस्मत ही उनके पिता को मुंबई से आयरलैंड ले आई.

मैथ्यू बैरेट और लियो वराडकर (फोटो: FACEBOOK)

अशोक वराडकर अगर मुंबई में ही रह जाते, तो उनके बेटे लियो आज प्रधानमंत्री बनने की जगह शायद उपहास और अपमान से जूझ रहे होते. और अगर किसी वजह से वो ऐसे हालात से बच भी जाते, तो भी इतना तो तय है कि भारतीय कानून की नजर में वो एक गुनहगार होते. ऐसा इसलिए, क्योंकि लियो वराडकर एक स्व-घोषित 'गे' यानी समलैंगिक हैं और भारतीय कानूनों के मुताबिक समलैंगिकता अब तक एक अपराध है.
लेकिन मुंबई से 7600 किलोमीटर दूर आयरलैंड के समाज ने लियो वराडकर को न सिर्फ उनकी समलैंगिक पहचान के साथ पूरी तरह अपनाया, बल्कि अपना नेता भी चुन लिया.

बहुत से पश्चिमी देशों की तरह ही आयरलैंड का कानून और समाज इस वैज्ञानिक सोच को अपना चुका है कि ‘गे’ भी बाकी इंसानों की तरह ही सामान्य लोग हैं, जबकि हम अब तक समलैंगिकता को अपराध मानने की ‘मूर्खता’ से उबर नहीं पा रहे हैं.

इसीलिए ये कहना गलत नहीं होगा कि लियो वराडकर की कामयाबी के पीछे उनकी अपनी शख्सियत और मेहनत के अलावा उनके पिता के मुंबई छोड़कर आयरलैंड में बसने के फैसले का भी बड़ा हाथ है. इसे हम लियो वराडकर को उनके पिता की वजह से मिला माइग्रेशन डिविडेंड भी कह सकते हैं.

बरसों पहले ऐसा ही माइग्रेशन डिविडेंड भारत के संविधान और बुनियादी ढांचे के निर्माण में अहम योगदान करने वाले डॉ. भीमराव अंबेडकर के रूप में देश को मिला था. मध्य प्रदेश के महू में जन्मे डॉ. अंबेडकर अगर मुंबई और बड़ौदा से होते हुए अमेरिका और ब्रिटेन के बेहद सम्मानित शिक्षा संस्थानों तक नहीं पहुंचते, तो देश के संविधान निर्माता और अर्थशास्त्री के तौर पर जो भूमिका उन्होंने निभाई, उसका मौका उन्हें शायद ही मिल पाता.

डॉ. भीमराव अंबेडकर, सन 1950 में. (फोटो: विकीपीडिया कॉमंस)

कोलंबिया यूनिवर्सिटी और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे शीर्ष संस्थानों के आधुनिक माहौल में उन्हें जो अवसर और एक्सपोजर मिला, उसने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का विद्वान और चिंतक बनाने में अहम भूमिका निभाई.

जातिगत भेदभाव और छुआछूत से पीड़ित समाज की जकड़न से दूर खुले और आधुनिक विचारों की दुनिया ने न सिर्फ अंबेडकर की प्रतिभा को विकसित होने का मौका दिया, बल्कि आगे चलकर उन्होंने भारत के लिए वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित जिस संवैधानिक और राजनीतिक व्यवस्था का ढांचा तैयार किया, उसकी नींव भी शायद उनके इस अंतरराष्ट्रीय अनुभव के दौरान ही पड़ी.
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देश के पहले और अब तक इकलौते दलित राष्ट्रपति केआर नारायणन का सफर भी कुछ ऐसा ही था. केरल के कोट्टायम जिले के एक छोटे से गांव में जन्मे नारायणन का बचपन भी जातिगत भेदभाव से भरे समाज में गुजरा, जहां उन्हें अंबेडकर की तरह ही कई बार कक्षा से बाहर खड़े होकर पढ़ाई करनी पड़ती थी.

लेकिन तमाम कठिनाइयों के बावजूद केआर नारायणन ने त्रावणकोर यूनिवर्सिटी से लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स तक का सफर तय किया. लंदन से लौटने पर उन्होंने भारतीय विदेश सेवा में शामिल होकर दुनिया के कई देशों में काम किया और आखिरकार देश के राष्ट्रपति बने.

(फोटो: inmemoryglobal.com)

हम लिस्ट बनाते चलें, तो देश में ऐसे और अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे. माइग्रेशन सिर्फ एक से दूसरे देश की ओर ही नहीं, देश के भीतर गांव से शहर और शहर से महानगर की तरफ भी होता है. इसे इंटरनल माइग्रेशन कहते हैं. शिक्षा और समृद्धि के नए अवसरों की तलाश ऐसे माइग्रेशन की बड़ी वजह होती है. देश के हर कोने में अपनी व्यावसायिक सूझबूझ से सफलता का झंडा गाड़ने वाले मारवाड़ी समुदाय के लोग इसकी एक मिसाल हैं.

भारतीय संदर्भ में देखें, तो इंटरनल माइग्रेशन का एक और अहम पहलू भी है. वो पहलू है जाति प्रथा और उसके साथ जुड़ी सामाजिक, आर्थिक और पेशेगत पाबंदियों से आजादी.

जाति की ये जंजीरें चिर-परिचित समाज में ज्यादा मजबूत होती हैं. उनके घेरे में रहने वाले लोग पीढ़ियों से चले आ रहे ऊंच-नीच के रिवाजों और सदियों से चली आ रही जातीय पहचान की मजबूत जकड़न में कैद होते हैं. लेकिन वही लोग जब नई जगहों पर जाते हैं तो जातीय पूर्वाग्रहों की बेड़ियां ढीली पड़ने लगती हैं. दूरी ज्यादा बढ़ जाए तो जातीय पृष्ठभूमि उजागर करने वाले नामों की पहचान भी धुंधली हो जाती है.

माहौल में आने वाले इन बदलावों से सबसे ज्यादा राहत दलितों और पिछड़ी जातियों के लोगों को मिलती है, क्योंकि उन्हें भेदभाव से छुटकारा मिल जाता है.

डॉ. अंबेडकर और केआर नारायणन जैसी हस्तियों के अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचने की शुरुआत भी इसी तरीके से हुई थी. इंटरनल माइग्रेशन की ये प्रक्रिया तब से अब तक और रफ्तार पकड़ चुकी है. आंकड़े बताते हैं कि देश में सबसे ज्यादा इंटरनल माइग्रेशन उत्तर प्रदेश और बिहार से होता है. ये दोनों ही राज्य किस कदर जातिवाद के शिकार हैं, ये बात किसी से छिपी नहीं है.

ऐसा भी नहीं है कि जातिवाद जैसी बुराई से छुटकारा पाना सिर्फ दलितों-पिछड़ों के ही हित में है. अवैज्ञानिक और दकियानूसी सोच के जाले साफ हों, तो अंधेरा हर तरफ छंटता है, रोशनी चारों ओर फैलती है. यही वजह है कि दुनिया भर में वैज्ञानिक सोच-समझ को तरजीह देने वाले मुल्क तरक्की की राह पर लगातार आगे बढ़ रहे हैं, जबकि दकियानूसी सोच में उलझे समाज पीछे छूटते जा रहे हैं.

यही वजह है कि अशोक वराडकर ने कुछ हजार किलोमीटर का फासला तय करके अपने बेटे की जिंदगी को एक नए मुकाम पर पहुंचा दिया, जबकि उनकी जन्मभूमि जातिवादी सोच की कुछ हजार साल पुरानी तंग गलियों में अब भी भटक रही है.

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