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सेम सेक्स शादियों (Same Sex Marriage) पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने दलील दी थी कि इसकी इजाजत नहीं दी जा सकती क्योंकि देश के 99 प्रतिशत लोग इसे स्वीकार नहीं करते. अगर इस तर्क को खारिज कर दिया जाए तो भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोगों में होमोफोबिया (Homophobia), ट्रांसफोबिया (Transphobia) गहरी जड़ें जमाए हुए है.
घरों के अलावा शैक्षणिक संस्थान वह खास स्पेस होते हैं जहां हम अपना ज्यादा से ज्यादा समय बिताते हैं, और वहीं हमारी बुनियादी समझ विकसित होती है. लेकिन ये जगहें ही कई बार उन स्टूडेंट्स के लिए टॉक्सिक स्पेस बन जाती हैं, जो खुद को सिस-जेंडर और हेट्रोसेक्सुअल के रूप में नहीं पहचानते. वैसे दुनिया भर में LGBTQIA+ लोगों को बुलिंग, यातना और भेदभाव का शिकार बनाया जाता है. और इसके कई सामाजिक-राजनैतिक और सांस्कृतिक कारण हैं.
यूं हमारी सांस्कृतिक अवधारणाएं ही यह भेदभाव करना सिखाती हैं. पूर्वाग्रहों के कारण अक्सर शैक्षणिक संस्थानों में लोगों को होमो और ट्रांस नेगेटिविटी का सामना करना पड़ता है. जेंडर से जुड़ी भूमिकाएं, पुरुषोचित और स्त्रियोचित गुणों को लेकर हमारे भ्रम, ये सब मिलकर भेदभाव को उकसाते हैं. सार्वजनिक तौर पर मजाक उड़ाना, अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करना, धमकाना, शारीरिक हमला करना, ये सब शैक्षणिक संस्थानों, खासकर स्कूल में बहुत आम बात है.
सहोदरन-यूनेस्को के 2018 की एक रिसर्च में कहा गया था कि:
LGBT के तौर पर खुद को आइडेंटिफाई करने वाले करीब 60% स्टूडेंट्स को मिडिल या हाई स्कूल में बुलिंग का शिकार होना पड़ता है.
43% को यौन उत्पीड़न झेलना पड़ता है.
सिर्फ 18% स्टूडेंट्स स्कूल अथॉरिटी को इसकी शिकायत करते हैं.
33% स्कूल ही छोड़ देते हैं.
इसके बाद यूनेस्को के 2019 की एक रिपोर्ट में पाया गया था कि:
बुलिंग के कारण 73% लोग अपने साथियों से बातचीत करना बंद कर देते हैं
70% एन्जाइटी और तनाव के शिकार हो जाते हैं.
यही वजह है कि 2011 की जनगणना में चार लाख से ज्यादा ट्रांसजेंडर लोगों के होने के बावजूद दसवी और बारहवीं की बोर्ड की परीक्षा देने वाले ट्रांसजेंडर बच्चों की संख्या 2020 में क्रमशः 19 और छह थी.
लेकिन क्या सिर्फ सहपाठी और शिक्षक ही ऐसा व्यवहार करते हैं? ऐसा नहीं है. शिक्षण नीति, नियम, पाठ्यक्रम, टीचिंग मैटीरियल वगैरह भी अनचाहे भेदभाव करते हैं. कई बार ट्रांस स्टूडेंट्स को जेंडर के आधार पर निर्धारित वर्दी, उनके जेंडर की पहचान न बताने वाले ऑफिशियल डॉक्यमेंट्स, सिंगल सेक्स फेसिलिटीज जैसे शौचालयों और चेंजिंग रूम्स जैसी अड़चनों का भी सामना करना पड़ता है. एनसीआईआरटी की वेबसाइट पर जेंडर न्यूट्रल टीचर ट्रेनिंग मैनुअल को 2021 में हटा दिया गया जिसमें शिक्षकों को जेंडर विविधता के सबक सिखाए गए थे. इसी से समझा जा सकता है कि प्रशासन और नीति निर्माता इस मुद्दे को लेकर कितने संवेदनशील हैं.
अब इस भेदभाव को दूर करने का जरिया क्या है? सबसे पहले तो यह समझना जरूरी है कि LGBTQIA+ लोगों के साथ इस बुरे बर्ताव को खत्म करना, कोई बहुत ‘स्पेशल’ पहल नहीं है. यह बुनियादी मानवाधिकार है. किसी की सेक्सुअल और जेंडर आइडेंटिटी को स्वीकार करना, हमारा सामान्य बर्ताव होना चाहिए.
हम हमेशा से लोगों को महिला और पुरुष की बाइनरी में ही देखते हैं. लेकिन जेंडर और सेक्सुएलिटी इन दो शब्दों तक सीमित नहीं है.
फिर जेंडर और सेक्सुअल आइडेंटिटी क्या होती है? वे तो स्पेक्ट्रम में मौजूद होती हैं. बहुत से लोगों के लिए जन्म के समय मिला सेक्स, उनकी जेंडर आइडेंटिटी से एकदम अलग हो सकता है. जेंडर आइडेंटिटी का मतलब है, व्यक्ति खुद को कैसे आइडेंटिफाई करता है, कैसे देखता है. कोई इंसान खुद को पुरुष, महिला, ट्रांस पर्सन, ट्रांस क्वीर, नॉन-बाइनरी के तौर पर पहचान सकता है, या इनमें से किसी भी पहचान को नामंजूर कर सकता है.
कहा जाता है कि सेक्सुएलिटी और जेंडर आइडेंटिटी फ्लूड होती हैं, और स्पेक्ट्रम में मौजूद होती हैं, जैसा कि हमने पहले भी कहा है. सेक्सुअल पहचान और जेंडर को समझने के लिए कई किस्म के मुद्दों, भावनाओं और अनुभवों को समझने की जरूरत है.
सेक्सुएलिटी सिर्फ सेक्स नहीं है. सेक्सुएलिटी को समझने के समय किसी व्यक्ति की भलाई, उसकी सेक्सुअल पार्टनर की चॉइस और अपने सेक्सुअल आइडेंटिटी को जाहिर करने की आजादी, इन सबको भी समझना होगा.
यही सब समझने के लिए स्कूलों में कॉम्प्रेहेंसिव सेक्सुअल एजुकेशन का क्लास होनी चाहिए. क्वीर आइडेंटिटी पर बातचीत होनी चाहिए. स्कूल कैंपस में ऐसे प्रशिक्षित लोग मौजूद हों, जिनसे बच्चे इस बारे में चर्चा कर सकें.
इसके अलावा क्वीर फ्रेंडली काउंसिलर्स, जेंडर न्यूट्रल लिविंग स्पेस, कार्यक्रम, और फैकेल्टी में भी विविधता होनी चाहिए. जो नीतियां, नियम बनाए जाएं, वे समावेशी हों, और लोगों की अलग-अलग पहचान को ध्यान में रखें.
यातना की संस्कृति को खत्म करने के संघर्ष की कठिनाई से हम सब नावाकिफ नहीं. क्रूरता, क्षुद्रता, टुच्चापन यह सब मानवीय अवस्था का हिस्सा हैं. कवि और लेखक मंगलेश डबराल ने अपनी एक कविता ‘मैं चाहता हूं’ में कहा है- एक सरल वाक्य बचाना मेरा उद्देश्य है, मसलन यह कि हम इंसान हैं. इंसान होना बचाना है तो नफरत नहीं, प्रेम को स्वीकार करना होगा. हर किसी के प्रेम को स्वीकार करना.
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Published: 28 Apr 2023,03:03 PM IST