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BJP की जीत से उदारवादियों को घबराने की जरूरत नहीं

पिछले 500 सालों में ऐसा होता आया है कि हर सदी के आखिर में पुराने विचारों को छोड़ा गया है

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Updated:
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
फोटो:Twitter 

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2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी की हैरतंगेज जीत से देश के उदारवादियों की परेशानी बढ़ गई है. वे अब पूछ रहे हैं,‘अब अपना क्या होगा, कालिया?’ मैं उनसे कहना चाहता हूं: तसल्ली से बैठिए और भविष्य के बारे में सोचिए. बीती बातों पर पछताने से कुछ नहीं होगा.

असल में आप ठीक से सोच नहीं पाते और पाखंड करते रहते हैं. मेरे ख्याल से भारत के उदारवादियों के लिए यह (पाखंडी और ठीक से न सोच पाने वाले) अच्छी परिभाषा हो सकती है.

उन्हें पता होना चाहिए कि पिछले 500 वर्षों में हर सदी के आखिर में पिछले 60-70 साल के राजनीतिक विचारों को अस्वीकार किया जाता रहा है.

इसके बाद कुछ समय के लिए उन्हीं राजनीतिक आइडियाज की वापसी होती है और नई सदी शुरू होने के बाद उन्हें हमेशा के लिए रिजेक्ट कर दिया जाता है. अधिक विकसित समाज में पिछले राजनीतिक विचारों को मामूली या बड़े बदलाव के साथ नई सदी में स्वीकार कर लिया जाता है.

इस संदर्भ में डॉनल्ड ट्रंप की मिसाल और एकीकृत यूरोपीय संघ की मिसाल दी जा सकती है. आप पिछले 300-500 वर्षों में ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, रूस और पिछले 200 साल में अमेरिका को ले लीजिए. आपको वहां यही ट्रेंड दिखेगा.

फिर भारत कैसे इसका अपवाद हो सकता है? भारत में पहले यह ट्रेंड कभी नहीं टूटा है. वह हमेशा इसी पैटर्न पर चला है. जहां तक अलग-अलग समाज की बात है, हम अनोखे नहीं हैं. नई सदी के पहले 20-25 साल में हमारे यहां भी हमेशा व्यवस्थागत बदलाव हुए हैं.

विकसित देश और भारत जैसे इमर्जिंग सोसायटी में होने वाले ऐसे बदलावों में एक बड़ा अंतर है. विकसित देशों में अक्सर मामूली बदलाव होते हैं, जबकि इमर्जिंग सोसायटी में व्यापक बदलाव. इस साल भारत में यही हुआ है.

देश ने सारे पुराने विचारों को खारिज कर दिया है. विकसित देश हों या उभरते हुए देश, नई सदी में हर जगह‘सिस्टम अपग्रेड’ होते हैं. इसमें पुराने हार्डवेयर की जगह नया हार्डवेयर लेता है. भारत के उदारवादियों को यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए.

देश में उदारवाद की नई राह क्या हो?

यह बताना मुश्किल है कि देश में उदारवाद का चेहरा कैसा होगा. लेकिन उदारवादियों को इस द्वंद्व को समझना होगा कि भारत में इलेक्टोरल डेमोक्रेसी है, जो सामूहिक पहचान पर केंद्रित है, जबकि उदारवाद की बुनियाद इंडिविजुअल होते हैं.

इन दोनों को साथ लेकर चलना नामुमकिन है. उदारवादी अलग-अलग समूह (जाति, समुदाय या आदिवासी), खासतौर पर अल्पसंख्यक समूहों के लिए अलग-अलग नियम नहीं बना सकते. ना ही वे यह कह सकते हैं कि धार्मिक अल्पसंख्यकों का अधिकार जातीय अधिकार से ऊपर है.

आखिर जातीय आधार पर भी कोई वर्ग अल्पसंख्यक हो सकता है और उस समूह में भी करोड़ों लोग हो सकते हैं. अगर उदारवादी यह कहते हैं कि जाति जहर है (इसमें कोई शक नहीं है) और इसे खत्म हो जाना चाहिए तो उन्हें यह भी कहना चाहिए है कि धर्म जहर है और उसे खत्म हो जाना चाहिए. आखिर जाति और धर्म दोनों ही एक‘दैवीय व्यवस्था’ पर आस्था रखते हैं.

ऐसे में कौन किससे बेहतर है, यह कैसे कहा जा सकता है? दूसरी बात यह है कि राजनीतिक उदारवाद का आर्थिक उदारवाद के साथ टकराव खत्म करना होगा. राजनीतिक उदारवाद से प्रॉडक्टविटी घटती है, जबकि आर्थिक उदारवाद का परिणाम इसका उलटा होता है.

वंचित समूह के बजाय वंचित शख्स को आधार बनाकर सरकारी नीतियां बनानी होंगी. अगर साल में 20 करोड़ स्कॉलरशिप दी जाती है तो ज्यादातर समस्याएं खत्म हो जाएंगी. तीसरी बात यह है कि हमारे यहां इंसाफ की जो व्यवस्था है, वह व्यक्ति-विशेष को केंद्र में रखकर बनाई गई है, जबकि राजनीतिक न्याय के केंद्र में समूहों को रखा गया है. इस द्वंद्व को भी खत्म करना होगा.

किसी समूह को ध्यान में रखकर कानून नहीं बनाए जा सकते. यूपीए सरकार ने इसकी कोशिश की थी, जो फेल हो गई. इसलिए इस मामले में रास्ता क्या होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है. अगर भारतीय उदारवादी अगले 10 साल में इतना बदल सके तभी राजनीतिक तौर पर वे प्रासंगिक बने रहेंगे. और अगर नहीं बदले तो अलविदा दोस्तो!

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Published: 09 Jun 2019,11:54 AM IST

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