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जब डब्ल्यूएचओ जैसे संगठन ने कोविड-19 के प्रकोप के बीच गर्भपात को अनिवार्य स्वास्थ्य सेवा कहा, तो बहुत से लोगों को एहसास हुआ कि महामारी के दौर में औरतों के प्रजनन स्वास्थ्य पर क्या असर होने वाला है. बेशक, महामारियों का औरतों पर अलग ही किस्म का असर होता है. वायरस का असर सिर्फ वही नहीं जो दिख रहा है- इसके दूसरे शारीरिक प्रभाव भी होने वाले हैं. औरतों के लिए अपनी सेहत को बचाना मुश्किल हो रहा है.
औरतों के लिए प्रजनन स्वास्थ्य पहले ही प्रिविलेज है. सिर्फ भारत में ही नहीं, दुनिया के बहुत से देशों में. खास तौर से गरीब देशों में. उनकी सामाजिक सच्चाई यही है कि दांपत्य संबंधों में औरतों के पास फैसले लेने की शक्ति नहीं. परिवार नियोजन के फैसले भी वे खुद नहीं ले सकतीं- कितने बच्चे होने चाहिए. बच्चों के बीच कितने साल का फर्क होना चाहिए. औरत को किस उम्र में मां बनना चाहिए.
यूनिसेफ के आंकड़े कहते हैं कि विकासशील क्षेत्रों में 15 साल से कम उम्र की लगभग आठ लाख लड़कियां और 15 से 19 साल की सवा करोड़ लड़कियां हर साल मां बनती हैं. औरतों के पास संभोग के दौरान ना कहने का मौका भी कम होता है. इसीलिए गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल की जिम्मेदारी उन्हीं पर आती है.
यूएन के 2017 के वर्ल्ड फैमिली प्लानिंग नामक अध्ययन में कहा गया है कि 58% शादीशुदा या इन-यूनियन महिलाएं फैमिली प्लानिंग के आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल करती हैं जोकि गर्भनिरोधकों के सभी यूजर्स का 92% है. खुद भारत की स्थिति भी काफी बुरी है. एनएफएचएस 2015-16 के आंकड़े कहते हैं कि सिर्फ 5% पुरुष नसबंदियां कराते हैं- बाकी अधिकतर नसबंदियां औरतें कराती हैं जोकि 86% है.
इन आंकड़ों के बीच यह समझना जरूरी है कि कोविड-19 के हाहाकार का औरतों की कमजोर सेहत पर क्या असर होगा. चूंकि गर्भनिरोधकों का विश्वव्यापी बाजार ही धराशायी होने की स्थिति में है. आंकड़े कहते हैं कि इसका असर सीधा-सीधा औरतों की सेहत पर पड़ने वाला है. सबसे पहली बात तो यह है कि कंडोम और दूसरे गर्भनिरोधक अधिकतर एशिया में मैन्यूफैक्चर होते हैं. बहुत सी चीनी कारखाने बंद हैं और बहुत से कारखाना मजदूरों को घर पर रहकर काम करने को या कम घंटे काम करने को कहा गया है.
बहुत से कॉन्ट्रासेप्टिव सप्लायर्स अपनी पूरी क्षमता भर काम नहीं कर पा रहे. डीकेटी जैसे फैमिली प्लानिंग प्रॉडक्ट्स और सेवा प्रदाता ने म्यांमार में स्टॉक आउट की खबर दी है. कई भारतीय दवा कंपनियों को स्लोडाउन की आशंका है क्योंकि चीनी सप्लायर्स से एपीआई यानी एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडियंट्स नहीं मिल रहे.
जाहिर सी बात है, इसका असर महिलाओं की सेहत पर सबसे ज्यादा पड़ने वाला है. विश्वव्यापी बाजार में जब सारा काम सप्लाई चेन पर निर्भर करता है तो उसका असर भी विश्वव्यापी होता है. गर्भनिरोधकों की सप्लाई कम है, और मांग बड़ी है. यह खबरें भी आ रही हैं कि लॉकडाउन में लोग बंद हैं और सोशल डिस्टेंसिंग की जगह इंटिमेसी ने ले ली है. एक्सपर्ट्स कह रहे हैं कि दिसंबर 2020 कोरोन वायरस बूम होने वाला है और 2033 में क्वारंटीन्स यानी किशोर बच्चों की पूरी जनरेशन तैयार होने वाली है. यूं कहीं ये संबंध परस्पर प्रेम से बन रहे हैं, कहीं जबरन. दोनों स्थितियों में औरतों के पास गर्भनिरोध के साधनों की कमी है. इसका असर बहुत जबरदस्त होने वाला है.
एक सच्चाई यह भी है कि विकासशील देशों में कोरोना वायरस के कारण क्लिनिक्स बंद हो रहे हैं और असुरक्षित गर्भपात लाखों की संख्या में होने की आशंका है. इंटरनेशनल प्लान्ड पेरेंटहुड फेडरेशन जैसे अंतरराष्ट्रीय एनजीओ के 23 सदस्य संगठनों ने 64 देशों में अपने 5,600 क्लिनिक बंद कर दिए गए हैं.
अमेरिकी सोशल साइंटिस्ट्स आर. स्टीफेंसन और एम ए कोईनिग ने एक पेपर लिखा है- ग्रामीण भारत में घरेलू हिंसा, गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल और अवांछित गर्भावस्था. उनका कहना है कि कई बार मर्दों की तरफ से की जाने वाली हिंसा औरतों के गर्भनिरोध के फैसले को प्रभावित करती है. दूसरी तरफ गर्भनिरोध के फैसले की वजह से भी औरतें मर्दो की हिंसा की शिकार होती हैं. इस पेपर में इन दोनों के बीच को-रिलेशन साबित हुआ है. कोरोना की मार के बीच इसका विद्रूप रूप दिखाई देने वाला है.
हैदराबाद के एक नॉन प्रॉफिट ने 2016 में एक सर्वेक्षण किया था- उसमें 83% औरतों ने कहा था कि उनके साथ होने वाली घरेलू हिंसा में दूसरी सबसे बड़ी वजह यह है कि वे दो से ज्यादा बच्चे नहीं चाहतीं. 62% के पति गर्भनिरोध के साधन इस्तेमाल करने पर उन्हें पीट डालते थे. 87% चुपचाप किसी न किसी साधन का इस्तेमाल करती थीं.
कनाडा की मशहूर फेमिनिस्ट स्कॉलर मिशेल मर्फी कहती हैं, आदमजात के लिए दुनिया का सबसे अच्छा कॉन्ट्रासेप्टिव है, औरतों की पढ़ाई-लिखाई. कोविड-19 के बीच यह एहसास करने की जरूरत है कि सेहत का फैसला जब पढ़-लिखकर औरत लेगी, तो उसके जीवन की दिशा कुछ और ही होगी. महामारियां कभी-कभी आती हैं, लेकिन समाज की दूसरी सच्चाइयों को सुधारने का मौका हमेशा रहता है.
(ऊपर लिखे विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है)
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Published: 18 Apr 2020,01:17 PM IST