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चुनावों में जीत के लिए क्या चाहिए- कम महंगाई या फिर ऐसा माहौल, जहां महंगाई की दर 8 परसेंट के पार हो और खाने-पीने के सामान उससे भी ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हों? चूंकि महंगाई हर चुनाव में मुद्दा रहती है, स्थिर कीमत का मतलब हुआ जीत पक्की. लेकिन 11 दिसंबर को हमने पाया है कि ‘सस्ती कीमत का मतलब चुनाव में जीत’ वाला फॉर्मूला हमेशा सही नहीं होता.
इतनी कम सालाना महंगाई दर तो मनमोहन सिंह सरकार के पहले कार्यकाल में कभी नहीं रही. उनके पहले कार्यकाल के आखिरी साल में खाने-पीने की चीजों की महंगाई की दर 10 परसेंट के पास थी. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव की राह में यह बाधा नहीं बनी और 2008 में कांग्रेस को पहले से भी बड़ा जनादेश हासिल हुआ. तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में हमने जो देखा, वो हमारे महंगाई के पुराने फॉर्मूले के उलट है.
खाने-पीने की कुछ चीजों में कभी-कभार आए अचानक उछाल को छोड़ दें, तो बीते चार साल में स्थिर कीमत का दौर रहा है. महंगाई की दर फिलहाल लगभग नगण्य है और कुछ साल पहले दालों की जो कीमतें थीं, उस मुकाबले अभी ये काफी कम हैं. तब ग्रामीण भारत वर्तमान शासन-व्यवस्था से क्यों नाराज है?
हम यह देख रहे हैं कि ग्रामीण आमदनी स्थिर हो गयी है, इसलिए कीमत में स्थिरता के बावजूद किसान हताश दिख रहे हैं.
'इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट के मुताबिक, ''खाने-पीने की चीजों के थोक मूल्य इंडेक्स में औसत सालाना बढ़ोतरी 2.75 परसेंट रही, जबकि दूसरे कृषि उत्पादों में ये 0.76 परसेंट रही. इसकी तुलना में यूपीए सरकार के पिछले पांच साल के दौर में यही 12.26 परसेंट और 11.04 परसेंट पहुंच गयी थी.''
कुल मिलाकर, इसका मतलब ये निकला कि 2014 के बाद से गांव में रहने वाले ज्यादातर लोगों की आमदनी पिछले चार साल में जस की तस है. यही वजह है कि इन तीन राज्यों में ग्रामीण सीटों पर बीजेपी का बुरा हाल रहा.
अगर 2014 के लोकसभा चुनावों से तुलना करें, तो यह गिरावट और भी बड़ी हो जाती है. गुजरात विधानसभा चुनावों में जो प्रवृत्ति हमने देखी थी, यह उसी का विस्तार है, जहां बीजेपी ग्रामीण और अर्धशहरी इलाकों में महज 43 फीसदी सीटें ही जीत सकी थी.
अगर ग्रामीण हताशा जारी रहती है, तो आने वाले लोकसभा चुनावों में इसके और क्या प्रभाव होंगे? आइए याद करें, जब भारतीय चुनावी इतिहास में पहली बार 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने ग्रामीण इलाकों की सीटों का बड़ा हिस्सा झटक लिया था. पार्टी ने 342 ग्रामीण सीटों में से 178 पर जीत हासिल की थी, जो 2009 के लोकसभा चुनाव में जीती गयी 66 सीटों के मुकाबले काफी ज्यादा था. दूसरी ओर कांग्रेस को ग्रामीण इलाकों में जबरदस्त गिरावट झेलनी पड़ी थी, जो 2009 में 116 से गिरकर 2014 में 27 सीटों पर पहुंच गयी.
चार राज्यों-गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों के हिसाब से अगर ट्रेंड बदलता है, तो बीजेपी को 342 ग्रामीण सीटों में सेंचुरी तक पहुंचने के लाले पड़ सकते हैं. सीटों का यह नुकसान बहुत बड़ा है.
मैंने इसे पहले भी उठाया है और इस बात पर जोर देना जरूरी है कि कांग्रेस का आधार हासिल करना बीजेपी के लिए बुरी खबर है. तीन राज्यों में, जहां दो मुख्य पार्टियां सीधे लड़ाई में हैं, कांग्रेस ने अपनी जीत की दर को 2013 में 23 फीसदी से बढ़ाकर अब 54 फीसदी पहुंचा दिया है.
अगर बीजेपी और कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनावों में बराबरी पर आ जाएं, तो खेल का परिणाम काफी अलग हो सकता है. हमने ऐसा होते हुए हाल के चुनावों में गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में देखा है.
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हर चुनाव अलग होता है और लोकसभा चुनाव को कभी भी विधानसभा चुनावों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. लेकिन हाल के विधानसभा चुनाव जिस ट्रेंड की ओर इशारा करते हैं, वह सत्ताधारी पार्टी के लिए बहुत सकारात्मक नहीं है, बशर्ते अभी और अगले साल अप्रैल-मई के दरम्यान कोई नाटकीय बदलाव न हो जाए.
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