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3 अक्टूबर को श्रीनगर में बीएसएफ के अधिकारियों ने जो नेतृत्व क्षमता दिखाई, उससे सीख ली जानी चाहिए. उन्होंने दिखाया कि आतंकवादी हमला होने पर क्या करना चाहिए और किसी भी खतरे से निपटने के लिए कैसी तैयारी होनी चाहिए.
दूसरे फिदायीन हमलों के उलट उस रोज चौकन्ना संतरियों ने एक आतंकवादी को हमले के कुछ ही मिनटों में ढेर कर दिया था. दूसरे को पहले घंटे में और तीसरे को उसके कुछ देर बाद मार गिराया गया.
आतंकवादियों के हमले के वक्त जो कंपनी कमांडर वहां मौजूद थे, उन्होंने ना सिर्फ सैनिकों का मार्गदर्शन किया और जवाबी कार्रवाई की योजना बनाई, बल्कि कुछ किलोमीटर दूर फ्रंटियर हेडक्वॉर्टर के साथ तालमेल भी बनाए रखा. इसका फायदा यह हुआ कि हेडक्वॉर्टर में मौजूद बीएसएफ के दो डीआईजी ने क्विक रिएक्शन टीम (क्यूआरटी) तैयार की और आखिरी आतंकवादी को ढेर कर दिया.
अब जरा याद करिए कि 23 सितंबर की आधी रात बीएचयू में छात्राओं पर हुए लाठीचार्ज या बाबा राम रहीम को दोषी ठहराए जाने के बाद उसके समर्थकों की हिंसा पर हरियाणा पुलिस ने क्या किया था. इन दोनों ही मामलों में आईपीएस अधिकारियों ने गलती की. अगर आप जाट आंदोलन और बाबा रामपाल की गिरफ्तारी के मामलों को जोड़ दें, तो इसमें शक नहीं रह जाता कि ये पुलिस के अनप्रोफेशनल रवैये के इक्का-दुक्का मामले नहीं हैं. इन मामलों में मौके पर बड़े अधिकारी नहीं थे. इसलिए जूनियर अधिकारियों को ऐसे हालात से निपटना पड़ा, जिसकी योग्यता उनमें नहीं थी.
इसकी सबसे बड़ी वजह आईपीएस अधिकारियों में नेतृत्व क्षमता का अभाव है. ये लोग बस राजनीतिक आकाओं को खुश करने में लगे रहते हैं. आपराधिक मामलों की जांच में जिन तकनीकों का इस्तेमाल होना चाहिए, उनकी इन्हें समझ नहीं है. इसलिए कम दोषियों को सजा मिल पा रही है. 1974 में जहां 62.7 पर्सेंट आरोपियों को सजा मिली थी, वहीं 2013 में यह 40.2 पर्सेंट रह गई. आरुषि मामले में बड़े पुलिस अधिकारियों ने ऐसे बयान दिए, जो उन्हें नहीं देने चाहिए थे. इससे उनकी बौद्धिक क्षमता पर सवालिया निशान लगता है.
‘हफ्ता’ को पुलिस वाले अपना अधिकार मानते हैं. जिस कॉन्स्टेबल को पासपोर्ट वेरिफिकेशन के लिए भेजा जाता है, वह ‘चाय-पानी’ को अपना हक समझता है. यूपी के डीजीपी ने हाल ही में कहा था कि नाभा जेलब्रेक मामले में कथित तौर पर एक आईजी की भूमिका होने की जांच हो रही है. इसमें एक अपराधी फरार हो गया था.
दिल्ली पुलिस के एक डीसीपी पर कुछ सौ करोड़ की संपत्ति जमा करने के आरोप लगे हैं. सीबीआई के दो पूर्व डायरेक्टरों पर अपराधियों से मिलीभगत के आरोप लगे हैं. मध्य प्रदेश के एक पुलिस अधिकारी ने खुलासा किया था कि वह फर्जी एनकाउंटर में शामिल रहा है, जिसके बाद 15 साल पहले दिया गया गैलेंटरी मेडल उससे वापस ले लिया गया.
मैं यह भी कहना चाहूंगा कि पुलिस फोर्सेज में कई ईमानदार और सक्षम अधिकारी हैं. मुझे ऐसे तीन शानदार लीडर्स के साथ काम करने का मौका मिला है. इनमें एमपी कैडर के चमन लाल, असम कैडर के ई एन राममोहन और बंगाल कैडर के एस रामकृष्णन शामिल हैं. मेरे सहित कई अधिकारी इन लोगों को रोल मॉडल मानते हैं.
अक्सर कहा जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के सुझाए सुधार नहीं लागू करने और नेताओं की दखलंदाजी के चलते पुलिस बदहाल बनी हुई है. यह बात सही है कि प्रकाश सिंह बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के सुझाए रिफॉर्म राज्य सरकारों ने लागू नहीं किए हैं, लेकिन पुलिस के निकम्मेपन की यह अकेली वजह नहीं है.
इसके उलट, सच यह है कि कई आईपीएस अधिकारी इन रिफॉर्म्स को लागू नहीं करना चाहते क्योंकि अभी वाले सिस्टम में वे जिस तरह से मनमानी कर पाते हैं, उस पर रोक लग जाएगी.
नीचे दिए गए रिफॉर्म्स का सुझाव सुप्रीम कोर्ट ने दिया था.
पुलिस अधिकारियों को किसी तरह के दबाव से बचाना
पोस्टिंग और ट्रांसफर में पारदर्शिता
जांच के काम को कानून-व्यवस्था मेंटेन करने से अलग रखना
मनमानी रोकने के लिए पुलिस कंप्लेंट्स अथॉरिटी बनाना
29 सितंबर 2017 को द इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख में प्रकाश सिंह ने पुलिस को नेताओं की गिरफ्त से आजाद करने की अपील की थी. क्या वह यह कहना चाहते हैं कि पुलिस को स्वायत्त संस्थान बना दिया जाए जो सरकार के प्रति जवाबदेह ना हो. किसी भी सूरत में इसकी इजाजत नहीं मिलनी चाहिए. पुलिस अधिकारी अक्सर शिकायत करते हैं कि 1862 के पुलिस कानून की वजह से पुलिस सत्ता का हथियार बन गई है. यह कानून अंग्रेजों ने बनाया था और उसका मकसद भारतीय जनता पर नियंत्रण बनाए रखना था.
एक आम पुलिस वाले पर काम का दबाव काफी ज्यादा है. पुलिस बल की कमी और वीआईपी सुरक्षा से यह मुश्किल और बढ़ जाती है. बड़े पुलिस अधिकारी और उनके परिवार वाले निजी काम के लिए भी अपने मातहतों का इस्तेमाल करते हैं.
पुलिस आधुनिकीकरण के लिए जो फंड मिलता है, उसका इस्तेमाल सिर्फ इक्विपमेंट खरीदने के लिए ही नहीं बल्कि अधिकारियों की जांच करने की क्षमता को बेहतर करने और पुलिसिंग में सुधार के लिए भी होना चाहिए. इसके साथ जवानों की जिंदगी और वर्किंग कंडीशंस में सुधार के लिए तुरंत पहल की जानी चाहिए.
दूसरी तरफ, सरकार को आईपीएस अधिकारियों के सेलेक्शन प्रोसेस को बदलने की जरूरत है. अभी अधिक स्कोर हासिल करना इसका पैमाना है. प्रतियोगी परीक्षा के जरिए अगर तजुर्बेकार पुलिस वाले को आईपीएस अधिकारी बनाया जाता है तो इस समस्या का हल निकल सकता है. आज पुलिस लोगों का भरोसा हासिल करने के लिए संघर्ष कर रही है. इस गर्त से निकालने का काम पुलिस अधिकारियों का है.
(लेखक BSF से सेवानिवृत्त एडिशनल डायरेक्टर जनरल हैं. यहां व्यक्त विचार उनके अपने विचार हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है, न ही किसी तरह इसके लिए उत्तरदायी है.)
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Published: 31 Oct 2017,08:04 AM IST