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कुछ शब्द ऐसे होते हैं जिनका संपूर्ण अनुवाद मुश्किल है. उनके मायने समझने के लिए – खासकर उनका विस्तार और उनकी गहराई जानने के लिए – देखना होता है कि उन शब्दों का इस्तेमाल कौन, कहां, किस संदर्भ में, और किसके खिलाफ कर रहा है. मराठी शब्द ‘मी पन्ना’ भी ऐसा ही एक शब्द है. सीधा अनुवाद हो तो मतलब निकलता है ‘अहंकार’. लेकिन जब क्रोधित उद्धव ठाकरे ने 22 नवंबर को मुंबई में शरद पवार के साथ पहली प्रेसवार्ता में - महाराष्ट्र में राज्यपाल की मदद से ‘आधी-रात के तख्तापलट’ की पूर्व-संध्या पर- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह के खिलाफ आरोप के तौर पर इसका इस्तेमाल किया तो ‘मी पन्ना’ का अर्थ था: ‘घमंड’, ‘गठबंधन के साथियों का अपमान’, ‘विरोधियों के खिलाफ ताकत का बेशर्म दुरुपयोग’, और ‘येन-केन-प्रकारेण सिर्फ हमें शासन का हक’.
इसलिए एक शब्द से, जो कि आम तौर पर साधारण मतलब रखता है लेकिन अपने संदर्भ से ज्वलनशील अर्थ ले चुका था, ठाकरे ने 30 साल पुरानी दोस्ती को खाक करने की बड़ी वजह साफ कर दी. उस एक शब्द से उन्होंने उन दो बड़े लोगों की शख्सियत का रेखाचित्र खींच दिया जो केन्द्र में सरकार चला रहे हैं.
ठाकरे और उनकी पार्टी शिवसेना किसी भी मापदंड पर राजनीतिक नैतिकता का पैमाना नहीं माने जाते. मुंबई में पहले उनकी सरकार का रवैया कितना अभद्र था, आम तौर पर शिवसैनिकों का आचरण कितना उग्र होता है, और पार्टी की कट्टर हिंदुत्ववादी विचारधारा (जो कि हर हाल में अब कमजोर होगी, क्योंकि ठाकरे कांग्रेस और एनसीपी के साथ सत्ता की साझेदारी कर रहे हैं) के बारे में सबको पता है. शिवसेना की सबसे बड़ी खामी है उसकी राजनीतिक अवसरवादिता. आखिरकार महाराष्ट्र के लोगों ने इस विधानसभा चुनाव में अपना मत बीजेपी और शिवसेना के चुनाव पूर्व गठबंधन को दिया था.
ऐसा क्यों हुआ? इसका जवाब, ठीक उसी शब्द ‘मी पन्ना’ में छिपा है, जिसका इस्तेमाल ठाकरे ने मोदी और शाह के चरित्र चित्रण के लिए किया – सत्ता के घमंड ने अहंकार की सीमा तोड़ दी और विरोधी को मात देने के लिए हर तिकड़म अपनाने के लिए तैयार रहने से बात और बिगड़ गई. महाराष्ट्र में ‘आधी-रात के तख्तापलट’ में इनकी 'प्रत्यक्ष' भूमिका से यह साफ जाहिर हो गया, हालांकि यह षड़यंत्र इसलिए धराशायी हो गई, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने – संयोग से, संविधान दिवस (26 नवंबर) पर – उनकी कुटिल योजना पर पानी फेर दिया.
जैसे ही शिवसेना ने बीजेपी का दामन छोड़ा, मोदी-शाह की जोड़ी ने ठान लिया, चाहे जो भी हथकंडे अपनाना पड़े, महाराष्ट्र में शिवसेना के नेतृत्व में सरकार नहीं बनने दी जाएगी.
‘आधी-रात के तख्तापलट’ की जो साजिश रची गई - ताकि दोबारा देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाया जा सके– वह भारतीय प्रजातंत्र के इतिहास में संविधान और प्रजातांत्रिक सिद्धांतों के अपमान की मिसाल बन गई. 22 नवंबर की रात इन्होंने देश के राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल तक को अपना आदेश मानने पर मजबूर कर दिया. हैरानी की बात यह है कि वो कामयाब भी हो गए.
भारतीय गणतंत्र की संरचना में राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान का संरक्षक (चौकीदार) माना गया है. लेकिन दुख की बात यह है कि महाराष्ट्र में दोनों ‘चौकीदारों’ को ‘चोरी’ में – सत्ता पर कब्जा करने के बीजेपी के अवैध तरीके में - शामिल किया गया. राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने प्रधानमंत्री मोदी से नहीं पूछा कि उन्होंने राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफारिश से पहले कैबिनेट की बैठक क्यों नहीं बुलाई, आखिर क्यों उन्होंने ऐसे प्रावधान की मदद ली, जिसे दुर्लभ और आपातकाल जैसी स्थिति में ही इस्तेमाल किया जाना चाहिए, और क्यों उन्हें आधी रात को लिए गए उस फैसले पर दस्तखत करने के लिए मजबूर किया गया.
सच तो यह है कि ना सिर्फ सुबह 5:47 बजे जैसे गैरजरूरी वक्त पर राष्ट्रपति शासन लगाया गया, बल्कि राज्यपाल कोश्यारी को आदेश दिया गया कि वह जल्दी से ('चुपके से' ज्यादा उपयुक्त शब्द होगा) बीजेपी के देवेंद्र फडणवीस और एनसीपी के अजित पवार को, मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई.
एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार, जो कि 79 साल की उम्र में गैर-बीजेपी राजनीति के ‘भीष्म पितामह’ बनकर उभरे हैं, ने घोषणा कर दी थी कि नई सरकार उद्धव ठाकरे के नेतृत्व में ही बनेगी.
इसके बावजूद फडणवीस ने अचानक और रहस्यमयी तरीके से उसी एनसीपी के नेता, अजित पवार, में अपना दोस्त ढूंढ लिया, जिन्हें पहले कई बार उन्होंने 70,000 करोड़ रुपये के भ्रष्टाचार के मामले में जेल भेजने की धमकी दी थी. सियासी अधर्म की यह चाल भी फीकी पड़ गई, जब यह पता चला कि फडणवीस के दावे का आधार तो अजित पवार से मिली समर्थन की एक फर्जी चिट्ठी थी. जबकि चिट्ठी में उन्हें बतौर एनसीपी विधायक दल नेता ऐसा कोई अधिकार नहीं दिया गया था कि बीजेपी की नेतृत्व वाली सरकार को वह अपने 54 विधायकों का समर्थन दिखाएं. यह फडणवीस और राज्यपाल कोश्यारी दोनों को चिट्ठी देखते ही मालूम हो गया होगा.
हैरानी की बात यह थी कि राज्यपाल ने एक फर्जी चिट्ठी को वाजिब माना और फडणवीस और अजित पवार को शपथ दिला दी.
एक झटके में सर्वोच्च अदालत ने बीजेपी की खास पहचान बन चुकी ‘ऑपरेशन कमल’ के तहत होने वाली विधायकों की खरीद-फरोख्त की सारी संभावनों को खत्म कर दिया. अगर कोर्ट ने इस तरह से हस्तक्षेप नहीं किया होता, महाराष्ट्र में भी विरोधी पार्टी के विधायकों को लालच देकर वही दोहराया जाता जो बीजेपी कर्नाटक में कर चुकी थी.
अगले कुछ दिनों में महाराष्ट्र इस संकट से उबर जाएगा. लेकिन इस प्रकरण ने ना सिर्फ देश की केन्द्रीय नेतृत्व के आचरण पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं, उससे भी बड़ी बात यह है कि भारत के राष्ट्रपति और महाराष्ट्र के राज्यपाल के पद का मानमर्दन हुआ है.
हमारा देश राज्यपालों के पक्षपातपूर्ण रवैये से अनजान नहीं रहा है. लेकिन बहुत कम ऐसा हुआ कि राष्ट्रपति भवन की प्रतिष्ठा पर ऐसे विवादित मामलों की आंच पड़ी हो. अगर ऐसे ही राष्ट्रपति प्रधानमंत्री का ‘रबर स्टांप’ बनने के लिए तैयार होते रहे तो संभव है. भारत का गौरवशाली प्रजातंत्र भी तानाशाही में तब्दील हो जाएगा.
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