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साल 2014 के आम चुनाव से ठीक आठ महीने पहले सितंबर 2013 में तत्कालीन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर नामित किया गया था. इस अधिकारिक घोषणा से पहले ही, 2012 में नरेंद्र मोदी की लीडरशिप में हुए विधानसभा चुनाव होने के बाद, उनकी प्रचार टीम ने उन्हें इस शीर्ष पद के लिए पिच करना शुरू कर दिया था
बेशक, ममता राजनीतिक समझ रखने वाली, कठोर, शारीरिक ऊर्जा और माटी से जुड़ा आदमी होने की छवि के मामले में मोदी से मेल खाती हैं. बावजूद इसके उनकी इस महत्वकांक्षा की राह में ऐसे चार कारणों की बड़ी चुनौतियां हैं, जो उन्हें 2014 की मोदी की लहर जैसा माहौल पैदा करने से रोकती हैं.
2014 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA)-II से निराशा और 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन (IAC)' के तहत लामबंदी ने जहां बदलाव के लिए एक मूड बनाया था, मोदी उसे भुनाने में कामयाब भी हुए थे, लेकिन आज भी मोदी के खिलाफ जन आक्रोश (भ्रामक तौर पर) मैनेजेबल है.
निश्चित रूप से, यह राज्य के चुनावों में चोट पहुंचाता है और काम भी करता है, और विवादास्पद नागरिकता कानून और कृषि कानून में बदलाव के खिलाफ सार्वजनिक विरोध ने सरकार के विरोधियों के बीच आशा जगाई है. लेकिन यह कह पाना कठिन है कि भारत के अधिकांश मतदाता मोदी सरकार को पीठ दिखाने के लिए बेताब है. हां, यह प्रदर्शन के बारे में कम और हिंदुत्व की मनगढ़ंत कहानी के बारे में ज्यादा है. लेकिन इससे मोदी सरकार पंगू नहीं हो जाती.
मोदी की बीजेपी का हिंदी भाषी इलाकों के अलावा गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे गैर हिन्दी सूबों में एक बड़ा समर्थक तबका है, जो एक मौजूदा और बड़ा जनाधार है. इसी जनाधार के आसरे, एक स्मार्ट और जोशीले अभियान ने मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में बड़ी भूमिका निभाई. ये जनाधार भी ऐसा रहा, जो बीते तीन दशक में नहीं देखा गया.
अब ममता के पास एक बड़ा, रेडीमेड आधार खोजने का एकमात्र तरीका उस जगह को हथियाना है जिस पर कांग्रेस का कब्जा है, जिसे वह हासिल करने की कोशिश कर रहीं हैं. लेकिन यह एक नई नवेली आप को बाहर निकालने से कहीं ज्यादा मुश्किल है. कांग्रेस, गिरावट के बावजूद, एक स्थापित इकाई है और इसे राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों की ओर से भी मोदी की बीजेपी के खिलाफ लड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण हथियार के तौर पर देखा जाता है. वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के पास चुनावी रूप से अहम समझे जानेवाले हिन्दी भाषियों के गढ़ों की नब्ज पकड़ने के लिए प्रभावशाली हिन्दी बोलने की कला भी नहीं है.
मोदी को 2014 में मिली सफलता का सबसे बड़ा पिच उनके गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अनुकरणीय शासन का रिकॉर्ड होना था, जिसे वे राष्ट्रीय स्तर पर फौरन लागू करने का वादा था. मोदी और उसके अभियान को सफल बनाने के लिए ये 'प्लस वोट' काफी संवेदनशील थे, वो भी ऐसे समय जब खुलेआम हिन्दुत्व का समर्थन करने में संकोच हुआ करता था.
दरअसल गुजरात वैसा मॉडल राज्य नहीं था, जैसा दर्शाया जा रहा था. मुख्यधारा के मीडिया, उद्योग जगत के मुखिया और विज्ञापन, खोजी आवाजों को दबाने में सफल रहे. मोदी देश को 'गुजरात मॉडल' जैसी चीज के होने का भरोसा दिलाने में कामयाब रहे और ये नुस्खा काम कर गया. जबकि ममता के कमान में चल रहा पश्चिम बंगाल अभी भी गुड गवर्नेंस के मोर्चे पर लोकप्रियता हासिल नहीं कर सका है, जिसके दम पर ममता ये जता सके कि अगर वो प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालेंगी, तो किस तरह का बदलाव हासिल होगा.
मोदी ने उन विरोधियों को नेरेटिव पर कब्जा नहीं करने दिया. वहीं ममता एक ऐसे मजबूत प्रोपेगेंडा मशीन के खिलाफ खड़ी हैं, जो मीडिया, मशहूर हस्तियों और सेलेब्रिटीज के जरिए बड़े दावे करता है, बुरी खबरों से लोगों को भरमाता है, रोजमर्रा की चीजों को मास्टर स्ट्रोक बताते हुए मोदी विरोधियों का उपहास करते दिखाता है. ये सब इतना लगातार दिखाया जाता है और मोदी को किसी मसीहा की तरह पेश करता है, जिससे देखनेवाला भारतीय ये भरोसा करने को मजबूर हो जाते हैं कि उसका 'कोई विकल्प नहीं'.
इन कारकों और कई तार्किक वजहों के होते हुए भी बीजेपी के 2024 में सत्ता के दावों को चुनौती नहीं दी जा सकती है. ममता के लिए इसमें ही समझदारी है कि वे पहले से ही व्यूह रचना शुरू कर दे. हालांकि, ये और बात है कि वे कांग्रेस को कमजोर करने के लिए ताकत खर्च कर एक बड़ी तस्वीर को देखने से चूक रही हैं.
कांग्रेस खेमे पर कब्जे का ख्याल अगर साकार होता भी है तो भी सवाल उठता है कि मोदी फैक्टर, मोदी की बड़ी चुनावी मशीनरी, संस्थानों और लोकप्रिय लोगों के बीच जड़ जमा चुकी 'वैचारिक' बेल को कैसे हरा पाएंगी. आखिरकार ममता सिर्फ समग्र विपक्ष की शख्सियत ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर भी हैं.
मुख्य प्रतिद्वंद्वी के तौर पर मान्यता हासिल करना अहम है, लेकिन जो परिणाम निर्धारित करेगा वह नाम की लड़ाई का नहीं बल्कि वर्तमान में जिसका नाम चल रहा है उसकी ताकत और कमजोरियों के बारे में जागरुकता का है, और ऐसी रणनीति जो इसे अस्विकार करे उसके लिए सबसे बड़ा झटका साबित होगा, साथ ही उसके किले में सेंध लगानेवाला भी. यहीं पर ममता का मौजूदा गेम प्लान कमतर दिखाई देने लगता है.
ये कोशिश उनकी अपनी सीमाओं को समझने, जो कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल साझा करते हैं, और एक ऐसी रणनीति तैयार करने और टिकाए रखने की होनी चाहिए जो मोदी सरकार की विफलताओं से परे और एक बेहतर विकल्प बता सके. इससे बहुत कुछ साफ हो जाता है. इसे चलाने के लिए दूरदर्शिता, बड़ा दिल, धीरज और सहयोग की जरूरत होगी.
जरूरत सिर्फ अवसरवादी चुनावी गठबंधनों की नहीं बल्कि सार्थक साझेदारी की है, जहां पार्टियां, 2024 की अगुवाई में, व्यवस्थित रूप से विचारों को अपनाने, उन्हें राष्ट्रीय और स्थानीय को संतुलित करने वाले संदेशों और एजेंडों से जोड़ने, जो आग लगने की सूरत में एक दूसरे का समर्थन करती हों.
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं और स्थानीय राजनीतिक गतिशीलता इसे आसान नहीं बनाएगी, लेकिन इसके साथ मुकाबला जरूर करना होगा. उन्हें पता होगा कि अहंकार, अंतर्द्वंद्व और जड़ता की बड़ी कीमत उन्हें ज्यादा चुकानी पड़ेगी.
(मनीष दुबे एक नीति विश्लेषक और अपराध कथा लेखक हैं और उनसे @ManishDubey1972 पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है।.
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