advertisement
वैसे तो जिस देश में हर साल लगभग 8 हजार मामले दहेज हत्याओं के दर्ज होते हैं, उनमें से सिर्फ 35 फीसदी केस में ही अपराधी को सजा होती हो, वहां मर्दों को शर्मासार होना चाहिए. जिस देश में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में सजा की दर सिर्फ 19 फीसदी हो, उस देश में कानून और न्याय व्यवस्था को शर्मसार होना चाहिए.
आखिरी आंकड़े आने तक भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 12 लाख मामले विभिन्न अदालतों में पेंडिंग है, उस देश में किसी को तो शर्म आनी चाहिए. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, भारत में सेक्सुअल हैरासमेंट के 99 फीसदी मामले कभी दर्ज नहीं होते, तो ये पूरे देश के लिए शर्म की बात है.
ऐसे देश में अगर कुछ मर्द ये कहने की हिमाकत करें कि भारत में पुरुषों पर बहुत अत्याचार होता है और महिलाओं से उन्हें बचाने के लिए पुरुष आयोग बनना चाहिए, तो आप इसे क्या कहेंगे? ऐसा सचमुच हुआ है. यूपी के दो सांसदों ने ये मांग की है. भारत दुनिया के उन चंद देशों में है, जहां मैंस डे यानी पुरुष दिवस मनाया जाता है.
अभी पिछले दिन 19 नवंबर को कई शहरों में इस दिवस को मनाने के लिए लोग इकट्ठा हुए. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरुष दिवस नहीं है, क्योंकि ज्यादातर देश नहीं मानते कि ऐसे किसी दिवस की कोई जरूरत है. इसलिए जिन देशों में मेंस डे मनाया भी जाता है, वहां उनकी तारीखें अलग अलग होती है.
महिलाओं को अत्याचार से बचाने के लिए एकमात्र असरदार कानून 498 ए के खिलाफ इतना जबर्दस्त माहौल बनाया गया कि सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने इसके तहत गिरफ्तारियों पर लगभग रोक ही लगा दी थी और गिरफ्तारी से पहले सिविल सोसायटी कमेटी की जांच को अनिवार्य बना दिया. वो तो अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट के बाकी जजों को लगा कि ये ठीक नहीं है और चीफ जस्टिस की बेंच ने स्वत: संज्ञान लेकर दो जजों की बेंच के फैसले को पलट दिया.
जो मर्द मांग कर रहे हैं कि महिलाओ को संरक्षण देने वाले तमाम विशेष कानून रद्द किए जाएं, उनका तर्क ये है कि औरत और मर्द समान हैं, तो औरतों के लिए विशेष प्रावधान और विशेष संरक्षण क्यों? उनके हिसाब से औरतों को विशेष संरक्षण दिए जाने के कारण:
आप गौर से देखें, तो पाएंगे कि इनमें से ज्यादातर शिकायत ये है कि महिलाओं को संविधान और कानून ज्यादा संरक्षण दे रहा है और मर्द बेचारे तबाह हो रहे हैं.
इन मर्दों की दिक्कत है कि वे संविधान को गलत तरीके से पढ़ रहे हैं. संविधान भारत के हर नागरिक को कानून की दृष्टि से समान जरूर मानता है. लेकिन अगले ही अनुच्छेद में यानी 15(4) में संविधान कहता है कि सरकार वंचितों के लिए विशेष प्रावधान कर सकती है. यानी समानता का अधिकार, विशेष अवसर और विशेष प्रावधान करने में बाधक नहीं है.
सिद्धांत के तौर पर, ये बात सुनने में बेशक अच्छी लगती है कि कानून हर किसी के लिए समान है. लेकिन समाज की वास्तविक स्थिति यह है कि हर व्यक्ति समानता के अधिकारों का इस्तेमाल करने में समान रूप से सक्षम नहीं है. जाति, लिंग, धर्म और तमाम विभेदकारी पहचानों की वजह से हर व्यक्ति दरअसल समान नहीं है.
इन सबका आधार यही है कि सब लोग समान नहीं है. कुछ लोगों को संविधान और कानून का विशेष संरक्षण जरूरी है. यह पूरी तरह संवैधानिक व्यवस्था है, क्योंकि संविधान मानता है कि तमाम तबकों, खासकर वंचित तबकों को साथ लिए बगैर राष्ट्र निर्माण संभव नहीं है.
महिलाओं के अधिकारों के प्रति भारतीय संविधान उदार रहा है. संविधान ने लिंग के आधार पर किसी भी किस्म के भेदभाव का निषेध किया है. 1980 के दशक में और उसके बाद महिलाओं के संरक्षण के लिए कई कानून बने और अनेक अदालती फैसले भी आये. दहेज हत्या के दोषियों को दंडित करने के लिए भारतीय दंड संहिता में धारा-304 (बी) है.
कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन उत्पीड़न से संरक्षित करने के लिए 'विशाखा गाइडलाइंस' हैं. महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार दिया गया है. उन्हें यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए सख्त कानून बनाये गये हैं, जिसे 'निर्भया एक्ट' के नाम से जाना जाता है. भ्रूण हत्या को रोकने के लिए भी कानून है.
दहेज के लिए बहुओं को जलाने की एक के बाद एक हो रही घटनाओं के बाद महिलाओं को परिवार के सदस्यों की क्रूरता से बचाने के लिए 1983 में भारतीय दंड संहिता में एक विशेष धारा-498 (ए) जोड़ी गयी थी. इस धारा ने महिलाओं को जरूरी संरक्षण दिया. चूंकि भारतीय दंड संहिता में धारा- 498 (ए) के अलावा और कोई धारा नहीं है जिसके तहत परिवार के अंदर होने वाली हिंसा या अत्याचार करने वालों को सजा दिलायी जा सके, इसलिए क्रूरता के तमाम तरह के मामलों में 498 (ए) के तहत ही मुकदमे दर्ज कराये जाने लगे. इससे हमें इस धारा के महत्व का पता चलता है.
इसे ही 498 (ए) का दुरुपयोग कहा जाता है.
महिलाओं के लिए बने जिन कानूनों और संरक्षण का पुरुष संगठन विरोध कर रहे हैं, उनका सबका आधार संविधान ही है. दहेज विरोधी कानून हो या डोमेस्टिक वायलेंस एक्ट या विशाखा गाइडलाइंस, ये सब संविधान के तहत बनाए गए हैं. ये कहना निरर्थक है कि इन कानूनों को दुरुपयोग हो रहा है. दुरुपयोग तो देश के किसी भी कानून का हो सकता है, बल्कि हो रहा है. ये पुलिस, जांच एजेंसियों और न्याय संस्थाओं का काम है कि किसी कानून का गलत इस्तेमाल न हो. किसी कानून का दुरुपयोग होना, उस कानून को खत्म करने का आधार नहीं हो सकता.
ये भी नहीं भूलना चाहिए कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार की लाखों घटनाओं में मुश्किल से कुछ घटनाएं ही पुलिस और न्यायपालिका के स्तर तक पहुंच पाती हैं और सजा तो बहुत कम मामलों में होती है. उनमें कई केस जांच या चार्जशीट के स्तर पर गिर जाते हैं, तो कई न्यायालय में साबित नहीं हो पाते. चूंकि पीड़ित महिलाएं कमजोर पक्ष हैं, इसलिए वे अपना केस मजबूती से लड़ भी नहीं पातीं, कई बार आर्थिक कारणों से उन्हें बीच में ही समझौता करना पड़ता है. कई बार वे दबाव में आ जाती हैं.
और एक आखिरी बात. हो सकता है कि मर्दों के खिलाफ औरतों ने कुछ फर्जी मुकदमे कर रखे हैं. हो सकता है उनमें से कुछ केस में मर्दों को गलत सजाएं हो गई हैं. ऐसा न हो, ये सुनिश्चित करना न्याय व्यवस्था का काम है. लेकिन इसका समाधान पुरुष आयोग कतई नहीं है.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: undefined