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मंडी: 'क्वीन' VS 'किंग', कंगना और विक्रमादित्य की जंग में जीत-हार के क्या मायने होंगे?

Loksabha Election 2024: हिमाचल प्रदेश के मंडी में बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत की चुनावी किस्मत "मोदी ब्रांड" के लिए अग्नि परीक्षा बन रही है.

आरती जेरथ
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>कंगना और विक्रमादित्य</p></div>
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कंगना और विक्रमादित्य

फोटो: क्विंट हिंदी

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लोकसभा चुनाव 2024: हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) के मंडी (Mandi) में बॉलीवुड अभिनेत्री कंगना रनौत (Kangana Ranaut) की चुनावी किस्मत "मोदी ब्रांड" के लिए अग्नि परीक्षा बन रही है. अपनी तमाम कमियों के बावजूद अगर कंगना मंडी सीट से जीतती हैं तो यह भारतीय जनता पार्टी (BJP) के इस संकेत को सही साबित करेगी कि 2024 के लोकसभा चुनाव में पार्टी किसी को भी टिकट दे दे, वो चुनाव जीत जाएगा.

आसान भाषा में कहें तो जिस किसी उम्मीदवार के पास नरेंद्र मोदी का आशिर्वाद है उसे पीएम मोदी अपनी भाषण की कला और करिश्मे के बल पर जीत दिला देते हैं.

लेकिन अगर कंगना हार जाती हैं तो? यह 'मोदी ब्रांड' के लिए कितना घातक होगा?

इन सवालों के जवाब अभी देना मुश्किल है. क्योंकि कांग्रेस ने हाल ही में "बुशहर के राजा" की गद्दी पर बैठे विक्रमादित्य सिंह को मंडी सीट से प्रत्याशी बनाकर चुनावी मैच में बाउंसर फेंक दिया है. सबसे बड़ी बात यह है कि विक्रमादित्य सिंह (Vikramaditya Singh) छह बार के मुख्यमंत्री रहे दिवंगत वीरभद्र सिंह और मौजूदा सांसद प्रतिभा सिंह के बेटे हैं. इनके नाम से हिमाचल में शायद ही कोई अछूता होगा.

जो खेल आसानी से मोदी-शाह के पाले में आता दिख रहा था, अचानक से बिलकुल उलट गया है. मंडी सीट की लड़ाई अब कांटे की टक्कर में तब्दील हो रही है जिसपर लोगों की बारीक नजर है- केवल मनोरंजन के लिए नहीं, जिसे कंगना रनौत पहले से ही अपनी जो मन में आए वैसी टिप्पणियों के साथ कर रही हैं, बल्कि इसके संभावित राजनीतिक प्रभावों के लिए भी.

हिमाचल प्रदेश बेहद छोटा राज्य है जो लोकसभा में केवल चार सांसद भेजता है. यह पूछना जायज है कि क्या मंडी के नतीजे वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति पर असर डाल सकते हैं. फिर भी, यह एक ऐसी चुनावी लड़ाई है जिसने बड़ा मंच अख्तियार कर लिया है- वजह एक ओर कंगना रनौत और विक्रमादित्य की टकराव है. तो दूसरी ओर इसके नतीजे से दो राष्ट्रीय पार्टियों की मौजूदा हालात के बारे में मिलने वाले संकेत.

कांग्रेस ने हिमाचल में अपनी सरकार कैसे बचाई?

इस कहानी को समझने के लिए दिसंबर 2022 से शुरूआत करनी पड़ेगी. कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में बीजेपी के पास भारी संसाधन होने के बावजूद उससे इस हिमालयी राज्य की सत्ता छीनकर सभी को चौंका दिया था. आखिरकार यह बीजेपी अध्यक्ष जे. पी. नड्डा का गृह राज्य है. यह एक ऐसा राज्य भी है जो प्रभारी के तौर पर उस समय मोदी की देखरेख में था जब वह नई दिल्ली में महासचिव थे.

दोनों कि प्रतिष्ठा दांव पर लगी थी क्योंकि पीएम मोदी ने मतदाताओं से जोरदार अपील की कि राज्य के साथ उनके जुड़ाव के कारण बीजेपी को दिया हर एक वोट मोदी को दिया वोट है.

आलाकमान की पुरजोर कोशिशों ने भी राज्य में बागी नेताओं को नहीं रोका. जबसे मोदी ने सत्ता संभाली है, पहली बार किसी राज्य इकाई में बगावत दिखी- 68 विधानसभा सीटों में से 21 पर बीजेपी के बागी नेताओं ने निर्दलीय चुनाव लड़ा. अपने कथति अनुशासन के लिए जाने जानी वाली पार्टी में यह गायब दिखा. मोदी ने उनमें से कुछ को व्यक्तिगत रूप से फोन किया और उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की पर कुछ भी काम नहीं आया. कांग्रेस ने हिमाचल में 40 सीटें जीतीं.

लेकिन इस साल फरवरी में हुए राज्यसभा चुनाव के दौरान पाला बदल गया. हिमाचल में बीजेपी ने सत्तारूढ़ पार्टी के विधायकों को अपने पाले में लिया और यहां से कांग्रेस के हाई-प्रोफाइल उम्मीदवार अभिषेक सिंघवी को हराकर सबको चौंका दिया था. कांग्रेस के छह विधायक बागी हुए थे और उन्होंने बीजेपी उम्मीदवार हर्ष महाजन को क्रॉस-वोट दिया.

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यह स्पष्ट था कि वीरभद्र सिंह की विधवा प्रतिभा और उनके बेटे विक्रमादित्य ने सिंघवी की हार सुनिश्चित करने में प्रमुख भूमिका निभाई थी. हर्ष महाजन सहित सभी बागी वीरभद्र के वफादार हैं. इसके बाद, मां और बेटे ने भी विद्रोही शोर करना शुरू कर दिया. कुछ दिनों तक ऐसा लग रहा था कि राज्य में कांग्रेस सरकार गिर जाएगी.

कांग्रेस पार्टी ने कुछ जल्दी कदम उठाए और आखिर में अपनी सरकार बचा ली. लेकिन यह स्पष्ट था कि प्रतिभा सिंह और विक्रमादित्य सिंह ने बीजेपी से बातचीत के लिए चैनल खोल दिए थे और वे किनारे पर चल रहे थे.

ठीक इसी समय सोनिया गांधी ने कदम रखा. प्रतिभा सिंह के साथ उनकी दो निजी बैठकें हुईं. पार्टी ने अपनी भावनाओं को बगल में रखा और उनके बेटे को मंडी सीट से टिकट देने का फैसला किया. यह एक ऊंची चढ़ाई थी जिसने बीजेपी को अचंभित कर दिया था.

इस चुनाव का परिणाम इतना अहम क्यों?

बीजेपी ने इस विश्वास में कंगना रनौत को उम्मीदवार बनाया था कि पार्टी ने उनकी आसान जीत सुनिश्चित करने के लिए वीरभद्र परिवार और वफादारों का समर्थन हासिल कर लिया है.

अब, रनौत को अपने दम पर लड़ना है.

उनकी परेशानियां और बढ़ गई हैं क्योंकि बीजेपी में नेताओं का बागी मूड नरम नहीं हुआ है. आलाकमान को सिरदर्द देने वालों में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष महेश्वर सिंह भी शामिल हैं. इन्होंने कंगना को टिकट देने के फैसले की समीक्षा की मांग की है. वह कुल्लू के पूर्व शाही परिवार से ताल्लुक रखते हैं, जो मंडी निर्वाचन क्षेत्र का हिस्सा है.

इसके अलावा, बीजेपी नेता और पूर्व मंत्री राम लाल मार्कंडा ने बड़ी संख्या में समर्थकों के साथ पार्टी छोड़ दी है. इससे मंडी के दोनों जिलों लाहौल-स्पीति में बीजेपी की ताकत कम हो गई है.

कंगना रनौत एक राजनीतिक नौसिखिया हैं और वह अपने कैंपेन और जीत के लिए पूरी तरह से "मोदी ब्रांड" पर निर्भर हैं. इसके विपरीत, विक्रमादित्य सिंह एक अनुभवी राजनेता हैं और एक मजबूत राजनीतिक परिवार से आते हैं.

अगर यह वास्तव में 'जिसको बीजेपी टिकट दे वो जीत जाए' वाला चुनाव है, जैसा बीजेपी को उम्मीद है, तो रनौत आसानी से जीत जाएंगी. बीजेपी अपनी पार्टी को सही करेगी, पुराने बागी नेताओं से छुटकारा पाएगी और एक नया पार्टी ढांचा बनाएगी जो मोदी की इच्छा पर निर्भर करेगा.

दूसरी तरफ ऐसा होने पर कांग्रेस का पतन होता रहेगा. इसकी अस्थिर सरकार के गिरने की संभावना है. अन्य राज्यों में जहां सबसे पुरानी पार्टी सत्ता में है, वहां इसका प्रभाव पड़ सकता है.

लेकिन अगर रनौत हार जाती हैं, तो यह एक ऐसी पार्टी में दरारें और गहरी सकती है जो धीरे-धीरे इंदिरा गांधी की कांग्रेस के मॉर्डन वर्जन में तब्दील हो रही है, जिसमें केवल एक व्यक्ति मायने रखता है. इंदिरा गांधी की व्यक्तित्व-संचालित राजनीति ने कांग्रेस में संगठनात्मक पतन की शुरुआत की, जिसके लिए पार्टी को आज भारी कीमत चुकानी पड़ रही है.

मोदी के बीजेपी को उसी रास्ते पर जाने का खतरा हो सकता है.

(आरती आर जेरथ दिल्ली की एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. वह @AratiJ नाम के हैंडल से ट्वीट करती हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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