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Manipur Violence: मणिपुर के कुकी-जो लोग, पहाड़ियों तक ही सीमित कर दिए गए हैं, मानो वे घर में कैद हैं. समय बीतता जा रहा है पर उन्हें इन बुरे हालातों के खत्म होने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है. मणिपुर हिंसा को लगभग अब एक साल हो जाएंगे. तीन मई को हुए हिंसा में दो सौ से अधिक लोग मारे गए और कई अपंग हो गए. महिलाओं के साथ सबसे घृणित अत्याचार हुआ, उनके साथ दिनदहाड़े दुष्कर्म किया गया. वहीं, सैकड़ों घर आग के हवाले कर दिए गए.
किसी अन्य राज्य में मोदी सरकार ने इस स्तर की हिंसा नहीं होने दी होगी. और न ही कहीं हजारों लोग राहत शिविरों में रह रहे हैं क्योंकि उनके घर जमींदोज हो गए हैं. इस देश के किसी अन्य राज्य में राज्य के एक हिस्से के लोगों के लिए दूसरे हिस्से में जाने पर प्रतिबंध नहीं है.
इंफाल में विभिन्न संस्थानों में काम करने वाले कुकी-जो लोग हमले के डर से अपने काम की जगहों पर वापस नहीं लौट पाए हैं. यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मणिपुर में बीजेपी (भारतीय जनता पार्टी) सरकार और केंद्र सरकार ने मणिपुर की कुकी-जो जनजातियों के साथ जो कुछ भी हुआ है, उसको लेकर आंखें मूंद ली हैं.
आइए एक मिनट के लिए मणिपुर के मुद्दे को अलग रख दें.
पूर्वोत्तर राज्यों में महंगाई आसमान छू रही है, जहां परिवहन का खर्च आवश्यक वस्तुओं के खर्च में ही शामिल है. कई प्रकार के ग्रुप्स इन माल ढोने वाले ट्रकों से अपना हफ्ता वसूलकर बिना श्रम के या योगदान के पैसा कमा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर ऐसी स्थिति है, जहां गरीब मुश्किल से दो वक्त का खाना जुटा पाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. पांच या छह लोगों के परिवार के लिए एक महीने में 15 किलो मुफ्त चावल उनके लिए काफी नहीं है.
2023 में ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 125 देशों में से 111वें स्थान पर था. भारत का स्कोर 28.7 है, जो भुखमरी के गंभीर स्तर को दर्शाता है. भारत की रैंकिंग पाकिस्तान (102), बांग्लादेश (81), नेपाल (69) और श्रीलंका (60) से भी खराब थी. जैसा कि अपेक्षित था, मोदी सरकार ने आंकड़ों को गलत बताते हुए उन्हें दुर्भावनापूर्ण बताया.
बच्चों में अल्पपोषण या कुपोषण भी इस देश के ग्रामीण इलाकों में एक बड़ी समस्या है, विशेष रूप से पूर्वोत्तर क्षेत्र में, जहां बच्चों का कम वजन (Child Wasting), जो कि भारत में 18.7 प्रतिशत है, हमें गंभीर कुपोषण की घिनौनी कहानी बताता है. लेकिन मोदी सरकार इन सभी जमीनी हकीकतों को किनारे रख रही है, जैसे कि ये उनकी सरकार को बदनाम करने के लिए बनाई गई हैं.
मणिपुर के संबंध में प्रधानमंत्री मूकदर्शक बने हुए हैं. हिंसा होने के बाद उन्होंने महीनों तक 'एम' शब्द का उच्चारण करने से इनकार कर दिया. मु्द्दे पर समझौता न करने वाले विपक्ष ने मामले को संसद में रखा, जहां एक घंटे से अधिक समय तक चले भाषण में, उन्होंने केवल एक बार "मणिपुर" शब्द का उच्चारण किया.
ये कैसे नेता हैं, जिसने अपने ही लोगों के एक वर्ग को चुपचाप पीड़ा सहने के लिए छोड़ दिया है, वह भी इसलिए क्योंकि वे कोई भी प्रतिरोध करने के लिए बहुत कमजोर हैं, उन्हें उनके सभी भौतिक संसाधनों से वंचित कर दिया गया है और उनकी इच्छाशक्ति को पूर्ण असहाय की सीमा पर लाकर छोड़ दिया है.
आज तक, कुकी-जो समुदाय के लोग इंफाल हवाई अड्डे के माध्यम से राज्य के बाहर के स्थानों की यात्रा नहीं कर सकते हैं, उन्हें या तो आइजोल या दीमापुर रूट से जाना होगा. प्रधानमंत्री को यह मानने में और कितना समय लगेगा कि मणिपुर में सरकार पूरी तरह से फेल हो गई है.
मणिपुर में रहने वाले तीन प्रमुख जातीय समुदाय राज्य पर अपना-अपना दावा पेश करते हैं. कुकी-जो लोग इस दलील के साथ एक अलग प्रशासन की मांग कर रहे हैं कि उनका विकास नहीं हो पाएगा, जैसा कि उन्हें मणिपुर के राज्य बनने के बाद से झेलना पड़ा है. मणिपुर की राज्य सरकार उस मांग के आगे नहीं झुकेगी और उसने केंद्र सरकार को आश्वस्त किया है कि अलग प्रशासन की मांग ठीक नहीं है.
तो, कुकी-जो लोगों के लिए आगे का रास्ता क्या है? क्या प्रधानमंत्री, जिन्होंने राज्य और राहत शिविरों का दौरा करने से इनकार कर दिया है, घेराबंदी के तहत लोगों की दुर्दशा से अवगत हैं? वह खंडित मणिपुर की कठोर वास्तविकताओं से इनकार क्यों कर रहे हैं? क्या प्रधानमंत्री लगातार दो बार मणिपुर को बीजेपी की झोली में डालने के लिए बीरेन सिंह के इतने आभारी हैं कि वो उनका प्लान खराब नहीं करना चाहते हैं?
सबसे बढ़कर, उस राज्य में किस तरह का चुनाव हो सकता है, जो हिंसा से तबाह हो गया है, जिसने हजारों युवाओं के जीवन और उनके शैक्षिक प्रयासों को बर्बाद कर दिया है, जो अब निराशाजनक जीवन जी रहे हैं, अनिश्चित हैं कि उनके लिए भविष्य क्या होगा? क्या प्रधानमंत्री को इन युवा हताश लोगों की दुर्दशा की परवाह है?
शायद वे उनसे जुड़ भी नहीं सकते क्योंकि वे सामान्य "भारतीय" से मिलते जुलते नहीं हैं. यह इस देश में पूर्वोत्तरवासी, बल्कि पहाड़ी आदिवासी होने की त्रासदी है.
(लेखिका द शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक और एनएसएबी की पूर्व सदस्य हैं. उनसे @meipat पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है. )
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