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Manipur Violence: यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि किसी देश के नागरिक तब क्या करें, जब सत्ता में बैठे लोग ही कानून का दुरुपयोग करने लगें?
जवाब आसान सा है. नागरिकों को अदालत के दरवाजे खटखटाने चाहिए और खुद को प्रभावित करने वाले आदेशों को चुनौती देनी चाहिए.
उदाहरण के लिए अगर किसी नागरिक को बिना जांच के नौकरी से बर्खास्त किया जाता है तो अदालत उसकी याचिका की सुनवाई करेगी और गैरकानूनी आदेश को रद्द करेगी. इसी तरह अगर किसी नागरिक को मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया जाता है तो उसे जमानत हासिल करने के लिए अदालत में याचिका दायर करने का अधिकार है. ये लगभग रोजाना के हालात हैं, जिनसे नागरिकों को रूबरू होना पड़ता है.
जैसे भवन और अन्य निर्माण श्रमिक (रोजगार और सेवा की शर्तों का विनियमन) अधिनियम, 1996 के तहत प्रत्येक राज्य सरकार को एक कल्याण बोर्ड स्थापित करना होता है. लेकिन कई राज्य सरकारों ने ऐसा नहीं किया है. इसी तरह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 के तहत प्रत्येक राज्य सरकार को एक राज्य खाद्य आयोग बनाना होता है, जोकि कानून के कार्यान्वयन पर नजर रखता है. लेकिन फिर भी, कई राज्य सरकारों ने ऐसा कोई आयोग नहीं बनाया है.
यहां भी नागरिकों के पास एक उपाय यह है कि वे कानूनों को लागू करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएं. उन्होंने ऐसा किया भी. सभी पक्षों की सुनवाई के बाद कल्याण बोर्ड या आयोग बनाने के लिए उपयुक्त आदेश पारित किए गए, जहां जो संस्था बनाई जानी थी.
लेकिन, क्या इस मुकदमेबाजी में उलझे बिना नागरिकों का गुजारा नहीं है? मणिपुर के हालात के मद्देनजर ये सवाल उठ रहे हैं.
इसमें कोई शक नहीं है कि कानून का शासन कमजोर पड़ गया है और राज्य सरकार कानून को प्रभावी ढंग से या अन्यथा लागू करने में असमर्थ है. यही वजह है कि मणिपुर में अब तक लगभग 150 नागरिकों की निर्मम हत्या की गई है.
राज्य के नागरिक जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के अपने संवैधानिक अधिकार को लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे.
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने दखल देने से इनकार कर दिया, क्योंकि उसे लगा कि यह मामला असल में कानून और व्यवस्था का था, और जिसे राज्य सरकार संभाल सकती थी. यह अदालतों के अधिकार क्षेत्र से बाहर था.
एक तरह से सुप्रीम कोर्ट सही था, लेकिन उसने दो महत्वपूर्ण सच्चाइयों को नजरअंदाज किया.
सबसे पहले, उसने इस बात को अनदेखा किया कि मुद्दा कानून और व्यवस्था का नहीं, बल्कि सार्वजनिक व्यवस्था का था, जिसका लगभग राज्यव्यापी प्रभाव है.
दूसरा, राज्य सरकार ने इस हिंसा को रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया.
अब एक भयावह वीडियो सामने आया है. इसमें पूरी तरह से निर्वस्त्र दो औरतों को घुमाया जा रहा है. साथ चलती भीड़ में वहशी लोग उन्हें खींच रहे हैं, धक्का दे रहे हैं और उनके साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं. अभी यह खौफ कायम ही है, इस बीच ये खबरें भी आई हैं कि एक महिला के पिता और भाई को भीड़ ने मार डाला. कुछ पुरुषों ने स्पष्ट रूप से महिलाओं से यह भी कहा कि अगर उन्होंने अपने कपड़े नहीं उतारे तो उन्हें भी मार दिया जाएगा. ऐसे में महिलाओं के पास अपनी अस्मिता खोने के अलावा क्या चारा था.
रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया है कि एक महिला के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था. ये वही महिला है जिसके पिता और भाई की हत्या कर दी गई थी. यह भी पता चला है कि घटना से पहले ये सभी लोग पुलिस के साथ थे. पुलिस को इन महिलाओं को उस भीड़ को सौंपने के लिए इसलिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि भीड़ में लगभग एक हजार लोग थे, और उनमें से कई के पास घातक हथियार थे.
लेकिन इससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि इस भयावहता के दो महीने से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद पुलिस या राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की.
उस भयावह वीडियो के सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद ही कुछ गिरफ्तारियां की गईं. ऐसे हालात में, जब कानून व्यवस्था चरमरा गई हो, और कानून प्रवर्तन करने वाले लोग, कानून को लागू करने की बजाय हाथ पर हाथ धरे बैठे हों तो एक नागरिक को क्या करना चाहिए?
एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई और आलिम जजों ने राज्य सरकार को फटकार लगाई. साफ शब्दों में कहा गया कि अगर सरकार कार्रवाई नहीं करेगी तो अदालत कार्रवाई करेगी. इसके चलते राज्य सरकार को कुछ गिरफ्तारियां करनी पड़ीं.
सच तो यह है कि अगर पुलिस और राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लागू न करें तो अदालत कुछ नहीं कर सकती. लेकिन फिर भी वह जो कुछ भी कर सकती है, उसे अवश्य करना चाहिए.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस पर हैरानी जताने के अलावा कुछ नहीं किया. जबकि वह उन दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती थी जिसने उसके फैसले का मजाक बनाया.
अनुराधा भसीन मामला इस बात का दूसरा उदाहरण है कि सरकारें, और इस मामले में मणिपुर सरकार किस तरह कानून का उल्लंघन करती हैं. राज्य में इंटरनेट शटडाउन न सिर्फ बार-बार होता है बल्कि लंबे समय तक चलता रहता है. बताया गया है कि मणिपुर में कम से कम 18 बार इंटरनेट शटडाउन किया गया जिनमें से कई सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ थे. आखिर में, मणिपुर हाई कोर्ट को दखल देनी पड़ी और उसने इंटरनेट सुविधाओं की बहाली का निर्देश दिया, कम से कम कुछ हद तक.
ऐसी परिस्थितियों में क्या अदालतें कानूनों के कार्यान्वयन और प्रवर्तन की निगरानी कर सकती हैं? क्या यह शर्मनाक नहीं है कि राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के प्रति उदासीन रवैया अपना रही हैं और सुप्रीम कोर्ट लगभग असहाय हो गया है?
मेरे ख्याल से, अब जरूरी यह है कि सुप्रीम कोर्ट राज्य सरकार के साथ सख्ती से पेश आए, और फिलहाल यह सुनिश्चित करे कि मणिपुर राज्य को भारत के संविधान के अनुसार चलाया जाए, न कि कुछ लोगों की मनमर्जी से.
ऐसा लगता है कि राज्य सरकार अपना भरोसा खो चुकी है और कानून का शासन लागू करने में असमर्थ है. सुप्रीम कोर्ट को इस पर गौर करना चाहिए और संवैधानिक शासन व्यवस्था के चरमराने से पैदा हुए शून्य को भरने की कोशिश करनी चाहिए. ऐसी घटनाएं पहले भी घट चुकी हैं, हालांकि उनकी गंभीरता का स्तर वह नहीं था. तब भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने नागरिकों को निराश नहीं किया था.
ऐसी कोई वजह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट हरकत में न आए और मणिपुर राज्य में संवैधानिक विवेक जगाने के लिए अपने रिट का इस्तेमाल न करे. सुप्रीम कोर्ट को अब फ्रंटफुट पर बल्लेबाजी करनी चाहिए.
(जस्टिस मदन लोकुर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज हैं. यह एक ओपनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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