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मणिपुर हिंसा (Manipur violence) को लेकर आरोप-प्रत्यारोप के साथ-साथ 'आपके यहां यह हुआ' जैसी राजनीति की झड़ी लगी है. लेकिन एक तरफ ‘ताकत के बल पर मामला सुलझाने’ का नजरिया और दूसरी तरफ विपक्ष के निरर्थक आक्रोश से परे, कोई ठोस समाधान निकलता नजर नहीं आ रहा है.
आदिवासियों और मैतेइयों (Meiteis) के बीच अवैध प्रवासी, ड्रग्स और जमीन के मालिकाना हक को लेकर एकतरफा और विभाजनकारी नैरेटिव का सहारा लेकर रटे-रटाए आरोप मढ़ने का खेल चल रहा है. ये एक हद तक सही हैं, लेकिन पूरे तथ्य या ऐतिहासिक संदर्भ के बिना चुनिंदा तरीके से इस्तेमाल किए जा रहे हैं.
लेकिन इसके अलावा ‘अलग तरीके की सोच’ वाला ऐसा कोई कारगर तरीका नहीं है, जो दोनों जातियों के बीच पाटे न जा सकने वाले ‘बंटवारे’ को सचमुच ठीक कर सकता है.
मुहावरे की तरह हर मायने में दिल्ली दूर दिख रही है . ‘बाकी देश’ की काबिले-तारीफ सामाजिक एकजुटता का फायदा देखते हुए, खासतौर से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर, ऐसा लगता है कि मणिपुर पर गतिरोध लंबा चलेगा.
सेना, असम राइफल्स और दूसरे केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती का ‘ताकत से समाधान’ वाला नजरिया जरूरी है, लेकिन लंबे समय में यह नाकाफी है और टिकाऊ भी नहीं है.
मणिपुर में स्थायी शांति के लिए नई राष्ट्रवादी सोच (कह सकते हैं कि पक्षपाती एजेंडे से ऊपर उठकर), रचनात्मकता और समावेशन की जरूरत है.
संयोग से, मिजोरम के मौजूदा मुख्यमंत्री जोरमथांगा एक समय हिंसक अलगाववाद के नेता लालडेंगा के बाद दूसरे नंबर के नेता थे. लेकिन आखिरकार ‘दिल्ली’ ने समाधान निकाला और हालात पटरी पर आ गए.
मणिपुर हालात से उबरने और ‘देश के बाकी हिस्सों’ में चुनावी फसल काटने के बजाय उसके जख्मों पर मरहम लगाने की गुहार लगा रहा है.
शर्मनाक वीडियो सामने आने से नैरेटिव बनाने की एकतरफा कोशिशों को झटका लगा है. इसने सत्तारूढ़ धड़े और बड़े पैमाने पर नागरिकों को सरकारी तौर पर तय की गई नैरेटिव से परे देखने और गहरे आत्ममंथन के लिए मजबूर किया है. सामाजिक जख्म बहुत गहरे हैं, जिनका पूरी तरह भर पाना और मेल-मिलाप बहुत मुश्किल लगता है.
सेना, असम राइफल्स और दूसरे केंद्रीय सशस्त्र बलों की तैनाती का ‘ताकत से समाधान’ वाला नजरिया जरूरी है, लेकिन लंबे समय में यह नाकाफी है और टिकाऊ भी नहीं है.
मणिपुर में स्थायी शांति के लिए नई राष्ट्रवादी सोच (कह सकते हैं कि पक्षपाती एजेंडे से ऊपर उठकर), रचनात्मकता और समावेशन की जरूरत है, लेकिन फिलहाल ऐसा कुछ भी होता नहीं दिख रहा है.
एक तो बहुप्रशंसित इजरायली तरीका है जो दशकों से ऐतिहासिक और तथ्यात्मक रूप से नाकाम साबित हुआ है. विडंबना यह है कि इसके उलट भारत के पास उग्रवाद- मिजोरम (मणिपुर से सटे), पंजाब- को खत्म करने का सबसे शानदार और सबसे कामयाब तजुर्बा है.
उग्रवाद के खात्मे के लिए हमेशा बडे़ पैमाने की सुरक्षा कार्रवाइयों और कठोर नेतृत्व की जरूरत होती है, लेकिन कामयाबी इतनी आसानी से या ‘ताकत के इस्तेमाल’ के फार्मूले से नहीं मिल जाती है.
लोगों की याददाश्त बहुत छोटी (चुनिंदा तरीके से) है और मिजोरम और पंजाब, दोनों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक प्रयास (पक्षपातपूर्ण नहीं) और बलिदान, सामाजिक कोशिशें, सबको साथ लेने और मेल-मिलाप की बहाली की भावना की जरूरत थी जो पंजाब समझौते (1985) और मिजोरम समझौते (1996) में इस्तेमाल की गई थी.
दोनों मामलों में, अंतिम नतीजों में उन राज्यों के शासन में उन राजनीतिक ताकतों को समायोजित किया गया, जो केंद्र के सत्तारूढ़ दल से असंतुष्ट और नाराज थे और उसके विरोधी थे.
समझौते के बाद, पंजाब में सुरजीत सिंह बरनाला की शिरोमणि अकाली दल सरकार (राष्ट्रपति शासन के बाद और उससे पहले कांग्रेस की सरकार थी) सत्तारूढ़ हुई थी, जबकि मिजोरम में विद्रोही नेता रहे लालडेंगा का मिजो नेशनल फ्रंट (कांग्रेस सरकार को हटाकर) सत्ता पर काबिज हुआ था.
संयोग से, मिजोरम के मौजूदा मुख्यमंत्री जोरमथांगा एक समय हिंसक अलगाववाद के नेता लालडेंगा के बाद दूसरे नंबर के नेता थे. लेकिन आखिरकार ‘दिल्ली’ ने समाधान निकाला और हालात पटरी पर आ गए.
केंद्र ने अपने गलत राजनीतिक-प्रशासनिक कदमों और भेदभाव को स्वीकार करने में विनम्रता और समायोजन का प्रदर्शन किया है. इससे फौरन या अटूट शांति बहाल नहीं हो गई, लेकिन जख्म भरने के उपायों के जरूरी कदम ईमानदारी से उठाए गए, और धीरे-धीरे हालात सामान्य होने लगे.
इस नाजुक प्रक्रिया के बीच, जरूरी सुरक्षा कदम उठाए गए. हालांकि यह शांति और सुलह प्रक्रिया के जरूरी उपाय के तौर पर शामिल किए गए थे, न कि आर या पार का फैसला करने के लिए सैन्य तरीकों वाले समाधान के तौर पर.
आज ‘दिल्ली’ क्या ‘शेष भारत’ के राजनीतिक स्वार्थों को परे रखकर ईमानदारी से ऐसी जुड़ाव की भावना दिखा सकती है? क्या राजनीतिक संकेतों से निशाना बनाने, कटाक्ष और हमेशा चुनावी फायदों पर नजर रखने की रणनीति को किनारे रख दिया जाएगा? यह तो समय ही बताएगा, मगर शांति की बहाली के लिए ‘ताकत’ से परे कोई हल पेश किया जाना जरूरी है.
क्या भारत मणिपुर में डरावने पागलपन की चपेट में आए लोगों के बीच मेल-मिलाप और माफी का ऐसा ही मौका मुहैया करा सकता है? क्या कुछ नेता पार्टी/चुनावी सोच से ऊपर उठ आगे बढ़कर पार्टी से बंधे बयानों और आरोपों के एकतरफा शोर पर लगाम लगा देंगे?
इसका मतलब यह नहीं है कि सुरक्षा, सैन्य ताकत को कमजोर किया जाए या अंतर्निहित असमानताओं को नजरअंदाज कर दिया जाए– बल्कि ऐसा इस तरीके से किया जाए कि संघर्ष में शामिल हर पक्ष (सिर्फ एक पक्ष नहीं) ईमानदारी, निष्पक्षता और गैर-राजनीतिक नजर से देखा जाए, जैसा कि नेल्सन मंडेला के सत्य और सुलह आयोग (Truth and Reconciliation Commission) के मामले में किया गया था.
मणिपुर हालात से उबरने और ‘देश के बाकी हिस्सों’ में चुनावी फसल काटने के बजाय उसके जख्मों पर मरहम लगाने की गुहार लगा रहा है. गांधी और मंडेला की महान सोच और समझ ने क्रमशः भारत (पाकिस्तान या सऊदी अरब नहीं) और दक्षिण अफ्रीका (रवांडा या बुरुंडी नहीं) बनाया था.
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुडुचेरी के उपराज्यपाल रहे हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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