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झारखंड (Jharkhand) के सांस्कृतिक और राजनीतिक पटल पर पिछले कुछ दिनों से पारसनाथ का पहाड़ (Parasnath Hill) चर्चा में है. मुद्दा जैन धर्मावलंबियों के भारतव्यापी आंदोलन से नजर में आया. भारत सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की 2019 में जारी अधिसूचना की धारा 3 के अनुसार पारसनाथ पहाड़ को इको-सेंसेटिव जोन के तौर पर विकसित करने की बात कही गई है.
जैन समुदाय के विरोध प्रदर्शन को देखते हुए केंद्र में संबंधित विभाग के मंत्री भूपेंद्र यादव ने अधिसूचना पर स्थगन निर्देश जारी कर दिया है. पारसनाथ पहाड़ जैन समुदाय के लोगों के लिए एक पवित्र स्थल है और यह माना जाता है कि यहां पर 23 तीर्थंकरों ने तपस्या कर मोक्ष प्राप्त किया. जैन समुदाय अपनी आस्था के अनुरूप इस पहाड़ को जैन तीर्थस्थल घोषित करने की मांग कर रहा है.
इस प्रकरण से आदिवासी समुदाय के लोगों, खासकर संथाल आदिवासियों, ने पारसनाथ पहाड़ के मरांग बुरु के रूप में पूजे जाने का मामला उठाया है. संथाल आदिवासी चिरकाल से पारसनाथ पहाड़ को पवित्र मानते हैं. इसी आस्था के अनुरूप आदिवासी समुदाय के लोग पारसनाथ पहाड़ पर अपना अधिकार जैन समुदाय से पहले से बताते हैं और उनके आंदोलन को आदिवासी प्रतीकों को छीनने के एक प्रयास की तरह देखते हैं. केंद्र और झारखंड सरकार से आदिवासी समाज के लोग पारसनाथ पहाड़ को मरांग बुरु घोषित करने की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं.
आदिवासी समाज झारखंड बनने के 22 साल बाद भी हाशिए पर खड़ा है. जबकि यहां की राजनीति में कई आदिवासी नेता हैं, जो विभिन्न पार्टियों से चुन कर आते हैं. अस्मिता की राजनीति में हाशिए पर खड़े समुदाय के लोगों को अपने प्रतीकों की पुरजोर रक्षा करनी पड़ती है, क्योंकि यह प्रतीक ही उनके राजनीतिक मुद्दों को जिंदा रखने में मदद कर करते हैं. अगर सामाजिक परिदृश्य की बात करें तो यह साफ तौर पर देखा जा सकता है कि आदिवासी समाज कई अनचाहे तरीके के बदलाव पथों पर अग्रसर है.
इस प्रकरण से यह बात साफ हो जाती है कि आने वाले समय में आदिवासी समाज को अपने सांस्कृतिक प्रतीकों की बढ़-चढ़कर रक्षा करनी होगी और इसमें आदिवासी बुद्धिजीवियों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होगी. झारखंड या अन्य आदिवासी बहुल राज्यों के आदिवासी बुद्धिजीवियों को अपनी संस्कृति और इसके रक्षा के उपायों को हर एक आदिवासी तक पहुंचाने की हर संभव प्रयास करना चाहिए.
यह वर्ग राजनीतिक रूप से सक्रिय रहता है और अपने समुदाय के हितों की रक्षा के लिए भी सदैव तत्पर रहता है. साल 2019 में झारखंड विधानसभा द्वारा पारित सरना धर्म प्रस्ताव को भी आदिवासियों की अलग पहचान को बनाए रखने के एक कदम के तौर पर देखा जा सकता है.
स्वतंत्रता पूर्व तक की जनगणनाओं में आदिवासियों के लिए एक अलग धर्म की व्यवस्था थी जिसे ‘ट्राइबल रिलीजन’ कहा जाता था, और जिसे 1951 और उसके बाद की जनगणनाओं से हटा दिया गया. इसका परिणाम यह हुआ कि आज ज्यादातर आदिवासी अपने-आपको हिंदू, ईसाई या किसी अन्य धर्म का बताने लगे हैं. यह इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपने रोजमर्रा के सांस्कृतिक जीवन में किस धर्म से ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं.
झारखंड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन के नेतृत्व में गठबंधन सरकार ने सरना धर्म प्रस्ताव पास करके यही करने की कोशिश की है. अब केंद्र सरकार को चाहिए कि वह आदिवासी समुदाय के लोगों के लिए एक धार्मिक पहचान जनगणना के माध्यम से सुनिश्चित करे. झारखंड में जीवन यापन के लिए आकर बसे हुए लोगों को झारखंड के आदिवासी और मूलवासियों के अधिकारों को पहचानने और मानने की जरूरत है. झारखंड को एक उन्नत और सामाजिक दृष्टिकोण से न्यायपूर्ण राज्य बनाने के लिए ऐसी सोच का विकसित होना अत्यंत जरूरी है.
(सुजीत कुमार बेंगलुरु स्थित अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ डेवलपमेंट में सहायक प्राध्यापक हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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