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साल 1993, जगह लखनऊ का बेगम हजरत महल पार्क. लीडर ऑफ दलित कांशीराम ने मायावती का हाथ उठाकर उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था. साल 2019, जगह लखनऊ का बीएसपी कार्यालय. मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और भतीजे आकाश आनंद को पार्टी का नेशनल कोऑर्डिनेटर घोषित कर दिया. तब कांशीराम ने भाई-भतीजे से दूर बीएसपी के उत्तराधिकारी का ऐलान किया था और अब मायावती ने भाई और भतीजे को डिप्टी सुप्रीमो बना डाला है. इस तरह, जो कल तक परिवारवाद के खिलाफ जहर उगलती थी, वो पार्टी अब खुद परिवारवाद की राह पर है.
एक और मसला हुआ जब नारा लगा ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’. फिर एक नारा लगा ‘चढ़ गुंडों की छाती पर, मोहर लगेगी हाथी पर’. नारा फिर एक लगा ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’. नारों की इस कड़ी का अंतिम नारा था ‘मीम और भीम’. इन नारों पर नजर डालें तो मायावती का पूरा सफर और जिद साफतौर पर सामने आते हैं. पहले अगड़ी जातियों की मुखालफत, फिर यादवों के खिलाफ हल्ला बोल. सफर आगे बढ़ा और सोशल इंजीनियरिंग ने दलित हाथी को ब्राह्मणों का गणेश बना दिया. और अब ये सफर मुसलमानों और दलित के कॉम्बिनेशन को लेकर आगे बढ़ रहा है. ‘न खाता न बही, जो बहनजी कहें वही सही’.
इसमें कोई शक नहीं कि कांशीराम के दलित मूवमेंट में मायावती ने एग्रेशन का तड़का लगाया है. यही वजह है कि मायावती ने जो सोचा, जब जो समझा, वही किया और उसी को सही माना.
1993 में कांशीराम ने समाजवादी पार्टी से हाथ मिलाकर एक बुनियाद रखी. लेकिन गेस्ट हाउस कांड होते ही 1995 में मायावती ने बीजेपी से समर्थन लेकर सरकार बनाने में कोई हिचक नहीं दिखाई. 1997 और 2002 में भी ऐसा ही हुआ. जैसे मायावती को इस बात की फिक्र ही नहीं थी कि बीजेपी और बीएसपी दो अलग-अलग पॉलिटिकल कॉरिडोर हैं या यूं कहें कि राजनीति विचारधारा में दोनों 36 के मानिंद हैं.
कोई शक नहीं कि पार्टी का ग्राफ लगातार नीचे जा रहा है. 2012 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी हाशिये पर चली गई और दो साल बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुला. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी को सिर्फ 19 सीटें मिलीं और गुजरे 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के सिर्फ 10 सांसद चुने गए, वो भी अखिलेश यादव से हाथ मिलाने के बाद.
2014 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी को तकरीबन 14 फीसदी दलितों ने वोट किया, जबकि बीजेपी को दलितों के 24 परसेंट वोट मिले. लेकिन एक बार फिर मायावती अपनी पार्टी और दलित मूवमेंट की गिरती साख का ठीकरा समाजवादी पार्टी पर फोड़ चुकी हैं.
1993 से 2019 तक मायावती के सफर को स्कैन किया जाए तो तस्वीर एकदम साफ हो जाती है कि उनकी पॉलिटिक्स अगर कोई तय करता है तो वो हैं खुद मायावती.
5 मई 2019 की प्रतापगढ़ रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि अखिलेश यादव और राहुल गांधी आपस में हाथ मिला चुके हैं. पीएम ने कहा, "ये दोनों मायावती की पीठ पर छुरा घोंप रहे हैं. मायावती को यह धोखा चुनाव के बाद पता चलेगा." लेकिन मायावती ने अगले ही दिन प्रेस कॉफ्रेंस बुलाकर मोदी के इस बयान को मोदी की एक चाल बताया था.
बहरहाल, अब मुद्दा यह है कि मायावती 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ेंगी कैसे? जाहिर है, उनको भी समझ में आ चुका है कि बीजेपी को गठबंधन के जरिए नहीं हराया जा सकता, लिहाजा वे अकेले लड़ेंगी. मायावती भी जानती हैं कि प्रमोशन में आरक्षण की जो व्यवस्था उन्होंने लगाई थी, उसे अखिलेश यादव ने खत्म कर दिया था. जिसकी वजह से दलित उनसे (मायावती से) नाराज हैं.
अपने भाई आनंद को उन्होंने 2010 में पार्टी उपाध्यक्ष बनाया था और बाद में ये कह कर हटा दिया था कि उनपर परिवारवाद का आरोप लग रहा है. लेकिन फिर भाई और भतीजे को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और नेशनल को-ऑर्डिनेटर बनाकर मायावती ने साफ कर दिया है कि उन्हें अब पार्टी की चिंता है, नेताओं का टोटा है और परिवार से बेहतर शायद कोई पार्टी नहीं चला सकता.
फिलहाल, मायावती की जिद और जिद्दी फैसलों के बीच ये फैसले की एक और कड़ी है, जो कब तक जुड़ी रहेगी और कब टूट जाएगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन भी है.
फिलहाल दो साल तक इंतजार करना होगा और फिर देखना होगा कि मायावती के इन फैसलों की बयार कैसी बही.
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