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"इस मांग का कोई अंत है? 20-30 रुपये का विसपर भी दे सकते हैं. कल को जींस-पैंट भी दे सकते हैं, परसों को सुंदर जूते क्यों नहीं दे सकते... और अंत में जब परिवार नियोजन की बात आएगी तो निरोध भी मुफ्त में ही देना पड़ेगा. सब कुछ मुफ्त में लेने की आदत क्यों है?"
एक सैनिटरी पैड की कीमत आप क्या जानें IAS मैडम. लेकिन आपको इसकी कीमत जाननी चाहिए.
आपको मालूम होना चाहिए कि सेक्स च्वाइस है, लेकिन मेंस्ट्रुएशन नहीं. कल को मैं मना नहीं कर सकती ना कि "ओ पीरियड्स, कल आना." मेंस्ट्रुएशन एक सच्चाई है.
और सबसे पहले इसी दावे को साफ कर लेते हैं कि सरकार का लड़कियों और महिलाओं को सैनिटरी पैड देना कोई 'मुफ्त की रेवड़ी' नहीं है. जनता टैक्स देती है और सरकार इन पैसों से जनता के कल्याण की योजनाएं निकालती है. और पीरियड्स से संबंधित कई योजनाएं हैं भी जो सरकारें चला रही हैं, लेकिन IAS मैडम शायद इनसे वाकिफ नहीं हैं.
IAS मैडम को शायद इसकी भी जानकारी नहीं है कि मेंस्ट्रुएशन प्रोडक्ट्स तक एक्सेस में भारत के ग्रामीण इलाकों की हालत काफी बदतर है, खासकर बिहार की. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS-5) की 2021 में जारी रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में 15 से 24 साल की 50 फीसदी महिलाएं आज भी माहवारी में कपड़े का इस्तेमाल करती हैं, जो कि सेहत के लिए काफी नुकसानदेह है.
मेंस्ट्रुएशन प्रोडक्ट्स तक पहुंच में भारत के हालात भी कोई ज्यादा अच्छे नहीं हैं. भारत में पीरियड पोवर्टी चिंता का विषय है. पीरियड पोवर्टी मतलब, जब पीरियड्स प्रोडक्ट्स खरीदना किसी भी महिला के लिए महंगा सौदा बन जाए.
YP फाउंडेशन में सेक्शुअल एंड रीप्रोडक्टिव हेल्थ एंड राइट्स-जस्टिस प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर ने इस मामले पर क्विंट फिट से कहा, "कुछ लोगों की रोजाना दिहाड़ी 50 रुपये होती है. अगर उनसे ये उम्मीद की जा रही है कि वो इसमें से 30 रुपये मेंस्ट्रुएशन हेल्थ प्रोडक्ट्स के लिए अलग रख दें, तो ये बेवकूफी वाली बात है."
एक नजर पैड्स के गणित पर भी दौड़ा लेते हैं. देश में सैनिटरी नैपकिन्स के दो बड़े ब्रांड्स को देखें, तो विसपर च्वाइस का रेगुलर पैड है, जो प्रति पैड लगभग 5-6 रुपये का पड़ता है. 90 रुपये के इस पैक में 18 पैड्स होते हैं.
अब बात उन महिलाओं की, जिन्हें हेवी पीरियड्स होते हैं, यानी जिनका फ्लो ज्यादा रहता है और रेगुलर नैपकिन से उनका काम नहीं चल पाता. स्टेफ्री का ड्राई मैक्स ऑल नाइट के 42 पैड्स के सेट की कीमत 480 रुपये है. यहां एक पैड आपको करीब 12 रुपये का पड़ रहा है. इस लिहाज से एक महिला एक महीने में 20 पैड्स पर कुल 240 रुपये खर्च कर रही है.
तो अगर हम सस्ते से लेकर महंगे पैड्स तक की बात करें, तो एक औसतन महिला का सालभर में सैनिटरी नैपकिन पर खर्चा करीब 1000 रुपये से लेकर 3000 रुपये तक आता है.
यहां मैं मेंस्ट्रुएशन हाईजीन से जुड़े दूसरे प्रोडक्ट्स, जैसे की टैंपून और मेंस्ट्रुअल कप की तो बात ही नहीं कर रही हूं. बस जानकारी के लिए बताना चाहूंगी कि एक टैंपून की कीमत 10 रुपये से लेकर 20-25 रुपये तक जाती है. और एक मेंस्ट्रुअल कप 200 रुपये से लेकर 800 रुपये तक पहुंच जाता है.
नीति आयोग की पिछले साल की एक रिपोर्ट (Multidimensional Poverty Index) के मुताबिक, बिहार की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी गरीब है. बिहार में वर्कफोर्स में फीमेल पार्टिसिपेशन काफी कम है, जिसका मतलब है कि महिलाएं इन प्रोडक्ट्स के लिए दूसरों पर निर्भर हैं. ऐसे में आप उनसे उम्मीद करें कि पीरियड्स पर वो सलाना 1000 से 2000 रुपये खर्च करें, तो एक पॉलिसीमेकर के रूप में ये आप ही पर सवाल खड़े करता है.
मेंस्ट्रुअल प्रोडक्ट्स के आसानी से उपलब्ध नहीं होने की एक बड़ी कीमत स्कूल जाने वाली लड़कियां भी चुकाती हैं. सैनिटरी नैपकिन के ब्रांड विसपर ने 2022 में एक सर्वे किया था, जिसमें सामने आया था कि हर 5 में से 1 लड़की पीरियड्स की वजह से स्कूल छोड़ने को मजबूर है.
पीरियड्स पर IAS मैडम का ये बयान उस राज्य के संदर्भ में और बेतुका लगता है जो 30 साल पहले ही पीरियड लीव को मंजूरी दे चुका है. एक ऐसा हक, जिसके लिए कई राज्यों में आज भी लड़ाई जारी है.
इसलिए कह रही हूं IAS मैडम, आपको मालूम होनी चाहिए सैनिटरी पैड की कीमत. आप एक पब्लिक सर्विस ऑफिसर हैं. आपका काम है ऐसी पॉलिसी बनाना, जो जनता के हित में हो. लेकिन आप ही यूं लड़कियों के सवालों पर बचकाने जवाब देंगी, तो जागरुकता बढ़ाने का काम कौन करेगा. आखिरकार, लड़कियों की शिक्षा से लेकर महिलाओं की जिंदगी तक इससे जुड़ी है.
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