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#MeToo : आखिर हिंदी मीडिया में इतना सन्नाटा क्यों है भाई? 

क्या हिंदी मीडिया में महिलाओं को सिर-आंखों पर बिठाया जाता है

दीपक के मंडल
नजरिया
Updated:
मी टू कैंपेन पर हिंदी मीडिया की चुप्पी परेशान करने वाली है
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मी टू कैंपेन पर हिंदी मीडिया की चुप्पी परेशान करने वाली है
फोटो :  द क्विंट 

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तनुश्री दत्ता-नाना पाटेकर विवाद के बाद भारत में अपने तरह के मी टू कैंपेन में अब तक मीडिया के कई नए-पुराने चेहरों पर कालिख पुत चुकी है.सोशल मीडिया को हथियार बना कर महिलाओं की ओर से लगाए गए आरोप से शर्मसार हुए कई दिग्गजों ने सोशल मीडिया पर ही माफी मांग कर अपना दामन छुड़ाने की कोशिश की है तो कइयों ने चुप्पी ओढ़ ली है.

देश में चल रहे मी टू कैंपेन में फिल्म और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री के दिग्गजों के बाद कठघरे में खड़े किए जाने वाले सबसे ज्यादा ‘मर्द’ न्यूज चैनलों, अखबारों के संपादक और पत्रकार हैं. यानी सोसाइटी को आईना दिखाने का दम भरने वाला न्यूज मीडिया खुद शीशे के घर में खड़ा दिख रहा है. फिलहाल जिन चैनलों और अखबारों के ‘मर्द’ पत्रकारों पर प्रताड़ित महिलाओं की गाज गिरी है, उनमें से ज्यादातर अंग्रेजी मीडिया के स्वयंभू नाम हैं. तो क्या यह मान लिया जाए कि यह बीमारी अंग्रेजी मीडिया में ही है. क्या हिंदी और क्षेत्रीय अखबारों, चैनलों और डिजिटल न्यूज मीडिया में महिलाओं को सिर-आंखों पर बिठा कर रखा जाता है?

इससे पहले कि मी टू का सुनामी हिंदी न्यूज मीडिया को घेर ले, मुझे लगता है कि हिंदी के अखबार, पत्रिकाएं, चैनलों में हालात कोई अलग नहीं हैं. महिला कर्मियों के लिए न्यूज चैनलों में भी माहौल दोस्ताना नहीं माना जाता है. इसे दिग्गज पत्रकारों ने खुद माना है. कुछ साल पहले जब राजेंद्र यादव की पत्रिका ‘हंस’ ने हिंदी न्यूज चैनलों की दुनिया पर अपने दो विशेषांक निकाले थे तो आज स्क्रीन पर दिखने वाले कई बड़े पत्रकारों ने उसमें महिलाओं के प्रति अपनी यौन कुंठाओं का जम कर इजहार किया था.

ज्यादा दिन नहीं हुए एक न्यूज चैनल में एक युवा महिला एंकर ने यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए खुदकुशी की कोशिश की. एंकर ने आरोप लगाया था कि उससे सेक्सी दिखने को कहा जाता था. बड़े नेताओं और उद्योगपतियों के पास जाने को कहा जाता था. फिर हमने हाल में देखा कि कैसे एक महिला पत्रकार और संपादक के बीच कथित रिश्तों पर विवाद इतना गहराया कि उसे संपादक की आत्महत्या की वजह भी माना गया.

खुद को सच्चा बताने वाले चैनल के एक बड़े पत्रकार पर भी मी टू कैंपेन शुरू होने के साथ ही फिर आरोप उछलने लगे हैं. हिंदी मीडिया में बहुत से संस्थानों में यौन उत्पीड़न की घटनाओं की जांच करने के लिए विशाखा गाइडलाइंस के तहत कोई जांच कमेटी है या नहीं इसके साफ आंकड़े नहीं हैं. लेकिन हकीकत क्या है हिंदी मीडिया में काम करने वालों को अच्छी तरह पता है.

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हिंदी मीडिया भी पूरी तरह साफ सुथरा नहीं

हिंदी मीडिया के न्यूज रूम में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी कम हैं. सैलरी कम है. कई संस्थानों में बॉस की मनमानी के मामले सामने आए हैं. खास कर न्यूज चैनलों में एंकर कैसे तय किए जाएं यह बॉस की मनमर्जी है. ऐसे में महिला पत्रकारों को कई बार बॉस की मनमानी का शिकार होने के मामले सामने आए हैं.

चैनलों में यस बॉस और बॉस इज ऑलवेज राइट का वाला कल्चर ज्यादा है. यह सिस्टम महिलाओं को आसान शिकार बना देता है.

कई चैनलों में काम कर चुकी आरिफा खानम शेरवानी ने मी टू के कैंपेन के तहत इस हकीकत की तसदीक कर दी. उन्होंने ट्वीट पर लिखा है- हिंदी मीडिया में गंदगी ज्यादा गहरे घुसी हुई है. मैंने कई टीवी न्यूज-रूम में काम किया और कह सकती हूं कि इन सभी में भयंकर महिला विरोधी माहौल है. मेरे खिलाफ भयंकर टिप्पणियां की गई हैं. जैसे मेरे खिलाफ भेदभाव ही इन पुरुषों की मर्दानगी की बुनियाद हो.

कमजोर होना नौकरी में टिके होने की अनिवार्य शर्त

मी टू पर ‘न्यूज लॉन्ड्री’ की एक स्टोरी में कई महिला पत्रकारों ने हिंदी अखबारों और चैनलों के न्यूज रूम में अपने खिलाफ यौन प्रताड़नाओं के वाकयों को जिक्र किया है. एक महिला पत्रकार कहती हैं- '' हिन्दी न्यूज़ रूम से जितना मेरा परिचय हुआ उसे मैंने बहुत सामंती पाया. जहां औरतों का कमज़ोर होना एक अनिवार्य शर्त है नौकरी पाने और टिके रहने के लिए. अंग्रेजी वालों के मुकाबले हिन्दी के संपादक लड़कियों को काम पर रखते वक़्त ज्यादा सतर्कता बरतते हैं और जो लड़कियां उनके खिलाफ लिख बोल सकती हैं, वो सामान्यतः न्यूज़रूम में नहीं पहुंचती या टिकतीं. क्योंकि वहां जिस तरह का चापलूसी भरा और 'हांजी-हांजी' वाला रिवाज़ होता है उसमें आगे बढ़ने के लिए 'लंबे सहारों' के बगैर बढ़ना काफी मुश्किल होता है.''

अपने 20 साल के करियर में मैं हिंदी मीडिया के न्यूज रूम की उन तमाम घटनाओं का गवाह रहा हूं. जहां औरत को सिर्फ देह समझ कर उसकी अवमानना की गई. उसे प्रताड़ित किया गया. मैंने कई पुरूष बॉस देखे हैं जिन्होंने घर, परिवार और समाज की तमाम बंदिशों से परे रोजी-रोटी हासिल करने और करियर बनाने की महिलाओं की जद्दोजहद को जमींदोज करने की कोशिश की है.

शीशे के घरों की दीवारें चटकने का वक्त

लौट कर मैं फिर राजेंद्र यादव की पत्रिका हंस के एक और वाकये पर आता हूं. दस-पंद्रह साल पहले उन्होंने अपनी पत्रिका में एक कॉ़लम में पत्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों को अपनी जिंदगी के तमाम पहलुओं पर ईमानदारी से लिखने को लिए आमंत्रित किया था. तब एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपनी जिंदगी के किस्से बयान करने के क्रम में साफ लिखा था कि किस तरह उन्होंने एक आदिवासी महिला का यौन शोषण किया था.

मैं इंतजार कर रहा हूं कि न्यूजरूम में बैठे ताकतवर लोग भी थोड़ी ईमानदारी दिखाएं और उन महिलाओं से माफी मांगें, जिनका उन्होंने यौन शोषण किया था. वरना हिंदी मीडिया में मी टू कैंपेन ने जोर पकड़ा तो शीशे के मकानों में रहने वाले कई दिग्गजों को अपनी दीवारों की कांच चटकती नजर आएगी.

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Published: 09 Oct 2018,06:55 PM IST

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