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रूस पर भारत को धमकी के बाद उच्च स्तरीय वार्ता: अच्छा है अमेरिका नादानी छोड़ दे

मिसाइल, ड्रोन और टेक : भारत को लेकर अगर अमेरिका गंभीर है तो वह क्या कर सकता है?

रिटायर लेफ्टिनेंट जनरल सतीश दुआ
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन&nbsp;</p></div>
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भारत के प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन 

फोटो : क्विंट

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India-US 2+2 dialogue : हाल ही में भारत और अमेरिका के बीच टू-प्लस-टू वार्ता संपन्न हुई है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस जयशंकर (S Jayshankar) ने अपने अमेरिकी समकक्षों, रक्षा सचिव ऑस्टिन लॉयड और विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन के साथ द्विपक्षीय रक्षा और राजनीतिक संबंधों को मजबूत करने और आगे बढ़ाने के लिए मुलाकात की साथ-साथ यूक्रेन युद्ध व इंडो-पैसिफिक जैसे मुद्दों पर विचारों का आदान-प्रदान किया.

राष्ट्रपति जो बाइडेन के पदभार ग्रहण करने के बाद से यह न केवल भारत और अमेरिका के बीच इस तरह का पहला 2+2 संवाद था बल्कि यह किसी भी देश के साथ पहली ऐसी वार्ता थी, जो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति जो बाइडेन के बीच शिखर-स्तरीय बैठक से पहले हुई थी. अच्छे कारण के साथ, इसने इस विशिष्ट 2+2 वार्तालाप की स्थिति और स्तर को ऊपर उठाया है. यूक्रेन पर चल रहे रूस के हमले के संदर्भ में दोनों देशों के बीच इस तरह की यह पहली उच्च स्तरीय बैठक है और इस मामले पर दोनों देशों (अमेरिका और भारत) के दृष्टिकोण समान नहीं हैं.

भारत का संतुलित दृष्टिकोण

रूस-यूक्रेन संघर्ष पर भारत यथार्थवादी दृष्टिकोण और स्वतंत्र रुख अपना रहा है. दोनों (रूस और यूक्रेन) देशों के साथ भारत के अच्छे संबंध हैं. इसी वजह से यूक्रेन के युद्ध क्षेत्र से 22,000 से अधिक भारतीय नागरिकों को सुरक्षित सफलतापूर्वक निकालने में भारत सफल रहा. हिंसा और हत्याओं को रोकने का भारत ने आह्वान किया है और इस बात पर जोर दिया कि इस समस्या को हल करने के लिए कूटनीति और बातचीत का सहारा लिया जाना चाहिए. भारत ने यूक्रेन को मानवीय सहायता भी भेजी है. हालांकि जब संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद में प्रतिबंधों और मतदान की बात आयी तो भारत आंखें मूंदकर पश्चिमी देशों के साथ नहीं गया. लेकिन बुका में हुई हत्याओं की जांच का समर्थन भारत ने किया है.

दरअसल, अमेरिका के साथ हमारी रणनीतिक साझेदारी को ध्यान में रखते हुए भारत ने अपनी रणनीतिक स्वायत्तता का प्रयोग किया और एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया है. लेकिन इसके साथ ही भारत ने इस बात की भी अनदेखी नहीं की है कि रूस हमारा विश्वसनीय मित्र रहा है और जब हमें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी तब यह हमारी सहायता के लिए कई बार आगे आया है.

इसके अलावा भारत ने मानवीय मुद्दों और आर्थिक यथार्थवादिता के बीच एक समझदारीपूर्ण संतुलन भी बनाया है.

जब अमेरिकी विदेश मंत्री ने रूस से तेल खरीदकर रूसी युद्ध के प्रयास में मदद नहीं करने के बारे में भारत को मनाना चाहा तब विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तीखा लेकिन विनम्र जवाब दिया. उन्होंने कहा :

'यदि आप रूस से [भारत की] ऊर्जा खरीद को देख रहे हैं, तो मेरा सुझाव है कि आपका ध्यान यूरोप की तरफ होना चाहिए. हम अपनी एनर्जी सिक्योरिटी को सुनिश्चित करने के लिए जरूरी कुछ ऊर्जा खरीदते हैं. आंकड़ों को देखते हुए, मेरा मानना ​​है कि हमारी मासिक खरीदारी यूरोप द्वारा एक दिन में की जाने वाली खरीदारी से कम होगी.'

तेल खरीद बंद करने के लिए मनाने वाली बात को उनके इस तर्क ने समाप्त कर दिया और एंटनी ब्लिंकन को यह कहने के लिए मजबूर होना पड़ा कि भारत को कम से कम अतिरिक्त तेल नहीं खरीदना चाहिए.

अमेरिकी रक्षा सचिव को यह कहते हुए सुनना उत्साहजनक था कि अगर चीन से भारत को कोई खतरा होगा तो अमेरिका भारत के साथ खड़ा रहेगा. वहीं भारत ने अपनी ओर से यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि वह हिंद-प्रशांत (इंडो-पैसिफिक) को मुक्त और खुला बनाने के सभी प्रयासों में हिस्सा लेना चाहता है.

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भारत की अपनी मजबूरियां हैं अमेरिका को यह समझना चाहिए

अमेरिका को भारत की विवशताओं को भली-भांति समझना चाहिए. रूस न केवल जरूरत के समय में एक विश्वसनीय मित्र रहा है, बल्कि उसने लाइसेंस प्राप्त उत्पादन के रूप में कई प्लेटफार्मों के लिए रक्षा निर्माण में, ज्वाइंट वेंचर (संयुक्त उद्यम) आदि मामले में भारत के साथ टेक्नोलॉजी यानी प्रौद्योगिकी (technology) साझा की है.

दूसरा यह कि चीन के साथ रूस की बढ़ती नजदीकियों को ध्यान में रखते हुए भारत को मॉस्को के साथ बातचीत के द्वारा खुले रखने होंगे. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि चीन पहले ही लद्दाख में एलएसी के पास अपने इरादों का प्रदर्शन कर चुका है.

हालांकि अमेरिका को भी चीन के खिलाफ अपनी लड़ाई में (चीन को पीछे धकेलने के लिए) भारत की जरूरत है. जो खुले तौर पर एकमात्र महाशक्ति के रूप में अमेरिका की जगह लेने की कोशिश कर रहा है और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के रूप में डॉलर को भी तोड़ना चाहता है. भारत विशेष रूप से इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में क्वाड का एक महत्वपूर्ण भागीदार है. इस बात को भी स्वीकारा जाता है कि अमेरिका चाहता है कि रूसी रक्षा उपकरणों से भारत दूर हो जाए. इसके बदले में अमेरिका अपने प्लेटफॉर्म की आपूर्ति भारत को करने को तैयार है. हालांकि, इसका मतलब यह होगा कि एक की निर्भरता छोड़कर दूसरे पर निर्भर हो जाना.

यदि अमेरिका वाकई में भारत के समर्थन के बारे में गंभीर है तो उसे भारत की आत्मनिर्भरता की राह में सहायता करने के लिए आगे आना चाहिए. अमेरिकियों को तकनीकी अंतर की खाई को पाटने में भारत की सहायता करने पर विचार करना चाहिए.

एक आत्मनिर्भर भारत उद्देश्यपूर्ण हो सकता है

यद्यपि सटीक युद्ध सामग्री आज का आदर्श हैं लेकिन रूस-यूक्रेन युद्ध ने प्रदर्शित किया है कि गतिज युद्ध (kinetic wars) खत्म नहीं हुए हैं. ऐसे में भारत को अपनी सैन्य यंत्रों को एक से अधिक तरीकों से आधुनिक बनाने की जरूरत है. हाइपरसोनिक मिसाइलें, एडवांस्ड आर्म्ड ड्रोन, लॉयटरिंग मिसाइलें जैसी बहुत कुछ टेक्नोलॉजी भारत को वह बढ़त प्रदान करेंगी जो दो सक्रिय और अनसुलझी सीमाओं के साथ एक बढ़ती हुई शक्ति के योग्य है. ​​चीन और उसके आधिपत्य के संबंध में यह क्वाड और पश्चिम के लिए भी अच्छी खबर होगी.

इसके अलावा अंतरिक्ष उपग्रहों और विमानन क्षेत्र से संबंधित प्रौद्योगिकियों की सख्त जरूरत है. भारत इन प्रौद्योगिकियों को विकसित करने में कुछ सहायता प्राप्त करने के लिए अपनी वर्तमान स्थिति और क्षमता का लाभ उठाने के लिए बेहतर प्रदर्शन करेगा.

शायद भारत को उसी तरह से तकनीक दी जा सकती है जिस तरह ऑस्ट्रेलिया को परमाणु पनडुब्बियों के लिए AUKUS के तहत सपोर्ट मिला था. एक आत्मनिर्भर भारत इतना मजबूत होगा कि वह अपने राष्ट्रीय हितों को लेकर अधिक उद्देश्यपूर्ण स्थिति में जा सके.

भारत और चीन क्या पश्चिम के खिलाफ एकजुट हो सकते हैं? असंभव, लेकिन नामुमकिन नहीं

दूर की कौड़ी, आज यहां पर रूस है, लेकिन अमेरिका को शायद चिंता करनी चाहिए कि कल इसी जगह पर चीन हो सकता है. यदि भारत और चीन अपनी सीमा संबंधी मुद्दों को हल करते हैं- और सतह के ठीक नीचे अरुणाचल बनाम अक्साई चिन का एक व्यावहारिक मॉडल जगजाहिर है- ये दो पुरानी सभ्यताएं और पड़ोसी एकजुट हो जाएं तो पश्चिम के लिए खतरा हो सकते हैं. हमारी राजनीतिक व्यवस्था को देखते हुए इसकी बहुत संभावना नहीं है. लेकिन, क्या हम सभी इस बात को लेकर निश्चित नहीं थे कि दुनिया 21वीं सदी में कोई पूर्ण 'विश्व युद्ध' नहीं देखेगी? लेकिन यूक्रेन युद्ध हुआ. नतीजतन, अंतरराष्ट्रीय गतिशीलता में, कभी भी कोई भी किसी बात को लेकर निश्चित नहीं हो सकता है.

नतीजतन, अब जबकि हमारे संबंध पिछले एक या दो दशक में फिर से सक्रिय हो गए हैं, अमेरिकियों के लिए एक आत्मनिर्भर, पश्चिम-उन्मुख भारत को देखना महत्वपूर्ण होगा. हालांकि दूसरी ओर भारत को अपने राष्ट्रीय हितों में कार्य करना जारी रखना चाहिए.

(लेफ्टिनेंट जनरल सतीश दुआ, कश्मीर में एक पूर्व कोर कमांडर हैं, जो इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ के प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए हैं. इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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