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कर्ज पर सरकारी गारंटी : मिडिल क्लास के बुरे दिन आने वाले हैं?

क्यों मध्यम-वर्ग के हालात और बुरे हो सकते हैं

ऑनिंद्यो चक्रवर्ती
नजरिया
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सांकेतिक तस्वीर
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सांकेतिक तस्वीर
(फोटो: अरूप मिश्रा/क्विंट)

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2008 की गर्मियों में, मैं और मेरी पत्नी पेरिस के मशहूर होटल डे क्रिलन के सामने खड़े थे, जो कि चैंप्स एलिसिस के पास जिस साधारण क्वार्टर में हम रहते थे वहां से पैदल करीब 15 मिनट की दूरी पर था. हमने एक दूसरे को कहा, ‘अगली बार’.

उस वक्त हमारे आसपास घबराहट के शुरुआती संकेत दिखने लगे थे. यही वो साल था, जब वित्तीय संकट ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया था. इसके बावजूद, ऐसा लगता था कि वैश्विक समृद्धि की लंबी यात्रा में वो महज एक अस्थायी झटका था. और उस समय ऐसा लगता था, विश्व का भविष्य तो भारत के हाथ में है.

आर्थिक भविष्य को लेकर हमारे इस आत्मविश्वास की वजह क्या थी? वो वजह थी हमारा तात्कालिक आर्थिक इतिहास, भारत का विशाल मध्यम वर्ग. साल 2004 के मध्य में वैश्विक अर्थव्यवस्था की लहरों ने भारतीय तटों को छूना शुरू कर दिया. हमारे स्टॉक मार्केट में मोटे पैसे आने लगे थे. कंपनियां शेयर बेचकर पैसे की उगाही कर रही थीं और उस पैसे से अपना कारोबार बढ़ा रही थीं. बैंकों ने निवेश और खर्च के लिए सबको कर्ज देना शुरू कर दिया था. लोगों के पैसे और बड़े-बड़े कर्ज से सड़क, पुल, पावर प्लांट, एयरपोर्ट, स्टील और सीमेंट प्लांट और शानदार अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स बनने लगे. स्टॉक के दाम ने लोगों की कमाई को पीछे छोड़ दिया था.

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क्या वो सबसे अच्छे दिन थे?

इस दौरान प्रतिभाशाली लोगों को लुभाने और अपने साथ जोड़े रखने के लिए कंपनियों में होड़ मची होती थी. फंडिंग से लबालब कंपनियों ने तब मिडिल और सीनियर मैनेजमेंट पर खूब खर्च किए. तीस की उम्र में युवा पेशेवर मोटी सैलरी कमाने लगे, और कंपनी की तरफ से मिलने वाले खर्च और भत्तों की वजह से वो खुद को अपनी कमाई से भी ज्यादा अमीर समझने लगे. ऊंचाइयों को छूते ये भारतीय जब विदेशों में छुट्टियां मनाने जाते तो लगभग हर चीज खरीदने की अपनी नई ताकत देखकर हैरान रह जाते. अंतरराष्ट्रीय एयरलाइंस ने बिजनेस क्लास में सीटें बढ़ा दी थीं, कइयों ने तो फर्स्ट क्लास केबिन भी लगा दिए थे.

मगर इसकी वजह सिर्फ फंड की बाढ़ नहीं थी. किसी भी तरह का सरकारी ठेका या सरकारी बैंकों से कर्ज लेने के लिए सत्ता में बैठे लोगों की खिदमतगारी करनी पड़ती थी. भारत के शहरों में सत्ता के दलालों और बिचौलियों की फौज खड़ी हो गई थी, जो कि पांच-सितारा होटलों की लॉबी में कॉर्पोरेट, अधिकारियों और नेताओं के बीच डील कराते थे.

ये काले धन की अनकही पीढ़ी का वक्त था. कुछ काला धन फर्जी कंपनियों में डाला जाता, कुछ हवाला के रास्ते भेजा जाता, और फिर वो काला धन गुमनाम वचन पत्र के जरिए भारत के बाजार में लौट आता था. तत्कालीन SEBI चीफ ऐसे निवेशों के खिलाफ लगातार कार्रवाई करते रहे, क्योंकि वह मानते थे कि ऐसा करने से स्टॉक के दाम बनावटी तरीके से उनके वास्तविक मूल्य से ज्यादा हो जाते हैं. हालांकि मध्यम-वर्गीय निवेशों के भाव बढ़ने के अनर्गल जश्न में उनकी आवाज दब कर रह गई.

काला धन और उसका दूरगामी असर

सबसे ज्यादा काला धन रियल एस्टेट में लगाया गया. जिसकी वजह से प्रॉपर्टी के दाम आसमान छूने लगे, शहरों में घर बनाना लोगों की हैसियत से बाहर की बात हो गई. मगर भविष्य में अमीर बनने का मौका देखकर मध्यम-वर्ग ने कर्ज लेकर उपनगरों में आने वाले प्रोजेक्ट्स में निवेश शुरू कर दिया. प्रॉपर्टी के दाम पता करना और उनकी तुलना करना पार्टियों में बातचीत का हिस्सा बन गया.

कोई शक नहीं इससे सीधे तौर सिर्फ ऊपर के 10 फीसदी भारतीय ही प्रभावित हुए. लेकिन इसका दूरगामी असर बाकी लोगों पर भी हुआ.

खास तौर पर उन पर जिसे भारतीय स्टाफ कहकर बुलाना पसंद करते हैं – घरेलू मदद करने वाले, ड्राइवर, गार्ड, इत्यादि – जिन्होंने परोक्ष तौर पर अमीरों के रहन-सहन का अनुभव किया है. भारत के गरीब और निम्न मध्यम-वर्ग के इन लोगों को एक बेहतर जिंदगी की उम्मीद थी, अपने लिए ना सही, अपने बच्चों के लिए ही. उच्च मध्यम-वर्गीय लोग अपने फोन, डिजाइनर कपड़े, CRT टीवी, पुराने फर्नीचर अपने स्टाफ को देने लगे. कुछ खरीदना हो तो इनके कर्मचारी ‘एडवांस’ ले लेकर पगार से काट लेने को कहते. एक अमीर आदमी के नजरिए से कहें तो भारत समृद्धि की इस तेज रौशनी में चमचमाने लगा था.

जब मध्यम-वर्ग का बुलबुला फूटा, तो सरकार तक गिर गई

इसके बाद अचानक, 2008 की शुरुआत में, ये बुलबुला फूट गया. रातों रात निवेश वापस ले लिए गए. 2004 की गर्मियों में 5000 के आंकड़े पर रहा जो सेंसेक्स 2008 जनवरी तक 21,000 तक पहुंच चुका था, वो धड़ाम से करीब एक तिहाई नीचे गिर गया. प्रॉपर्टी का लेनदेन रुक गया और, हालांकि इसके दाम ढेर तो नहीं हुए, कीमत बढ़नी बंद हो गई. दफ्तर में काम करने वाली नौकरियां खत्म हो गईं, भर्तियां रुक गईं और कई कंपनियों ने लोगों के वेतन में कटौती कर दी. मध्यम-वर्ग की आय और संपत्ति दोनों सिमटने लगे.

अगर मनमोहन सिंह सरकार ने अपने पहले दो सालों में अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर पैसे नहीं लगाए होते और पब्लिक सेक्टर बैंकों ने बड़े कर्ज नहीं दिए होते तो सबकुछ धराशायी हो जाता. इससे 2011 तक घरेलू निवेश और खपत बनी रही. लेकिन, उसके बाद, मध्यम-वर्ग को ये समझ में आ गया कि जिंदगी दोबारा पटरी पर नहीं लौटने वाली है.

नाराज और निराश लोग, जो कि इसके लिए मनमोहन सिंह सरकार की नाकामी को जिम्मेदार मानते थे, सड़कों पर उतर आए. अन्ना आंदोलन, निर्भया केस, कॉमनवेल्थ, 2G और कोयला घोटाले के बहाने लोगों का रोष बाहर आने लगा.

जो मध्यम-वर्गीय लोग कभी प्रॉपर्टी खरीदने के लिए खुशी-खुशी नकद भुगतान करते थे वो कांग्रेस पार्टी के भ्रष्टाचार के विरोध में अपना आक्रोश जाहिर करने लगे.

इसके बाद साल 2013 के आखिर में नरेंद्र मोदी, भारत से भ्रष्टाचार मिटाने और अच्छे दिन लाने के वादों के साथ, वो शक्तिशाली नेता बनकर उभरे जिसकी देश को जरूरत थी. सच्चाई तो ये थी कि जो बैलून फट चुका था उसे दोबारा फुलाने का कोई उपाय नहीं था. भारत की जिस फलती-फूलती अर्थव्यवस्था की पूरी दुनिया में चर्चा हो रही थी वो सिर्फ ऊपर के 20 फीसदी लोगों के लिए थी. बाकी लोगों को पिछले एक दशक के विकास से कुछ नहीं मिला था. दरअसल, पूरे 2000 के दशक के दौरान, रोजगार में विकास की दर 1980 और 1990 के दशक से भी कम थी. जिस अर्थव्यवस्था में सिर्फ अमीरों का भला होता हो वो ज्यादा दिन तक नहीं टिक सकती.

क्यों मध्यम-वर्ग के हालात और बुरे हो सकते हैं

मोदीनॉमिक्स का नाकाम होना तय था, क्योंकि इस दौरान सबकुछ मोटे तौर पर यूपीए के आर्थिक रास्ते पर ही चलता रहा. उसके बाद नोटबंदी और GST ने भारतीय मध्यम-वर्ग के लिए जिंदगी और मुश्किल कर दी. मोदी सरकार का ध्यान गरीबों को आर्थिक सहायता देकर वोट जीतने पर रहा तो इससे सिर्फ इतना फायदा हुआ कि जो लोग अर्थव्यवस्था के हाशिए पर चले गए थे उनकी हालत थोड़ी बेहतर हुई. लेकिन गरीब लोगों की खपत का स्तर इतना कम रहा कि सरकार के खर्च के बावजूद अर्थव्यवस्था में मांग को नहीं बढ़ाया जा सका.

सरकार जानती है कि भारत की अर्थव्यवस्था बेहद नाजुक मोड़ पर पहुंच चुकी है. इस आर्थिक संकट से निकलने का दीर्घकालिक समाधान है देश की संपदा का पुनर्वितरण, उत्पादन की प्राथमिकता में बदलाव और 20 फीसदी से ऊपर की आबादी में खपत की बढ़ोतरी.

मध्यम-वर्ग के लिए यह बुरी खबर है. पिछले एक दशक से ये वर्ग, कभी-कभार नजर आई उम्मीदों के बीच, मुसीबतों को झेल रहा है. अब सरकार कह रही है कि इससे ज्यादा की उम्मीद मत करो. आत्मनिर्भर बनो और खुद से कम सुविधा में जी रहे लोगों की मदद करो.

कारोबारियों और उपभोक्ताओं को कर्ज लेकर खुद को बचाने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है. लेकिन, जब कर्ज चुकाने का कोई उपाय ना दिख रहा हो, तो कर्ज कौन लेगा? ऐसा सिर्फ वो ही कर सकते हैं जो बेहद आतुर हैं. या वो जो कर्ज चुकाने की कोई मंशा ही नहीं रखते. सरकार की गारंटी की शह पर बैंक ऐसे लोगों को भी कर्ज देगा जिन्हें उधार देने में खतरा है, और उनकी गलती का नतीजा भुगतेंगे वो जो टैक्स अदा करते हैं.

इस सब का बोझ आखिरकार भारत के मध्यम-वर्ग के कंधों पर ही आएगा, जिन्हें ना सरकार से सब्सिडी मिलेगी और ना ही टैक्स में छूट मिलेगी. इसलिए हमारे लिए अभी अच्छे दिन की कोई उम्मीद नहीं है.

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