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डोकलाम सीमा विवाद के बीच भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल चीन की यात्रा पर गए. इससे यह संकेत मिलता है कि इस मामले में भारत का पलड़ा भारी रहेगा. कम से कम कुछ समय के लिए तो यह बात सच होती दिख रही है.
चीन का इतिहास बताता है कि वह छोटी कुर्बानियां देकर बड़ी चीजों पर बढ़त बनाए रखता है, जबकि भारत का इतिहास इससे उलटा रहा है. जहां बहुत कुछ दांव पर लगा होता है, वहां हम समझौता करते हैं और छोटी चीजें पाकर खुश हो जाते हैं.
तिब्बत और कश्मीर पर हमारे शुरुआती स्टैंड इसकी गवाही देते हैं. 1962 में कई चीन-भारत पोस्ट को लेकर भी हमने यही रुख दिखाया. हमने एक चीन के युद्धबंदी को 55 साल तक रखा. इसलिए असल सवाल यह है कि क्या हम चीन के साथ लंबे समय तक उसी की तरह रवैया अपना सकते हैं और उसका असर राजनयिक संबंधों पर न पड़ने दें.
अभी 15 दिन पहले ही ऐसी खबरें आ रही थीं कि आमिर खान की फिल्म दंगल ने भारत और भारतीयों के प्रति चीन के मीडिया के कई सालों के दुष्प्रचार को ‘धो डाला’ है. ‘योग दिवस’ भी चीन में भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ की सफलता थी. यह काम तो चीन में ‘अतुल्य भारत’ कैंपेन भी नहीं कर पाया था.
डोकलाम विवाद के चलते यह ‘सौहार्द’ बहुत जल्द खत्म हो गया, जो भारत और चीन के अधिकांश लोग नहीं चाहते थे. चीन के ‘ग्लोबल टाइम्स’ जैसे अखबारों में भारत की ‘सॉफ्ट पावर’ संबंधी खबरें छप रही थीं, जो अर्णब गोस्वामी स्टाइल की पत्रकारिता करता है.
भारत में चीन और वहां के लोगों के बारे में हमारे यहां के कट्टर सुरक्षा जानकार ऐसी छवि गढ़ते आए हैं, जिसका शिकार पूर्वोत्तर राज्यों में रहने वाले 5 करोड़ भारतीय भी हुए हैं. पूर्वोत्तर में रहने वाले इन भारतीयों पर ‘चाइनीज’ कहकर ताना मारा जाता रहा है. इसलिए मीडिया के दबदबे वाले आज के दौर में ‘दंगल’ ने भारत को लेकर चीन के लोगों में जो अच्छी इमेज बनाई, हम उसे गंवाने का जोखिम नहीं उठा सकते. जहां तक चीन से डील करने की बात है तो भारत को उसका जवाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए.
ह्यूमन डिवेलपमेंट के मामले में भी वह भारत से आगे है. वहां एक पार्टी का राज चलता है. पिछले दो दशक से चीन में एक नेता का राज 10 साल तक रहा है, जबकि भारत कई पार्टियों वाला लोकतांत्रिक देश है. चीन और वहां के लोगों को लगता है कि वे अमेरिका और जापान की बराबरी करने का दमखम रखते हैं. वह भारत एक क्षेत्रीय ताकत मानता है.
अगर पावर और पॉलिटिक्स को अलग कर दें तो 1962 युद्ध के बावजूद चीन के लोग भारतीयों के प्रति अदावत नहीं रखते. वे भारत को सम्मान की नजर से देखते हैं और इसकी वजह बुद्ध या बॉलीवुड ही नहीं हैं.
आपको चीन में कई ऐसे युवा मिल जाएंगे, जिन्हें दिल्ली से ज्यादा बेंगलुरु के बारे में पता है. वे मानते हैं कि हर भारतीय टेक्नोलॉजी में अच्छा है और वह बॉलीवुड के गानों पर थिरक सकता है. चीन और वहां के लोग आज जिस सफलता तक पहुंचे हैं, उसके लिए उन्होंने काफी संघर्ष किया है. हमने तो अपने यहां अभी इस बदलाव की कीमत चुकानी शुरू की है.
भारतीयों की तरह चीन के लोगों को भी न्यूक्लियर पावर रखने वाले पड़ोसी देश के साथ सीमा पर शांति की अहमियत पता है. यह बात और है कि हमारा मीडिया और एक्सपर्ट्स चाइनीज मीडिया की चुनिंदा खबरों को दिखाकर अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए भावनाएं भड़का रहे हैं.
रेनझेन इंस्टीट्यूट ने ‘शी-मोदी: जोखिम उठाने वाले’ शीर्षक से एक वीचैट पोस्ट किया है. इसमें भारत को ‘चीन की सीमा में घुसपैठ का दोषी’ ठहराया गया है. चाइनीज मीडिया में इस मामले में हजारों अन्य पोस्ट भी दिख जाएंगे, जिनमें तरह-तरह की बातें लिखी हैं.
शी जिनपिंग और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी-अपनी विचारधारा की वजह से जोखिम उठाने वाले नेता हैं. उनके बारे में अच्छी बात यह है कि इसके साथ दोनों ने प्रैक्टिकल अप्रोच भी दिखाई है. दोनों सुलह की अहमियत भी समझते हैं. इसी वजह से डोकलाम विवाद के बावजूद सीमा पर गोलाबारी नहीं हुई है.
संभव है कि सही मौका आने पर मोदी सरकार रणनीतिक मकसद से समझौता किए बिना डोकलाम मामले पर सुलह करेगी. इसे लेकर हो-हल्ला नहीं मचाया जाएगा. मोदी और शी दोनों को यह स्वीकार करना चाहिए कि एक दूसरे का दिल जीतने का रास्ता डोकलाम वैली से नहीं गुजरता.
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(लेखक जेएनयू में रिसर्च स्कॉलर हैं. उनसे @tilakjha पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)
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