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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख चाहे वो मोहन भागवत हों या उनसे पहले कोई ओर रहे हों, जब कुछ बोलते हैं तो बिना समझे नहीं बोलते. और, जब बोलते हैं तो वही भारतीय जनता पार्टी के लिए नीति बन जाती है. यूनीफॉर्म सिविल कोड, हिन्दुत्व, राम मंदिर, रोहिंग्या, पाकिस्तान, नक्सलवाद, धर्मांतरण, आरक्षण जैसे मुद्दों पर बीजेपी की नीति आरएसएस की सोच के अनुरूप रही है. जब कभी भी दो मत नजर आए हैं तो असमंजस या विभ्रम को दूर किया गया है.
आरएसएस के स्थापना दिवस पर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने विभिन्न मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखी है लेकिन यही राय भारतीय जनता पार्टी और मोदी सरकार की भी राय होने वाली है इसलिए इस पर गौर करना जरूरी है.
मोहन भागवत ने सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश देने से जुड़े फैसले पर बहुत खुलकर असंतोष जताया है जिसे उन्होंने ‘केरल में असंतोष’ का नाम दिया है. वे स्त्री-पुरुष समानता की वकालत तो करते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले को असंतोष फैलाने वाला भी बता डालते हैं. मोहन भागवत जब कहते हैं कि धर्म से जुड़ी बातों के लिए धर्माचार्यों से बात करनी चाहिए, तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी करते हुए भी वो दिख जाते हैं.
राम मंदिर को लेकर आरएसएस प्रमुख का यह बयान आक्रामक बयान है. यह बयान ऐसे समय पर है जब आम चुनाव नजदीक है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर नियमित सुनवाई हो रही है. राम मंदिर के निर्माण में जानबूझकर देरी के जो आरोप भागवत ने लगाए हैं उसके निशाने पर गैर बीजेपी दल और खासकर कांग्रेस है. अगर इसकी वजह वे राजनीतिक बता रहे हैं तो क्या राम मंदिर को तुरंत बनाने की जरूरत और जिद राजनीतिक नहीं है?
देश का गौरव न तो बाबरी मस्जिद के विध्वंस से जुड़ा होता है और न ही लोकतांत्रिक और न्यायिक मूल्यों से मुंह फेर लेने से. देश का गौरव इन सबका सम्मान करने से बढ़ता है.
“राम मंदिर बनने से देश में सद्भावना और एकात्मता का वातावरण बनेगा.”- खुद मोहन भागवत के इस बयान में क्या सद्भावना दिखती है? यह चेतावनी के रूप में नजर आती है. अगर नहीं, बना तो.... संघ इतना आक्रामक तो तब भी नहीं था जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ. आम तौर पर संघ के लोगों ने इस पर चुप रहना पसंद किया था, जबकि अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे नेताओं ने इसे काला दिन करार दिया था. खुद लालकृष्ण आडवाणी ने भी ढांचा गिराने में अपनी या पार्टी की भूमिका से इनकार किया था.
मोहन भागवत कहते हैं कि राम मंदिर हिन्दू-मुसलमान का मसला नहीं है. यही बात तो अदालत भी कहती है. मगर, दोनों की सोच में कितना फर्क है! अदालत राम जन्मभूमि विवाद पर विचार करती है. उसमें जमीन के विवाद तक सोचती है. इसे हिन्दू-मुस्लिम से जोड़कर नहीं देखती. मगर, मोहन भागवत जब यही बात कहते हैं तो उसमें राम मंदिर निर्माण की जिद होती है. इस जिद से न सिर्फ हिन्दू को बल्कि वे मुसलमान और दूसरों को भी जोड़ना चाहते हैं और उसे भारत की इच्छा, भारत का प्रतीक और यहां तक कि भारत का गौरव बता देते हैं.
राम मंदिर निर्माण के लिए मुसलमानों का विश्वास अगर पाना है तो जिद आरएसएस और दूसरे संगठनों को छोड़नी होगी. बाबरी मस्जिद विध्वंस की निंदा करनी होगी. इसके गुनहगारों को सजा दिलाने के लिए आगे आना होगा. 6 दिसम्बर को शौर्य दिवस मनाना बंद करना होगा. इसके अलावा अल्पसंख्यक समुदाय को विश्वास दिलाना होगा कि आगे कभी कोई मस्जिद तोड़ने जैसा काम नहीं होने दिया जाएगा. सवाल ये है कि क्या मोहन भागवत की सदाशयता और सद्भावना ऐसी कुर्बानी देने के लिए तैयार है?
(ये लेखक के अपने विचार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार से क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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