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पहले मुजफ्फरनगर,अब बुलंदशहर,चुनाव से पहले UP को किसकी नजर लगती है?

आखिर यूपी के लोग ऐसे उकसावे में क्यों फंस जाते हैं, वह भी चुनाव करीब होने पर?

मयंक मिश्रा
नजरिया
Updated:
पहले मुजफ्फरनगर,अब बुलंदशहर,चुनाव से पहले UP को किसकी नजर लगती है?
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पहले मुजफ्फरनगर,अब बुलंदशहर,चुनाव से पहले UP को किसकी नजर लगती है?
(फोटो: द क्विंट)

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उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में जो घटनाएं हुईं, वो पूरी योजना के साथ हुईं. इससे राजस्थान में मतदान से ठीक पहले सांप्रदायिक तनाव बढ़ा. बुलंदशहर मामले की शुरुआती जांच में यह बात सामने भी आई थी, भले ही बाद में इसे ट्विस्ट देने की कोशिश हुई. आखिर यूपी के लोग ऐसे उकसावे में क्यों फंस जाते हैं, वह भी चुनाव करीब होने पर?

हाल के सालों में राज्य ने मुजफ्फरनगर दंगे देखे, जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दरार बढ़ी. मुजफ्फरनगर दंगे अगस्त-सितंबर 2013 में हुए थे. उसके बाद 2014 लोकसभा चुनाव के पहले तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई सांप्रदायिक झड़पें हुईं. सच तो यह है कि 2013 में देश भर में सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं में 18 पर्सेंट की बढ़ोतरी हुई थी, जिनमें से 30 पर्सेंट अकेले उत्तर प्रदेश में हुई थीं.

बुलंदशहर हिंसा के दौरान कई गाड़ियां भी फूंक दी गई थीं.(फोटोः PTI)

ये आंकड़े क्या संकेत देते हैं?

क्या इसकी वजह यूपी में मुसलमानों की अच्छी-खासी आबादी है, जिसे राजनीतिक तौर पर इग्नोर नहीं किया जा सकता? जहां 30 पर्सेंट वोट शेयर से चुनाव में हार-जीत का फैसला हो जाए, वहां कुछ पर्सेंट वोट पाने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कारगर हथियार हो सकता है. इसलिए चुनाव से पहले हमेशा यहां दंगे कराने की कोशिशें होती हैं. लेकिन यूपी की जनता इस राजनीतिक खेल में फंसती क्यों है? क्या इसकी वजह हिंदुओं और मुसलमानों के बीच दिलों की दूरी बढ़ना तो नहीं है? कुछ आंकड़े तो ऐसा ही संकेत दे रहे हैं.

2014 से पहले मुसलमानों का राजनीतिक उभार


जाने-माने पॉलिटिकल साइंटिस्ट ए के वर्मा ने 2012 के स्थानीय निकाय चुनावों का विश्लेषण करते हुए लिखा था,

‘उत्तर प्रदेश में जून-जुलाई 2012 के बीच हुए शहरी निकाय चुनावों से शहरी गवर्नेंस में मुसलमानों की चौंकाने वाली वापसी का संकेत मिलता है.’ उन्होंने यह भी कहा था, ‘2007 में यूपी विधानसभा में 13.8 पर्सेंट (403 में से 56 विधायक) मुस्लिम चुने गए थे. 2012 में इनकी संख्या बढ़कर 17.12 पर्सेंट (403 में से 69) हो गई थी. 2004 संसदीय चुनाव में यूपी से 13.74 पर्सेंट (80 में से 11 सीटें) मुस्लिम उम्मीदवार चुने गए थे, लेकिन 2009 में उनकी संख्या घटकर 8.75 पर्सेंट (80 में से 7) रह गई. यूपी में 18.5 पर्सेंट मुसलमान हैं. लोकसभा चुनाव में उनका प्रतिनिधित्व आबादी से कम रहा है. हालांकि, हाल में हुए शहरी निकाय चुनावों में उनकी नुमाइंदगी इससे अधिक यानी 31.5 पर्सेंट हो गई थी.’

सारे आंकड़े उनके ईपीडब्लू में छपे आलेख से लिए गए हैं. विधानसभा (2017 से पहले वाले) और निकायों में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व बढ़ना शायद उनकी आर्थिक ताकत बढ़ने की भी निशानी है. वैसे इसके यूपी के डेटा तो अवेलेबल नहीं हैं, लेकिन देश भर के आंकड़ों से यही संकेत मिल रहे हैं.

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हाल के सालों में दूसरों के मुकाबले तेजी से बढ़ा है मुस्लिम मध्यवर्ग

नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) डेटा के आधार पर समाजशास्त्री संध्या कृष्णन और नीरज हटेकर ने अलग-अलग सामाजिक वर्ग के हिसाब से 1999-2000 से 2011-12 के बीच नए मध्य वर्ग की गणना की है. जो लोग रोजाना 130 से 650 रुपये खर्च करते हैं, उन्हें स्टडी में नए मध्य वर्ग का हिस्सा माना गया. एनएसएसओ डेटा के मुताबिक, 1999-2000 से 2011-12 के बीच मुस्लिम मध्य वर्ग में 86 पर्सेंट की बढ़ोतरी हुई, जबकि इस दौरान नए मध्य वर्ग में हिंदुओं की संख्या भी 76 पर्सेंट बढ़ी. हालांकि, हिंदू रसूखदार जातियों (गैर-ओबीसी, गैर-अनुसूचित जाति और गैर-अनुसूचित जनजाति) के 45 पर्सेंट लोग ही नए मध्य वर्ग में शामिल हो सके.

मुसलमानों को पारंपरिक रूप से गैर-कृषि क्षेत्र से जुड़े होने का मिला फायदा

मुसलमानों को पारंपरिक रूप से गैर-कृषि क्षेत्र से जुड़े होने का मिला फायदा(प्रतीकात्मक तस्वीर: Reuters)

शायद इसी वजह से हाल के वर्षों में मुसलमानों का प्रदर्शन तुलनात्मक तौर पर बेहतर रहा है. मैंने अपने पुराने लेख में लिखा है कि ‘भारतीय मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के बारे में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट से इन सवालों के जवाब मिलते हैं, जो अपनी तरह का सबसे प्रामाणिक और व्यापक डेटा है.’ इस रिपोर्ट में बताया गया है, ‘दूसरे समुदाय की तुलना में बहुत कम मुसलमान कृषि क्षेत्र से जुड़े हैं, लेकिन मैन्यूफैक्चरिंग और ट्रेड में उनकी भागीदारी (खासतौर पर पुरुषों) दूसरे सामाजिक धार्मिक समूहों से काफी ज्यादा है. कंस्ट्रक्शन वर्क में भी उनकी भागीदारी अच्छी-खासी है.’ रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कंस्ट्रक्शन के अलावा थोक और खुदरा व्यापार, सड़क मार्ग से सामान लाने-ले जाने, ऑटो रिपेयर, तंबाकू उत्पादों की मैन्यूफैक्चरिंग, टेक्सटाइल व अपैरल और फैब्रिकेटेड मेटल प्रॉडक्ट्स कारोबार से काफी मुसलमान जुड़े हुए हैं.

दिलचस्प बात यह है कि उदारीकरण के बाद कृषि क्षेत्र की ग्रोथ सीमित रही है, जबकि मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विसेज (खासतौर पर ट्रेड) में तेज बढ़ोतरी हुई है. चूंकि मुसलमान पारंपरिक रूप से गैर-कृषि क्षेत्रों से जुड़े रहे हैं, इसलिए आर्थिक सुधारों का फायदा उन्हें दूसरे समुदाय की तुलना में ज्यादा मिला है. इसी वजह से दूसरे वर्गों की तुलना में मध्य वर्ग से ज्यादा मुसलमान जुड़ रहे हैं.

सांप्रदायिक टकराव की वजह मुसलमानों से जलन है?

कैराना लोकसभा सीट पर 38 पर्सेंट मुसलमान वोटर हैं(फोटोः IANS)

दिलों की दूरी और सांप्रदायिक टकराव की वजह मुसलमानों से जलन है? ऐसा लगता है कि एक सामाजिक समुदाय के तुलनात्मक तौर पर बेहतर राजनीतिक और आर्थिक प्रदर्शन से सामाजिक बैलेंस बदला. मुसलमानों को संदेह की नजर से देखा जाने लगा और कई बार यह उनके प्रति नफरत में बदल गई. इसी वजह से जिन इलाकों में दिलों की दूरियां रही हैं, वहां आपको मुसलमानों को लेकर अपमानजनक बातें सुनने को मिलती हैं. कुछ साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ में मुझसे एक हिंदू बिजनेसमैन ने कहा था, ‘इनकी औकात क्या थी? लेकिन अब इनके बच्चे बढ़िया मोटरसाइकिल पर बैठकर मॉल जाते हैं और हमारी लड़कियों से आंखें लड़ाते हैं.’

देश के कई इलाकों में आपको मुसलमानों के प्रति ऐसी भाषा सुनने को मिल जाएगी. यूपी के कुछ इलाकों में मुसलमानों को लेकर इस तरह की कड़वाहट आपको साफ दिखेगी. हिंदू और मुसलमान दोनों ही तरफ चंद मौकापरस्त लोग इसे भुनाने के लिए बेताब रहे हैं. इसलिए राजनीतिक वर्ग चुनाव से पहले सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने में सफल होता है. कड़े मुकाबले वाले उत्तर प्रदेश में राजनीतिक पार्टियों के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से कुछ पर्सेंटेज का वोट स्विंग ‘मुनाफे का सौदा’ है. इसलिए देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य में बार-बार मुजफ्फरनगर और बुलंदशहर दोहराए जाते रहे हैं.

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Published: 09 Dec 2018,02:32 PM IST

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