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Muzaffarnagar: जब पीड़ितों को 'समझौते' के लिए कहा जाए तो न्याय कैसे मिलेगा?

Muzaffarnagar: तृप्ता त्यागी को विश्वास है कि उन्हें कुछ नहीं होगा. उनके इस विश्वास के पीछे क्या कारण हैं ?

अपूर्वानंद
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>Muzaffarnagar: जब पीड़ितों को 'समझौता' करने के लिए कहा जाए तो न्याय कभी नहीं मिल सकता</p></div>
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Muzaffarnagar: जब पीड़ितों को 'समझौता' करने के लिए कहा जाए तो न्याय कभी नहीं मिल सकता

(फोटोः क्विंट हिंदी)

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उत्तर प्रदेश पुलिस ने मुजफ्फरनगर (Muzaffarnagar) के मुस्लिम लड़के का वीडियो शेयर करने पर ऑल्ट न्यूज के पत्रकार और फैक्ट चेकर मोहम्मद जुबैर के खिलाफ FIR दर्ज किया है. वहीं, सांप्रदायिक टिप्पणी करते हुए छात्रों से मुस्लिम छात्र की पिटाई करवाने वाली तृप्ता त्यागी अभी भी आजाद हैं. उन्हें कोई पछतावा नहीं है. उनका कहना है कि इस पूरे मामले में एकमात्र गलती उस कृत्य का वीडियो बनाकर शेयर करना था.

तृप्ता त्यागी को विश्वास है कि उन्हें कुछ नहीं होगा. उनके इस विश्वास के पीछे क्या कारण हैं ? जैसे ही मुजफ्फरनगर का मामला लोगों के सामने आया, राष्ट्रीय स्तर पर आक्रोश फैल गया. त्यागी समुदाय के नेता तृप्ता त्यागी के पीछे आकर खड़े हो गए. मुजफ्फरनगर के बीजेपी सांसद संजीव बलियान ने उनसे मुलाकात भी की. हालांकि, उनके अलावा जाट किसान नेता नरेश टिकैत ने घोषणा की कि वे त्यागी के खिलाफ FIR दर्ज करवाएंगे.

'सेटलमेंट' की त्रासदी

मुस्लिम लड़के के परिवार को कानून के बाहर मामले को 'निपटाने' को कहा गया. परिवार से यह भी पूछा जा रहा है कि क्या वे न्याय के लिए गांव का सौहार्द बिगाड़ेंगे ? परिवार इस सलाह के पीछे छुपी धमकी को अच्छी तरह से समझता है. आखिरकार उनकी भी अपनी जिंदगी है.

उन्होंने दादरी में मारे गए अखलाक के परिवार का हश्र देखा है. वे हाथरस में रेप और हत्या की शिकार दलित महिला के परिवार के हालत को कैसे भूल सकते हैं? उन्होंने न्याय की राह पर चलने का फैसला किया और गांव में अलग-थलग पड़ गए. अब खतरे से भरा जीवन जी रहे हैं.

यहां देश भर में, खासकर मुसलमानों और दलितों के बीच, न्याय के लिए ऐसी अकेली लड़ाइयों की अनगिनत कहानियां हैं. जिस लड़के को थप्पड़ मारा गया, उसका परिवार जानता है कि उन्हें अकेले ही उनकी लड़ाई लड़नी होगी. वे जानते हैं कि बाद में समाज उनका दुश्मन बन जाएगा.

यदि हम टिकैत के सुझाव को मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि वे भारतीय गांवों को 'लिबरल्स' से बेहतर जानते हैं, जो न्याय पर जोर दे रहे हैं. उन्हें पता है कि लड़के के परिवार को संघर्ष से दुश्मनी मिलेगी. यह हमारे समाज और राज्य तंत्र पर एक तीखा आरोप है.

समाज अपराध को एक व्यक्ति द्वारा किया गया कृत्य नहीं मानता. इस मामले में, यह आरोपी के ऊपर लगाए आरोपों को महज आरोप मानता है और जो न्याय की मांग कर रहे हैं, उनके खिलाफ चला जाता है. राज्य बहुसंख्यक समुदाय के साथ शामिल हो जाता है और उसे लोगों को न्याय दिलाने के बजाय शांति बनाए रखने की चिंता होती है.

हमने खुद को छुपाकर, शहर बदलकर बिना राज्य के सपोर्ट के 15 साल से बिल्किस बानो को अकेले लड़ते देखा है. हमने देखा है कि अगर दलित न्याय की तलाश में आगे बढ़ते हैं तो उन्हें मार दिया जाता है और उनके परिवारों को बर्बाद कर दिया जाता है.

मध्य प्रदेश के सागर के 18 वर्षीय किशोर के मामले को देखें, जिसे अपनी बहन द्वारा दर्ज कराए गए यौन उत्पीड़न के मामले को वापस लेने से इनकार करने पर पीट-पीटकर मार डाला गया. क्या पुलिस को नहीं मालूम था कि उसे सुरक्षा की जरूरत है?

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हम हेट क्राइम को उसके नाम से क्यों नहीं बुला सकते ?

हम यह भी जानते हैं कि हिंसा के ये मामले सिर्फ भारत में नहीं होते हैं. चाहे यूएस हो या यूरोप, कोई भी देश हिंसा और घृणा से मुक्त नहीं है. वह नफरत धार्मिक, नस्लीय और अन्य पूर्वाग्रहों से भी ग्रसित है लेकिन उन देशों में हिंसा की हर ऐसी घटना के बाद, वहां के नेताओं और शासकों को इस मुद्दे को सार्वजनिक रूप से मानने और हिंसा की निंदा करने की आवश्यकता महसूस होती है.

वे ये नहीं कहते हैं कि चूंकि हिंसा के कृत्य में राज्य की कोई संस्था शामिल नहीं है और वे जवाबदेह नहीं हैं. वे यह तर्क नहीं देते कि ये अलग-अलग घटनाएं हैं. वे यह नहीं कहते कि अगर सरकार या स्टेट हेड इन अपराधों पर ध्यान देते रहेंगे तो वे पूरी तरह से काम नहीं कर पाएंगे.

इतना ही नहीं, वे हिंसा की प्रकृति को भी बताने का प्रयास करते हैं. जब यह हेट क्राइम है, तो वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह हेट क्राइम है.

जब कनाडा में एक श्वेत व्यक्ति ने पाकिस्तानी मूल के एक परिवार को कुचल दिया, तो कनाडा के प्रधानमंत्री चुप नहीं रहे. उन्होंने हत्या की निंदा की और इसपर दुख भी जताया. उन्होंने यह नहीं कहा कि यह एक पागल आदमी का काम है.

उन्होंने साफ तौर पर कहा कि यह हिंसा कनाडा में इस्लामोफोबिया से प्रेरित नफरत के कारण हुई. उन्होंने कहा कि यह नफरत एक लंबी प्रक्रिया के बाद शारीरिक हिंसा में बदल गई.

वहीं, एक मस्जिद में मुस्लिमों पर हमला किया गया तो न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री मुस्लिमों से मिलने पहुंचीं. वे खुद मस्जिद गईं. उन्होंने सामूहिक प्रार्थना में भाग लिया और मुसलमानों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए अपना सिर ढंक लिया.

यूएस में, अश्वतों के खिलाफ हिंसा के बाद अक्सर प्रेसिडेंट या उनका प्रतिनिधि देश को संबोधित करता है. वे ये नहीं कहते हैं कि हमलोग हिंसा के सारे मामलों पर टिप्पणी नहीं कर सकते हैं क्योंकि ये बार-बार हो रहा है और इसमें राज्य शामिल नहीं है.

इन सभी देशों के जिम्मेदार नेता अपने मतदाताओं से बार-बार कहते हैं कि आधुनिक लोकतंत्र में नफरत और हिंसा का कोई स्थान नहीं है. आखिर समाज को सभ्य मानदंडों की याद दिलाना भी एक राजनेता का ही काम है.

न्याय की मांग जरूर करनी चाहिए

भारत में, समाज के एक वर्ग, विशेषकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा, सत्ता में बैठे लोगों को प्रभावित नहीं करती है. वे शासन के अपने काम पर फोकस रहते हैं.

इसका उदाहरण मणिपुर में चार महीने से चल रही हिंसा हो सकती है. प्रधानमंत्री और सत्तारूढ़ दल के अन्य नेताओं ने तीन महीने तक चुप्पी साधे रखी. भीड़ द्वारा महिलाओं के यौन उत्पीड़न करने का एक वीडियो वायरल होने पर वे बोलने को मजबूर हुए. इसलिए, ऐसी सरकार से यह उम्मीद करना मूर्खता है कि वह उत्तर प्रदेश के एक गांव में एक भी मुस्लिम बच्चे पर हुई हिंसा पर बोलेगी.

फिर भी न्याय की मांग तो की ही जानी चाहिए. अगर हमलोग लोकतांत्रिक समाज और राज्य के विचार में विश्वास करते हैं तो सरकार से यह उम्मीद जिंदा रहनी चाहिए.

ऐसा होने के लिए, हमें एक ऐसा समाज बनना होगा, जो नफरत और हिंसा को अस्वीकार करता हो. बच्चे के खिलाफ हिंसा के भयानक कृत्य और इसकी सांप्रदायिक प्रवृति यह साबित करती है कि हम एक ऐसा समाज हैं, जो इस बात से इनकार करता रहता है कि वह नफरत से ग्रस्त है. इसलिए हम निश्चिंत हो सकते हैं कि यह मामला 'सौहार्दपूर्ण' ढंग से सुलझ जाएगा.'

...पर वह समाज कितना कमजोर है, जो किसी क्राइम को उसके नाम से बुलाने से इनकार करता हो, जिसमें न्याय की कोई भावना नहीं बची हो, न ही उसके अभाव से कोई परेशानी महसूस होती हो. एक ऐसा समाज जहां, अपराधियों को गले तक लगाया जाता हो और माला पहनाई जाती हो और न्याय मांगने वालों पर हमला किया जाता हो या जेल में डाल दिया जाता हो.

चाहे वह दादरी में अखलाक के हत्यारों के पक्ष में पब्लिक सपोर्ट हो या कठुआ में लड़की के हत्यारों के पक्ष में सार्वजनिक प्रदर्शन, या फिर हाथरस में बलात्कारियों के पक्ष में लामबंदी, ऐसे अनगिनत मौके आए हैं जब लोग उठ खड़े हुए हैं और अपराधियों का पक्ष लिया है और उन्हें अपना बताया है.

जो समाज अपराध को अपराध नहीं कहता और न्याय के मार्ग में बाधा बनकर खड़ा हो जाता है, उस समाज का पतन कोई नहीं रोक सकता.

भारत के लोग, विशेष रूप से हिंदुओं के एक वर्ग को यह तय करना होगा कि क्या वे न्याय रहित समाज में दया और अवमानना ​​का पात्र बनना चाहते हैं, या वे खुद को बचाना चाहते हैं.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. वह @Apoorvanand__ ट्वीट करते हैं. यह एक ओपिनियन आर्टिकल है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)

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