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जम्मू-कश्मीर में कम्युनिकेशन के तमाम जरियों पर पाबंदी के बारे में प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरपर्सन सीके प्रसाद ने जो कहा है वह गरिमाहीन है. ऐसा लगता है हमारे यहां बेहद खराब प्रेस काउंसिल है. यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि अपनी मुखरता की वजह से इमरजेंसी में खत्म कर दी गई काउंसिल ने इस तरह का भड़काने वाला फैसला लिया है, साफ है कि काउंसिल इससे ज्यादा और नहीं गिर सकती थी.
ऐसा नहीं है कि प्रेस काउंसिल ने पहले कोई अच्छा काम नहीं किया हैं. मैंने खुद 2018 में इसका राम मोहन राय अवॉर्ड लिया था. अरुण जेटली ने मुझे यह अवॉर्ड दिया था. आखिर प्रेस काउंसिल इतना अहम क्यों हैं. प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया एक अर्द्ध न्यायिक और स्वायत्त संगठन है और इसके पास दो स्पष्ट अधिकार हैं
हालांकि, इसे एक दंतविहीन संस्था के तौर पर ही देखा जाता है लेकिन प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने पत्रकारिता में कदाचार के खिलाफ आवाज उठाई है. हालांकि, कई बार इसने अपने अधिकारों का कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल कर पत्रकारों और अखबारों को अज्ञानता से भरे कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं. लेकिन कई दफा इस तरह के नोटिस सही भी रहे हैं.
प्रेस काउंसिल के पास सिविल कोर्ट के अधिकार है. वह लोगों को अपने सामने हाजिर होने को कह सकती है. लेकिन आप पर उसका आदेश मानने की बाध्यता नहीं है. कुछ नैतिक अधिकारों से लैस यह एक संवैधानिक निकाय है. इसके पास जो अधिकार हैं वे एक मायने में ठीक भी हैं क्योंकि हमें पत्रकारिता में कदाचार पर रोक लगाने की भी जरूरत है. साथ ही हमें प्रेस के लिए सुरक्षा भी चाहिए.1990 के दशक में पंजाब में आतंकवाद के दिनों में प्रेस काउंसिल ने काफी अच्छा स्टैंड लिया था.
प्रेस काउंसिल में पेड न्यूज के मामले में काफी हद तक अच्छा काम हुआ. हालांकि यह एक माइनरिटी रिपोर्ट थी और इसमें काफी ऊंचे लोगों के नाम लिए गए थे. साथ ही मीडिया में बड़े पैमाने पर फैले भ्रष्टाचार को लेकर आवाज उठाई थी. हमें यह भी मालूम है कि मीडिया में भ्रष्ट लोगों को काफी संरक्षण मिला हुआ है.
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रहे मार्केंडेय काटजू ने एक अच्छा काम यह किया कि उन्होंने पेड न्यूज से जुड़ी रिपोर्ट को इसकी वेबसाइट पर डाल दी. इसका उन्हें पूरा श्रेय मिलना चाहिए. वेबसाइट पर रिपोर्ट को अपलोड करने के बाद यह काफी बड़े स्तर पर सर्कुलेट हो गई.
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने कुछ अहम पहल किए हैं और इसे इसका श्रेय मिलना चाहिए. हालांकि इसका जो ढांचा है वह आज के वक्त के हिसाब से मेल नहीं खाता. अगर आप प्रेस काउंसिल की बनावट को देखें तो पाएंगे कि इसमें वो लोग हैं जिन्हें वहां नहीं होना चाहिए. यह पूरी तरह गलत कॉन्सेप्ट है. ऐसा लगता है यह न्यूजपेपर इंडस्ट्री के लोगों से भरी हुई है लेकिन इसमें सांसद हैं, दूसरे अधिकारी हैं और रिटायर्ड इसके अध्यक्ष हैं.
बहरहाल, यह साफ है कि काउंसिल के कुछ तत्व कश्मीर पर फैसला करने वालों को नजदीकी बनना चाहते है. मुझे उम्मीद है कि श्रमजीवी पत्रकार और संपादक इसमें उनके साथ नहीं हैं.
मैं हर ब्योरे में तो नहीं जा सकता लेकिन इससे पहले प्रेस काउंसिल के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ था. इंदिरा गांधी के जमाने में इमरजेंसी के दौरान प्रेस काउंसिल को खत्म किया जाना एक तरह से इसकी क्षमता का लोहा मानने जैसा था. सत्ता ने प्रेस काउंसिल को एक बेड़ी की तरह देखा. यह इमरजेंसी की ताकत पर अनावश्यक पाबंदी जैसी थी.
बहरहाल, प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष की यह चिट्ठी अलोकतांत्रिक और मनमाना है. इस तरह का फैसला अकेला चेयरमैन नहीं कर सकता. आप इस फैसले को लेकर प्रेस काउंसिल पर सवाल करते हैं. लेकिन यह पूरी काउंसिल का रुख नहीं है. यह रुख सिर्फ एक व्यक्ति का है. मुझे नहीं लगता कि यह आपसी सहमति से लिया गया फैसला होगा. प्रेस काउंसिल को सिर्फ अपनी सनक पर नहीं हटाया जा सकता है. वे काउंसिल के अध्यक्ष के फैसले की निंदा करते हुए बयान जारी कर सकता है. भले ही वह काउंसिल में अल्पसंख्यक हों लेकिन अपनी राय जाहिर कर सकते हैं. प्रेस काउंसिल के तीन सदस्यों ने अध्यक्ष की ओर से 'काउंसिल के नियमों के सरासर उल्लंघन' की आलोचना की है. आगे कुछ और सदस्य भी इसकी आलोचना कर सकते हैं.
यह पूरी तरह गैर संवैधानिक है. संविधान का अनुच्छेद 19(2) सरकार को कानून के जरिये बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी पर वाजिब रोक लगाने की इजाजत देता है. लेकिन इस हिसाब से तो सेंसरशिप की किसी भी कार्रवाई को देश की अखंडता और संप्रभुता के नाम पर जायज ठहराया जा सकता है. यह मौजूदा दौर की हमारी आशंकाओं से भी ज्यादा खतरनाक है.
प्रेस काउंसिल का इस तरह इस्तेमाल एक गरिमाहीन काम है.
(जैसा कि एन राम ने निष्ठा गौतम से कहा)
( एन राम हिंदू पब्लिशिंग ग्रुप के चेयरमैन हैं. वह @nramind पर ट्वीट करते हैं. ऊपर उनके निजी विचार दिए गए हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है)
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