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नागालैंड हिंसा: 24 साल से बेनतीजा एक शांति वार्ता, आम नागरिक भुगत रहे खामियाजा

बातचीत एक कारोबार बन गई है-इसमें शामिल लोग “इंतजार कीजिए और सब्र रखिए” के खेल में माहिर हैं

पेट्रीसिया मुखिम
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>नागालैंड के मोन जिले में प्रदर्शन करते लोग</p></div>
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नागालैंड के मोन जिले में प्रदर्शन करते लोग

फोटो - पीटीआई

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संगोष्ठियों में मानवाधिकारों पर बड़ी-बड़ी बातें करना एक आम शगल है. लेकिन असल दुनिया बहुत अमानवीय और बेदर्द है. भारत में राज्य क्रूर है और यह तब साबित हुआ, जब किसानों को एक ऐसे शख्स ने अपनी गाड़ी से कुचला, जोकि गृह राज्य मंत्री का बेटा बताया जाता है. मंत्री महोदय अब भी अपने पद पर बने हुए हैं और हत्यारे ड्राइवर के खिलाफ कार्रवाई तब शुरू की गई, जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने को कहा. फिर शनिवार को असम राइफल्स ने नागालैंड (Nagaland) में 14 नागरिकों को गोलियों से भून दिया. वे सभी कोयला खदान के मजदूर थे और पिकअप वैन से अपने घर लौट रहे थे. अर्धसैनिक बल के अनुसार, उसे इंटेलिजेंस से जानकारी मिली थी कि नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम (एनएससीएन) के खापलांग गुट के कुछ विद्रोही पड़ोसी म्यांमार सीमा से नागालैंड के मोन जिले में घुस आए थे.

AFSPA को ढाल बनाया गया है

जिसे इंटेलिजेंस कहा जाता है, वह अनइंटेलिजेंट निकली और इसके बाद जो कार्रवाई की गई, वह और बदतर थी. नियम यही कहता है कि उग्रवाद विरोधी अभियानों में शामिल राज्य बल तब तक गोलियां नहीं चलाता, जब तक कि उन पर हमला नहीं होता. वे सिर्फ अपने बचाव में ही गोलियां चलाते हैं. यह अभियान पूरी तरह गड़बड़ लगता है लेकिन इसके लिए कौन जवाबदेह होगा? नागालैंड, मणिपुर और असम में लागू आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) जैसे औपनिवेशिक कानून के चलते सशस्त्र बलों को उग्रवाद विरोधी अभियान में राज्य की पुलिस के साथ नत्थी कर दिया गया लेकिन किसी भी दशा में उन पर किसी भी किस्म की कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ढाल के रूप में आफ्स्पा के बिना, सेना किसी ‘अशांत इलाके’ में कार्रवाई करने को तैयार नहीं होगी.

अजय कुमार मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा ने जब किसानों को कुचला, तो सब तरफ लोगों ने खूब शोर मचाया. क्या पूरा देश एक साथ मिलकर 14 नागरिकों की हत्या का विरोध करेगा? या यह भी एक भूली बिसरी कहानी बन जाएगी, चूंकि यह देश के अंतिम छोर पर घटी है, वह छोर जिसके साथ सौतेला और संगदिल बर्ताव किया जा रहा है.

असम राइफल्स एक अर्ध सैनिक बल है और इसकी कमान हमेशा सेना के अधिकारियों के हाथों में होती है, जबकि यह गृह मंत्रालय के मातहत आता है. नागालैंड या मणिपुर आने वाले हर शख्स को असम राइफल्स के गेट पर यह स्लोगन देखने को मिल जाएगा- “फ्रेंड्स ऑफ हिल पीपुल” और “द सेंटिनल्स ऑफ द नॉर्थईस्ट”. लेकिन मोन जिले के ओटिंग जिले में शनिवार को जो हुआ, इसके उलट है.

और भी दुखद यह है कि यह हादसा हॉर्नबिल फेस्टिवल के दौरान हुआ. इस फेस्टिवल में हिस्सा लेने के लिए देश और दुनिया से लोग नागालैंड पहुंचते हैं. लेकिन जो लोग नागालैंड को जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि मोन राज्य के सबसे उपेक्षित जिलों में से एक है.

बेनतीजा शांति वार्ता

आम तौर पर जब दो विरोधी गुट शांति वार्ता करते हैं तो कोई भी अभियान रोक दिया जाता है. तो फिर ऐसा क्यों था कि सेना का अभियान बदस्तूर था और विद्रोही भी हथियारों के साथ घूम रहे थे? फिर हम किस किस्म की शांति वार्ता की बात कर रहे हैं? वैसे यह शांति वार्ता 24 साल से चल रही है लेकिन बेनतीजा ही है. इसका खामियाजा जो भुगत रहे हैं, और राज्य बलों और उग्रवादियों के बीच जो पिस रहे हैं, वे नागालैंड के आम लोग हैं. वे डरे-सहमे से बंदूकों के साए में जी रहे हैं.

बातचीत एक कारोबार बन गई है- खासकर इंटेलिजेंस ब्यूरो के रिटायर्ड अधिकारियों के लिए. ये लोग “इंतजार कीजिए और सब्र रखिए” के खेल में माहिर हैं. उनके पास खोने या पाने के लिए कुछ नहीं है. नागा विद्रोही संगठन फिलहाल भारत सरकार के साथ बातचीत कर रहा है - एनएससीएन (आईएम), एक चतुर अनुभवी थ मुइवा के नेतृत्व में, जो इंटेलिजेंस ब्यूरो से बेहतर माइंड गेम खेलता है, शायद इस 'एक्सट्रैक्टिव उद्योग' को खत्म करने में दिलचस्पी नहीं रखता. इसलिए, एनएससीएन (आईएम) की मांग बहुत विचित्र है- एक अलग झंडा और संविधान- यह अच्छी तरह से जानते हुए कि भारत सरकार के लिए इसे मंजूर करना मुश्किल होगा. वह जानता है कि नागाओं की बसाहट वाले कुछ हिस्से मणिपुर में हैं और मणिपुर के कई जातीय समूहों में से एक के लिए एक अलग संविधान नहीं हो सकता.

2015 के फ्रेमवर्क समझौते के बाद तथाकथित नगा शांति वार्ता शहरी रिवायत बन गई हैं. 1997 में पैदा हुए नागा अब बालिग हो गए हैं. ये नौजवान नागा इस बात पर नाराज हैं कि जो मुद्दा नागालैंड की शांति के लिए इतना अहम है, उसे मणिपुर के नागाओं ने अपनी मुट्ठी में कैद किया हुआ है.

वे नागालैंड में जारी जबरन वसूली से नाराज हैं जो नागालैंड में बेरोक टोक जारी है और वहां के कारोबारियों को परेशान कर रही है और उनके लिए अपना काम धंधा चलाना मुश्किल हो रहा है.

मोन की घटना के बाद नागालैंड की सरकार ने इंटरनेट को बंद कर दिया जोकि लोगों के गुस्से को दबाने और उस जिले में खबरों को फैलने से रोकने का सबसे आसान रास्ता माना जाता है. लेकिन इस हादसे के वीडियो कल सुबह से वायरल हो रहे हैं जिसमें असहाय लोगों पर बेरहमी से गोलियां चलाई जा रही हैं और वे अपनी जान बचाने के लिए चिल्ला रहे हैं.

इन हादसों से उग्रवाद प्रभावित राज्यों मणिपुर, नागालैंड और असम में सेना के अभियानों की यादें ताजा हो गई हैं जिन्हें “अशांत इलाकों” का तमगा दे दिया गया और इसके बाद वहां आफ्स्पा लगा दिया गया.

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उग्रवाद से निपटने वाला सैन्य बल

नागरिक इन दमनकारी, औपनिवेशिक कानूनों से परेशान रहे हैं, इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने स्पष्ट रूप से दिल्ली से अनुरोध किया कि वह पलक झपकते ही उग्रवाद को खत्म कर दे. वजह? राज्य के पुलिस बलों का हालत खराब है और वे प्रजा की नहीं, सिर्फ राजाओं की सेवा में लगे हैं. पूर्वोत्तर में हालात बदतर होते जा रहे हैं, और कानून-व्यवस्था चरमरा गई है. वैसे इस देश के लिए बेहतर होता कि आंतरिक सुरक्षा से निपटने के लिए आतंकवाद रोधी बल तैयार किया जाता, न कि ऐसी सेना पर निर्भर होना पड़ता जोकि सीमा पार के दुश्मनों से निपटने के लिए प्रशिक्षित है.

सवाल यह है कि भारत कब तक आंतरिक सुरक्षा को बरकरार रखने के लिए सेना की इस्तेमाल करेगा? क्या उग्रवाद को जारी रखने में सेना का अपना निहित स्वार्थ है? चूंकि सारे फंड्स उन्हें और इंटेलिजेंस ब्यूरो के हाथों में हैं और वे उनका जैसा इस्तेमाल करना चाहें, कर सकते हैं. इसके लिए वे किसी के प्रति जवाबदेह नहीं.

भारत की आजादी से एक दिन पहले नागा विद्रोह शुरू हो गया था. तब से सेना नागा विद्रोहियों से संघर्ष कर रही है और उनके साथ परायों जैसा व्यवहार किया जा रहा है. सेना में मेनलैंड के भारतीय हैं जिन्हें ऐसी जगह तैनात किया गया है जहां से लोग उनसे जातीय या सांस्कृतिक रूप से अलग हैं. बुजुर्गों के दिलो-दिमाग में सेना की ज्यादतियां जिंदा हैं. तब से हमने बहुत कुछ देख लिया है. नागा नौजवान दिल्ली में पढ़ाई कर रहे हैं, देश के हर कोने में काम कर रहे हैं. लेकिन क्या सेना का रवैया बदला है? क्या वे अब भी खुद को ऑक्यूपेशन फोर्स समझती है?

लोग कैसे बुरे हालात के आदी हो गए हैं

फिर से मोन जिले में असम राइफल्स के लापरवाही भरे कांड की बात करते हैं. अगर पूर्वोत्तर के सातों राज्यों के लोग मिलकर यह मांग नहीं करते कि इस इलाके में सैन्यीकरण को खत्म किया जाए तो यह आखिरी मौका होगा. मणिपुर के 33 लाख लोगों की आबादी पर पहले ही 55 हजार सुरक्षाकर्मी तैनात हैं. यह अलग बात है कि वहां लोग फिजिकल चेक्स और दूसरी तरह की दखल की आदत हो गई है, जोकि बाकी के राज्यों के लोगों को नागवार महसूस होती है. असम, नागालैंड, मिजोरम और मणिपुर को कब तक "अशांत इलाके" कहा जा सकता है जोकि आफ्स्पा की गिरफ्त में रहें?

भारतीय सेना और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दुख व्यक्त करते हुए बयान जारी किए हैं. सेना ने कोर्ट मार्शल की घोषणा की है और अमित शाह ने कहा है कि नागालैंड सरकार की एक विशेष जांच दल तफ्तीश करेगी. लेकिन ऐसी हरकतें उन लोगों के लिए बहुत आम हैं जिन्होंने मानवाधिकारों के खुलेआम उल्लंघन में अपने परिवार के सदस्यों को गंवाया है.

भारत का पूर्वोत्तर अभी भी देश के साथ भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ा है. इस पर काम जारी है लेकिन यह मनोवैज्ञानिक दूरी वे लोग नहीं समझ सकते जो दिल्ली पर राज करते हैं और केवल सैर सपाटे के लिए इस क्षेत्र में आते हैं. प्रधानमंत्री मोदी पूर्वोत्तर राज्यों को भारत के ताज का नगीना बताते हैं, और निष्पक्ष रूप से कहा जा सकता है कि बुनियादी ढांचे के निर्माण में तेजी लाने के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार द्वारा बहुत काम किया गया है. लेकिन समस्या यह है कि इन राज्यों पर शासन करने वालों ने इस अलगाव की भावना का इस्तेमाल लगातार केंद्र सरकारों को ब्लैकमेल करने के लिए किया है, और धन मुहैय्या कराने के बावजूद विकास का कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिलता है.

रोजगार सृजन संभव नहीं है क्योंकि निवेशकों के लिए असुरक्षा के माहौल के कारण औद्योगीकरण नहीं हुआ. केंद्र निगरानी और मूल्यांकन नहीं करता है कि पैसा कैसे खर्च किया जाता है. उनमें से अधिकांश पैसा उग्रवादियों और शासन करने वाले ट्राइबल इलीट के खजानों में पहुंच जाता है. यह एक कड़वी सच्चाई है.

पूर्वोत्तर के लोगों को अपनी आवाज फिर से उठानी होगी और अफ्सपा को खत्म करने और क्षेत्र में सजा मुक्ति के माहौल को खत्म करने की मांग करनी होगी. यह मांग कायम रहनी चाहिए और इतिहास के पन्नों में दफन नहीं होनी चाहिए. क्या हम फिर किसी हत्या का इंतजार करते रहेंगे, क्या तब तक इंतजार करेंगे जब तक इज्जत से जिंदगी जीने के अधिकार का फिर से उल्लंघन हो? अफस्पा को जाना ही होगा.

(लेखक शिलॉन्ग टाइम्स की संपादक हैं और एनएसएबी की पूर्व सदस्य रह चुकी हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @meipat है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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