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5 अगस्त 2019 की सुबह 11 बजकर 15 मिनट. गृह मंत्री अमित शाह के उस वीडियो को देखने में मैं डूबा हुआ था, जिसमें वह राज्यसभा में जम्मू-कश्मीर में आर्टिकल 370 को खत्म करने की घोषणा कर रहे थे. मैं इस ऐलान को सुनकर स्तब्ध रह गया. मेरे आसपास खड़े पत्रकार जल्दी में थे. वे ऊंची आवाज में बात कर रहे थे, जो मिलकर बहुत दूर से आती खोखली ध्वनियों में बदल गई थी. उनमें से हरेक फैसले का या तो समर्थन कर रहा था या विरोध.
इसलिए मैं चार दशकों की उथलपुथल मचाने वाली राजनीतिक घटनाओं को अपने दिमाग में ढूंढने लगा (मैंने यहां ‘उथलपुथल’ शब्द का जिक्र इन घटनाओं के दायरे और असर को बताने के लिए किया है, इसे अन्यथा न लिया जाए.)
16 दिसंबर 1971: मैं 11 साल का था. मुझे ठीक से याद नहीं है कि उस दिन मैं कहां था या क्या कर रहा था. लेकिन मुझे ढाका में जनरल अमीर अब्दुल्ला नियाजी के 90 हजार पाकिस्तानी सैनिकों के साथ सरेंडर करने के बाद का उन्मादी माहौल याद है. भारत ने तब बांग्लादेश को आजादी दिलाई थी और पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट दिया था. देश में लोग सड़कों पर नाच और खुशी से झूम रहे थे (और हां, लड्डू भी बंटे थे). प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी लोकप्रियता के शिखर पर थीं. उस दौर का एक सच और था, जिस पर परदा पड़ गया था. सरकार के कीमतों को नियंत्रित करने से अर्थव्यवस्था तबाह हो गई थी. बड़े पैमाने पर लोग बेरोजगार हुए थे. वह राष्ट्रीयकरण और जड़ता का दौर था. इसके तीन साल बाद जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा के जनादेश (यहां जोर मेरा है) को मसल दिया और पूरे देश को जैसे लकवा मार गया. तब मुझे अहसास हुआ कि जब इकनॉमी डूब रही हो, तो राजनीतिक उन्माद कैसे हवा हो जाता है.
6 जून 1984: मेरी उम्र 20 साल से कुछ बरस ऊपर होगी. दोपहर का वक्त था. मैंने दिल्ली के नेहरू प्लेस में अभी कोबोल की क्लास खत्म ही की थी कि एक आवाज गूंजी. मध्यम आयु के एक जोशीले शख्स ने मेरा कंधा पकड़ा और चिल्लाए, ‘ओए, मार दित्ता भिंडरवाले नू’- वह खूंखार आतंकवादी जरनैल सिंह भिंडरावाले का जिक्र कर रहे थे, जो अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में छिपा हुआ था. भिंडरावाले सेना के ऑपरेशन ब्लू स्टार में मारा गया था. इस खबर का पूरा देश जश्न मना रहा था. लगा कि वह जश्न कभी खतम ही नहीं होगा. इस घटना के पांच महीने भी नहीं हुए थे कि इंदिरा की उनके ही अंगरक्षकों ने गोली मारकर हत्या कर दी. उन लोगों को पूर्व प्रधानमंत्री का हिंसक तरीका (जोर मेरा है) मंजूर नहीं था. इसके बाद उत्तर भारत में हुए दंगों में हजारों निर्दोष सिख मारे गए.
6 दिसंबर 1992: मैं तब मुंबई (नहीं, बॉम्बे) के बांद्रा इलाके में अपनी बहन के अपार्टमेंट में था. दोपहर ढल रही थी, तभी बीबीसी वर्ल्ड ने ऐलान किया कि ‘अयोध्या में बाबरी मस्जिद करीब-करीब ढहा दी गई है’, लेकिन भारतीय मीडिया ने चुप्पी ओढ़ रखी थी. पूरे देश में तनाव का माहौल था. सुरक्षा बल अपनी छावनियों में क्यों थे? हिंसा पर उतारू भीड़ को काबू में करने के लिए उन्हें क्यों तैनात नहीं किया गया था? जो अपराधी देश के संवैधानिक धागे को तार-तार कर रहे थे,उन्हें रोका क्यों नहीं जा रहा था? क्या सरकार की उन अपराधियों से मिलीभगत थी? प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने खुद को पूजा रूम में बंद कर लिया था. उनसे संपर्क नहीं किया जा सकता था. वह निर्णय नहीं ले पा रहे थे. आखिरकार उनकी नैतिकता (यहां जोर मेरा है) पर सवाल उठे. शायद राव को लगा हो कि ऐसा करने से उन्हें बहुसंख्यक हिंदुओं का वोट मिल जाएगा, लेकिन उन्होंने मुसलमानों का भरोसा गंवाया और उत्तर प्रदेश से पार्टी का सफाया हो गया.
मैंने जान-बूझकर इन तीन खलबली मचाने वाली घटनाओं को चुना है (और 1975 की इमरजेंसी या मई 1998 के परमाणु परीक्षण जैसी घटनाओं को शामिल नहीं किया) क्योंकि इनसे इसके संकेत मिलते हैं कि जम्मू-कश्मीर मामले का प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर क्या असर हो सकता है.
मैं उन लोगों से कतई सहमत नहीं हूं, जो मोदी और शाह पर राजनीतिक धोखेबाजी का आरोप लगा रहे हैं. बीजेपी दशकों से एक के बाद एक घोषणापत्रों में कहती आई है कि जनादेश मिलने पर वह आर्टिकल 370 को हटा देगी. मई 2019 के चुनाव में पार्टी ने लोकतांत्रिक तरीके से भारी जनमत हासिल किया, इसलिए उसके पास इस नए कानून को बनाने का मैंडेट यानी जनादेश था. इस पर चर्चा यहीं खत्म हो जानी चाहिए.
बेशक, इसके लिए जो मेथड चुना गया, उस पर बहस हो सकती है. पहली नजर में सरकार का कदम अर्ध-संवैधानिक (क्योंकि मैं माननीय जज नहीं हूं, मेरे अंदर इसे असंवैधानिक कहने को लेकर हिचक है) लगता है. पहले जम्मू-कश्मीर विधानसभा को भंग करना, उसके बाद सारी शक्ति चुने हुए राज्यपाल के हाथों में देना, उसके बाद गढ़ी हुई और अहंकारी सत्ता का इस्तेमाल अपने कदमों को सही ठहराने के लिए करना- इन्हें देखकर पहली नजर में तो यही लगता है कि मोदी-शाह सरकार ने जज, ज्यूरी और एग्जीक्यूशनर तीनों की भूमिका खुद ही निभाई. इसलिए या तो उनके मेथड को खराब/गोपनीय या असैद्धांतिक/फर्जीवाड़ा कहा जा सकता है.
अब इस फैसले की मोरैलिटी यानी नैतिकता पर आते हैं. इस मामले में मोदी-शाह सरकार फिसलन भरी राह पर दिख रही है. एक राज्य की समूची आबादी को उनके घरों में कैद कर दिया गया, नेताओं को हिरासत में लिया गया, कम्युनिकेशन और मोबिलिटी रोक दी गई और पूरे राज्य को जूतों तले दबा दिया गया- और उसके बाद कब्रगाह जैसे सन्नाटे में सरकार ने ऐसा कानून पास किया (संविधान के तहत यह काम किया गया), जो जनता से आदेश मिलने के बाद ही किया जाना चाहिए. यह सोचना भी खतरनाक है कि यह काम राजनीतिक मर्यादा के तहत किया गया. अगर आप ऐसा करते हैं तो आप सच से मुंह चुरा रहे हैं.
इसका अंदाजा लगाना असंभव है. इसका जवाब कई सवालों पर निर्भर करता है, जिनका अंदाजा अभी नहीं लगाया जा सकता:
अभी इन सवालों के जवाब पता नहीं हैं या उनका अनुमान नहीं लगाया जा सकता, इसलिए हमें ना ही इस फैसले का जश्न मनाना चाहिए और न ही निराशा में डूबना ठीक होगा.
और इसके साथ यह प्रार्थना भी करिए- सबको सन्मति दे भगवान.
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Published: 07 Aug 2019,04:40 PM IST