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प्रधानमंत्री मोदी (PM Modi) की अमेरिका की यात्रा (US Visit) में उस नाटकीय स्वाद की कमी है जो इससे पहले की यात्राओं में हुआ करती थी.
शायद, ये सब बेहतरी के लिए है, तभी भारत-अमेरिका संबंधों, अफगानिस्तान, क्वाड और संयुक्त राष्ट्र जैसे व्यावहारिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया होगा. हालांकि, इस यात्रा की कवरेज टीवी पर ओवर-द-टॉप बनी हुई है.
दरअसल, 2020 की परिस्थितियों को छोड़कर, संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के दौरान पीएम के लिए अमेरिका की यात्रा लगभग रूटीन का हिस्सा थी. इस बार ये बोनस है जैसा कि वाशिंगटन में राष्ट्रपति बिडेन और उपराष्ट्रपति कमला के साथ व्यक्तिगत मीटिंग, साथ ही पहला व्यक्तिगत रूप से क्वाड शिखर सम्मेलन.
अपनी आधिकारिक बैठक से पहले उद्घाटन भाषण देते हुए राष्ट्रपति बाइडेन के बगल में बैठे, मोदी की बॉडी लैंग्वेज और डिलेवरी संयमित दिखाई दी और किसी भी तरह की अनौपचारिकता का कोई प्रयास नहीं किया गया. बिडेन की थोड़ी बहुत प्रशंसा हुई, लेकिन बाद में उनकी ओर से भी इसपर ज्यादा कुछ प्रतिक्रिया नहीं आई.
मजे की बात ये थी कि अमेरिकी नेता ने अपने बयान को क्यू कार्ड्स से पढ़ा, जबकि मोदी ने तेज आवाज में बात की. ये केवल बिडेन की उम्र के बारे में नहीं था, लेकिन शायद भारत से संबंधित मुद्दों पर उनकी कम जानकारी और नई दिल्ली को कम महत्व दिए जाने का संकेत देती है.
भारतीय पक्ष की ओर से, जैसा कि मोदी की टिप्पणियों से संकेत मिलता है, टेक्नोलॉजी और व्यापार भागीदार बनने की भारत की इच्छा पर बड़ा ध्यान केंद्रित किया गया था. मोदी ने उम्मीद जताई कि आने वाले दशक में संबंधों में ये एक प्रमुख कारक होगा.
विदेश सचिव हर्ष श्रृंगला की ब्रीफिंग को देखते हुए कोई सोच सकता है कि पाकिस्तान इस यात्रा का केंद्र बिंदु था. साफ तौर पर, नई दिल्ली इस्लामाबाद को रोकने की कोशिश कर रही है क्योंकि इसने अमेरिका से पैसा खसोटने के लिए काबुल का कंधा पकड़ा हुआ है.
24 सितंबर को हैरिस-मोदी की बैठक के बाद मीडिया से बात करते हुए, श्रृंगला ने आतंकवाद में पाकिस्तान की भूमिका और इस्लामाबाद की खुद की जांच की आवश्यकता के मुद्दे को उठाते हुए हैरिस के लिए दिलचस्प शब्द का इस्तेमाल किया.
लेकिन वाक्य पर करीब से नजर डालने पर एक अलग बारीकियों का पता चलता है: "वह सीमा पार आतंकवाद के फैक्ट पर प्रधान मंत्री की ब्रीफिंग से सहमत थी और इससे भी कि भारत आतंकवाद का शिकार रहा है.."
लेकिन इस्लामाबाद काबुल में स्थिति पर नियंत्रण पाने की कोशिश में लगा हुआ है और अगर यह कामयाब हो जाता है, तो आप सुनिश्चित हो सकते हैं कि वाशिंगटन फिर से दस्तक देगा. इस मोड़ पर अफगानिस्तान को स्थिर करने से निपटने में अमेरिका और भारत दोनों को पाकिस्तान, चीन, रूस और ईरान के समूह से बाहर रखा गया है.
अमेरिका शायद खुद से बाहर रह रहा है लेकिन हमारा क्षेत्रीय मामला होने के चलते स्थिति निश्चित रूप से नई दिल्ली को परेशान करती है.
अफगानिस्तान में अपने जख्मों को दबाते हुए अमेरिका अब इंडो-पैसिफिक पर फोकस कर रहा है. AUKUS समझौते के तख्तापलट के बाद, वाशिंगटन क्वाड को किनारे करने की कोशिश कर रहा है. पहले इन-पर्सन क्वाड शिखर सम्मेलन में अपनी टिप्पणी में बिडेन ने "लोकतांत्रिक भागीदार", "हमारे युग की प्रमुख चुनौतियों, COVID से जलवायु से लेकर उभरती टेक्नोलॉजी तक" के सामान्य दृष्टिकोण को दोहराया.
उन्होंने बताया कि महामारी की विनाशकारी दूसरी लहर झेलने के बाद भारत में एक्स्ट्रा 1 बिलियन खुराक का उत्पादन करने के लिए वैक्सीन वापस पटरी पर आ गई थी. मोदी ने वैक्सीन की स्थिति के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं दी लेकिन उम्मीद जताई कि इससे इंडो-पैसिफिक समुदाय को मदद मिलेगी.
साफ तौर पर चारों नेताओं ने अपनी टिप्पणी में क्वाड की COVID-19, जलवायु परिवर्तन, उभरती टेक्नोलॉजी, इंफ्रास्ट्रक्चर, स्वच्छ ऊर्जा, साइंस और टेक्नोलॉजी में लोगों से लोगों के आदान-प्रदान और कठिन सैन्य मुद्दों जैसी चुनौतियों का जिक्र किया.
लेकिन क्वाड के महत्व से इसे अलग नहीं होना चाहिए क्योंकि सैन्य पहलू चीन की चुनौती का केवल एक हिस्सा है. अन्य क्षेत्र यदि अधिक महत्वपूर्ण नहीं हैं तो कम से कम समान रूप से हैं.
कई लोगों ने 24 सितंबर को हैरिस द्वारा "दुनिया भर के लोकतंत्र "जो खतरे में हैं" और "हमारे संबंधित देशों के भीतर लोकतांत्रिक सिद्धांतों और संस्थानों की रक्षा" की आवश्यकता के बारे में जो कहा गया उसे मोदी के लिए एक कटाक्ष के रूप में की गई टिप्पणी में देखा है.
दूसरी ओर मोदी और भारतीय अधिकारियों ने भारत के यूएस कनेक्ट पर जोर देने के लिए "लोकतांत्रिक" कनेक्शन का उपयोग करने की मांग की है और इसे महात्मा गांधी के प्रभावशाली संदर्भों के साथ रेखांकित किया है जिनका अमेरिका में गहरा सम्मान है.
सभी ने कहा, लोकतांत्रिक मूल्यों के मुद्दे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं किया जाना चाहिए. आखिरकार, अमेरिका ने अपने सबसे पुराने लोकतांत्रिक सहयोगी फ्रांस को पीछे धकेलते हुए उनमें कोई विशेष गुण नहीं देखा, क्योंकि यह माना जाता था कि उसके राष्ट्रीय हितों ने इंडो पैसिफिक में इसकी मांग की थी.
ये अमेरिकी नीति के एक नए युग की शुरुआत हैं जहां राष्ट्रीय हित या उनके बारे में अमेरिकी सोच सबसे पहली प्राथमिकता है. वाशिंगटन की परोपकारी शैली को अलग रखा गया है क्योंकि ये सोवियत संघ के पतन के बाद से अपने वैश्विक दबदबे के लिए सबसे बड़ी चुनौती का सामना कर रहा है.
ये सब ऐसे समय में आया है जब मई में एक रायटर पोल के अनुसार विपक्षी रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत का मानना है कि ट्रम्प 2020 के चुनाव के असली विजेता हैं. लोकतंत्र सिर्फ भारत, ब्राजील या तुर्की में ही नहीं बल्कि अमेरिका में भी खतरे में है.
मोदी और जयशंकर शायद स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ हैं. चीन सहित दुनिया के सभी देशों की तरह भारत भी जानता है कि अब तक अंकल सैम अपनी सैन्य, तकनीकी और सॉफ्ट पावर के मामले में दुनिया के प्रमुख खिलाड़ी बने हुए हैं. उनका आशीर्वाद प्राप्त करना उनके समय के लायक है जबकि उन्हें पार करना खतरनाक साबित हो सकता है.
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली के प्रतिष्ठित फेलो हैं. यह एक राय है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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Published: 26 Sep 2021,02:31 PM IST