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बुद्धिजीवियों के प्रति पुराना है पीएम मोदी का अक्खड़ रवैया

पीएम मोदी को याद रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री को बुद्धिजीवियों के प्रति अदावत नहीं रखनी चाहिए

टीसीए श्रीनिवास राघवन
नजरिया
Published:
पीएम मोदी को याद रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री को बुद्धिजीवियों के प्रति बैर नहीं रखना चाहिए
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पीएम मोदी को याद रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री को बुद्धिजीवियों के प्रति बैर नहीं रखना चाहिए
(फोटोः PTI)

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एग्जिट पोल आ चुके हैं. वे नरेंद्र मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने का संकेत दे रहे हैं. मोदी को दूसरे कार्यकाल में कई काम करने होंगे. इनकी प्राथमिकता तय करना आसान नहीं है, लेकिन एक काम तो उन्हें इस बार जरूर करना चाहिए. मोदी को इंटेलेक्चुअल्स यानी बुद्धिजीवियों से संवाद स्थापित करना होगा. बुद्धिजीवियों को इंप्रैक्टिकल बताकर खारिज करना ठीक नहीं है. मोदी के मन में इन लोगों के प्रति पूर्वाग्रह गहरी जड़ें जमा चुका है. उन्हें लगता है कि वे सभी लेफ्ट खेमे के हैं.

यहां मैं बीजेपी और इंटेलेक्ट पर अपने तजुर्बे का जिक्र करना चाहूंगा. 1996 में मैंने एक अखबार में लेख लिखा था, जिसमें मैंने कहा था कि बीजेपी में बुद्धिजीवियों की जगह नहीं है. इसके बावजूद पार्टी कई बुद्धिजीवियों के समर्थन को लेकर आश्वस्त हो सकती है.

अगले दिन बीजेपी की तरफ भारी झुकाव रखने वाले एक दोस्त (अब वह सांसद हैं) का फोन आया. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं पार्टी की सदस्यता लेना चाहता हूं? मैंने उनके प्रति आभार जताते हुए इससे इनकार कर दिया. समय गुजरता गया. इस बीच अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी की तीन सरकारें बनीं और चली गईं. उसके बाद मनमोहन सिंह ने दो सरकारों का नेतृत्व किया. दोनों ही पूर्व प्रधानमंत्री बुद्धिजीवी थे.

उसके बाद 2009 में मैंने हिंदू बिजनेस लाइन नाम के अंग्रेजी अखबार में एक लेख लिखा. तब मैं उसी अखबार में नौकरी कर रहा था. इस लेख में मैंने नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल की तारीफ की थी. इसके बाद मेरे पास मोदीजी का फोन आया. उन्होंने कहा, ‘अगर आपका कभी अहमदाबाद आना हो तो मुझसे जरूर मिलें.’
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मोदी काअक्खड़ रवैया

साल 2010 में मेरा अहमदाबाद जाना हुआ. मैं वहां अपने कजिन के पास उनके 120 साल पुराने एसबीआई हाउस को देखने गया था. मैंने वहां मोदी के ऑफिस में फोन किया और मुझे उनसे मिलने के लिए बुलाया गया. मोदी अपने आवास पर मुझसे मिले और करीब एक घंटे तक इधर-उधर की बातें होती रहीं. मैंने मौका देखकर उनसे बुद्धिजीवियों के साथ संवाद कायम करने की बात कही.

मेरी इस बात में जब उन्होंने दिलचस्पी नहीं दिखाई, तो मैंने दोबारा इसका जिक्र किया. लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ. मई 2013 में हिंदू बिजनेस लाइन के दो सहकर्मियों के साथ मैं उनसे फिर मिला. तब तक उन्हें बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनाव के लिए प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किया था. मैंने इस बार भी तीन साल पहले कही गई अपनी बात दोहराई. फिर भी उन्होंने मेरी बात का नोटिस नहीं लिया. मैंने उनसे यह तक कहा कि सरकार के लिए बुद्धिजीवी वैसे ही होते हैं, जैसे दुल्हन के लिए गहना.

मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके इस रवैये के परिणाम दिखने शुरू हो गए. उनकी सरकार का कई बुद्धिजीवियों से टकराव हुआ. इनमें से एक मुद्दा कम योग्यता रखने वालों को शैक्षणिक संस्थानों का प्रमुख बनाए जाने का भी था.

जेएनयू के मौजूदा वाइस चांसलर असल में इंजीनियर हैं. जिस सोशल साइंस के लिए यूनिवर्सिटी मशहूर है, उन्हें उसकी समझ नहीं है. हाल यह है कि जेएनयू के वाइस चांसलर ने यूनिवर्सिटी में एक इंजीनियरिंग स्कूल खोल दिया है, जिसके लिए ना ही कोई फंडिंग दी गई है और न ही फैकल्टी है. छात्रों का इस कोर्स में दाखिला हो रहा है, जबकि उसके लिए कोई बिल्डिंग तक नहीं है.

वैसे, इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है क्योंकि मोदी सरकार की पहली शिक्षा मंत्री ने सिर्फ 12वीं क्लास तक की औपचारिक शिक्षा ली थी. विकिपीडिया के मुताबिक, यह डिग्री उन्हें दिल्ली में स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग से मिली थी. मोदी के पास भी ऐसी ही डिग्री है और इसका नतीजा सबके सामने है.

सरकार बनने के बाद शिक्षण संस्थानों को किया टारगेट

अजीब बात यह है कि बीजेपी और आरएसएस में बहुत पढ़े-लिखे लोग भी हैं, लेकिन बात जब नीतियों पर सलाह लेने की होती है तो मोदी उन्हें इग्नोर कर देते हैं. सरकार में उच्चस्तर पर नियुक्तियों की बात हो तो अच्छे एजुकेशनल बैकग्राउंड और एडवांस डिग्री रखने वाले अरुण जेटली, निर्मला सीतारमण, बिबेक देबरॉय और राजीव कुमार जैसे गिने-चुने लोग ही हैं.

उच्च शिक्षा पा चुके लोगों के प्रति मोदी में एक पूर्वाग्रह साफ दिखता है. मैं उम्मीद करता हूं कि अपने दूसरे कार्यकाल में वह बुद्धिजीवियों को लेकर अलग रुख अपनाएंगे. उन्हें याद रखना चाहिए कि प्रधानमंत्री तो प्रधानमंत्री होते हैं, उन्हें किसी भी नागरिक समूह के प्रति अदावत नहीं रखनी चाहिए. बुद्धिजीवियों के प्रति तो बिल्कुल भी नहीं.

(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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