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एक प्रतिष्ठित हाइपोकोड्रिआक (जिसे बीमार होने का हमेशा डर लगता हो) और पैरानॉयड जर्मोफोब (कीटाणुओं से हद से ज्यादा डरने वाला) होने के कारण जैसे ही नोवल कोरोना वारयस भारत में आया, मैंने न्यूज पेपर लेना बंद कर दिया. लेकिन फिर एक ऐसा दिन आया जब मुझसे दूध से भरा जग नीचे गिर गया और दूध साफ करने के लिए घर में न्यूज पेपर का एक पेज भी नहीं था.
मैंने अपने न्यूज पेपर देने वाले को फिर से पेपर देना शुरू करने को कहा लेकिन कोविड के दौर के पहले जो मैं पांच न्यूज पेपर लेता था उसकी जगह सिर्फ एक. मुझे इस बात को लेकर हैरानी हुई कि भारत के प्रमुख न्यूज पेपर का वजन कितना हल्का हो गया था. इसके पास ज्यादा विज्ञापन नहीं थे.
अगर नई रिपोर्ट पर भरोसा किया जाए तो ई-कॉमर्स कंपनियों के लोगों ने अपना पैसा अच्छे से खर्च किया है. त्योहारों पर बिक्री काफी बढ़ गई है. एमजॉन और फ्लिपकार्ट का कहना है कि अब तक उनकी बिक्री उम्मीद से काफी ज्यादा है.
बेशक, अभी जो मांग है वो पिछले काफी समय से रुकी हुई थी. लॉकडाउन की पाबंदियों के कारण लोग कई महीने तक पैसे खर्च नहीं कर सके. कुछ लोगों ने त्योहारों पर मिलने वाली छूट का फायदा उठाने के लिए इंतजार किया. लेकिन इतनी बड़ी मात्रा में खरीदारी बताती है कि लोगों को अपने भविष्य को लेकर थोड़ा भरोसा होने लगा है.
कारों और दो-पहिया वाहनों की बिक्री में भारी इजाफा इस बात का भी संकेत है कि ज्यादातर ग्राहक अपने दफ्तर और दुकानों में जाने की तैयारी कर रहे हैं. इसके पीछे दो मुख्य कारण हैं.
ओला, उबर जैसी यात्रा देने वाली कंपनियों के व्यवसाय में जहां कमी आई है और डिजायर टूअर और इनोवा जैसी मॉडल की बिक्री में काफी कमी आई है वहीं लोगों के खुद कार और बाइक चलाकर आने-जाने से पेट्रोल की बिक्री बढ़ी है. सितंबर में पेट्रोल की बिक्री 2019 के मुकाबले 3 फीसदी बढ़ी है और यहां तक कि डीजल की बिक्री भी अक्टूबर के पहले 15 दिनों में 9 फीसदी बढ़ गई है.
ग्राहकों के भरोसे में सुधार का एक प्रमुख कारण ये लगना है कि भारत में कोविड संक्रमण अपने पीक (चरम) को पार कर चुका है. हर दिन नए मामलों और मौतों की संख्या घटती जा रही है, हालांकि विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि त्योहारों के दौरान कुछ समय के लिए मामले बढ़ सकते हैं. ज्यादातर लोगों ने अब इस बात को मान लिया है कि कोरोना वायरस इतनी जल्दी जाने वाला नहीं है और इसके साथ जीने की आदत बनानी होगी.
जिसने भी दो करोड़ तक का लोन लिया था और समय पर ईएमआई नहीं चुका सका, सरकार उसके बदले ब्याज चुकाएगी. सरकारी कर्मचारी अपने लीव ट्रेवल एलाउंस को नकद में भुना सकेंगे जब तक कि वो इसके तीन गुना पैसों का इस्तेमाल उन सामानों को खरीदने में करें, जिस पर 12 फीसदी जीएसटी लगता है.
आर्थिक शांति के लिए मोदी सरकार ने जो सबसे बड़ा कदम उठाया है वो जीएसटी को लेकर है. कई हफ्तों तक इनकार के बाद केंद्र सरकार जीएसटी मुआवजा में कमी का पैसा चुकाने के लिए राज्यों की ओर से 1.1 लाख करोड़ रुपये का कर्ज लेने को तैयार हो गई है. इससे ये सुनिश्चित होगा की पूरा लोन एक ही ब्याज दर पर लिया जा सकेगा और क्रेडिट मार्केट में केंद्र सरकार की अहमियत ज्यादा होने के कारण ब्याज दर भी कम रहने की संभावना है.
हालांकि, ये सभी अब भी आधे-अधूरे कदम हैं. लीव ट्रेवल एलाउंस का मामला ही लीजिए. सरकार की ये शर्त कि फायदा पाने के लिए टिकट की कीमत का तीन गुना खर्च करना जरूरी होगा, इसके कारण ज्यादा लोग इसका फायदा नहीं उठा सकेंगे. कर्मचारियों को खर्च पर बिना किसी शर्त के अपने एलटीए और छुट्टियों के बदले पैसे लेने की छूट मिलनी चाहिए थी. आलोचकों का कहना है कि ये कुछ भी नहीं बल्कि बड़े टिकाऊ सामान बनाने वाली कंपनियों को दी जाने वाली एक तरह से छिपी हुई सब्सिडी है, खासकर जब पैसा उन चीजों पर ही खर्च करना है जिन पर जीएसटी लगता है.
चूंकि सरकारी कर्मचारियों के वेतन में संशोधन में लंबा समय लगता है इसलिए उन्हें महंगाई भत्ता या महंगाई से जुड़ी वृद्धि का भुगतान किया जाता है जिससे उनकी आय में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं होने पर भी उनकी वास्तविक आय कम न हो. इस साल मोदी सरकार ने महंगाई भत्ते को 17 से बढ़ाकर 21 फीसदी करने का ऐलान किया था लेकिन बाद में वो इससे पीछे हट गई. इससे सरकारी कर्मचारियों को काफी नुकसान हुआ है खासकर पिछले कुछ महीनों में खुदरा महंगाई दर के काफी बढ़ने के कारण.
यह एक बड़ा कारण है कि जीएसटी को लेकर राज्य सरकारें इतनी लड़ाई लड़ रही हैं. एक देश एक टैक्स लागू होने के बाद से राज्य सरकारों के पास केवल ईंधन, शराब और जमीन पर ही टैक्स लगाने का अधिकार रह गया है. लॉकडाउन का असर इन तीनों चीजों पर पड़ा है. अप्रैल से अब तक शराब की बिक्री करीब 60 फीसदी घट गई है. इस वित्तीय वर्ष की पहली छमाही में पेट्रोल की खपत 21 फीसदी और डीजल की खपत 25 फीसदी कम रही है.
इसका मतलब ये है कि राज्यों को अपने बजट को बनाए रखने में सक्षम होने के लिए जीएसटी बकाए के पूरे पैसों की जरूरत है. यहां तक कि, उनकी ओर से उधार लेने का केंद्र का प्रस्ताव केवल आधी समस्या को हल करता है. सरकार के अनुमानों के मुताबिक इस वित्तीय वर्ष में जीएसटी कलेक्शन में करीब तीन लाख करोड़ रुपये की कमी का अनुमान है.
ये एक खतरनाक रवैया है जिसका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर पड़ेगा. कट्टर नियोलिबरल्स (नव उदारवादियों) को छोड़कर अब इस बात पर व्यापक सहमति है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार का एक मात्र तरीका ये है कि सरकार ज्यादा से ज्यादा खर्च करे. मोदी सरकार पहले ही दिखा चुकी है कि वित्तीय प्रोत्साहन देने के मामले में वो बहुत ही सोच-विचारकर चल रही है. जीएसटी व्यवस्था के तहत राज्यों को जो वादा किया गया था, वो नहीं देकर केंद्र सरकार ज्यादा खर्च करने के मामले में राज्य सरकारों के हाथ बांध रही है.
संकोच भरे, आधे-अधूरे मन से खर्च करने के कदमों से काम नहीं चलेगा. हमें मिल-जुलकर एक कोशिश करने की जरूरत है जिसमें केंद्र सरकार सभी स्टेक होल्डर -राज्य सरकारों, कॉरपोरेट कंपनियों, किसान और मजदूर यूनियनों, कर्मचारी संघ, ग्राहक समूहों- को मंदी से निपटने के लिए एक योजना के साथ समान भागीदार बनाती है. इसका मतलब है सबसे बड़े आलोचकों को गले लगाना और उनसे उनके सबसे अच्छे विचार लेना. आखिरकार असली स्टेट्समैनशिप यही होती है.
(लेखक एनडीटीवी इंडिया और एनडीटीवी प्रॉफिट के सीनियर मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं. वह इन दिनों स्वतंत्र तौर पर यूट्यूब चैनल देसी डेमोक्रेसी चला रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडल @AunindyoC है. यह एक ओपनियन लेख है, इसमें लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 20 Oct 2020,03:00 PM IST