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क्या ऐसा कहना भारत को बदनाम करता है कि भारतीय समाज में जेंडर वायलेंस एक वास्तविक समस्या है, जिस पर ध्यान देने और बदलाव की जरूरत है? भारत के राष्ट्रीय महिला आयोग (National Women Commission) (एक वैधानिक संस्था जो महिलाओं से जुड़े नीतिगत मामलों पर सरकार को सलाह देता है) की चेयरपर्सन रेखा शर्मा का यही कहना है.
झारखंड के दुमका में एक स्पेनिश महिला से गैंग रेप (gangrape of a Spanish woman) की घटना पर अमेरिकी लेखक और पत्रकार डेविड जोसेफ वोलोडजको ने सोशल मीडिया 'एक्स' पर एक पोस्ट में कहा कि भारत जाने वाली महिलाओं के खिलाफ बड़े पैमाने पर यौन हिंसा “भारतीय समाज में वास्तविक समस्या” है.’'
उन्होंने यह कहा कि भारत “दुनिया में उनकी पसंदीदा जगहों’’ में से एक है, इसके बावजूद उन्होंने अपनी महिला मित्रों को “अकेले भारत की यात्रा नहीं करने’’ की सलाह दी.
इस पोस्ट पर नाराजगी जताते हुए रेखा शर्मा ने पोस्ट लिखा, “क्या आपने कभी पुलिस को घटना की खबर दी? अगर नहीं तो आप पूरी तरह से एक गैरजिम्मेदार शख्स हैं. सिर्फ सोशल मीडिया पर लिखना और पूरे देश को बदनाम करना अच्छी बात नहीं है."
अगर मैं एक भारतीय के रूप में कहती हूं कि नस्लवाद या गन वायलेंस “अमेरिकी समाज में एक वास्तविक समस्या है” तो क्या इससे अमेरिका की बदनामी होती है? अगर नहीं, तो दूसरे देशों की महिलाओं के लिए यह कहना अपमानजनक या नस्लवादी क्यों माना जाना चाहिए कि वे भारत में यात्रा करने में सुरक्षित नहीं हैं?
रेखा शर्मा ने न तो स्पेन की उस महिला के लिए और न ही वोलोड्जको की बताई उन महिलाओं के लिए जर्रा भर भी हमदर्दी जताई. और उनकी सच्चाई को नकारने में असल में वह हमारी सच्चाई को भी नकार रही हैं; अपनी शिकायत में भारत को बदनाम करने का इल्जाम लगाते हुए वह हम भारतीय महिलाओं पर भी वैसा ही इल्जाम लगा रही हैं.
वोलोड्जको का कहना है कि वह भारत आने वाली ऐसी एक भी महिला से नहीं मिले हैं, जिसने “छेड़खानी, हमले या इससे भी बदतर” हालात का सामना न किया हो और मेरा यही कहना है कि भारतीय महिलाएं भी इससे सहमत होंगी. लेकिन मुझे लगता है कि छेड़खानी और हमले के मामले भारत में होना इसे और बदतर बना देता है.
भारत में, ज्यादातर महिलाओं को घर से (और अगर वे स्टूडेंट या वर्कर हैं तो हॉस्टल से) बाहर जाने जाने के लिए जिम्मेदारों से एक तरह की “इजाजत” लेने की जरूरत होती है. महिलाओं से उम्मीद की जाती है कि वे पब्लिक प्लेस पर अकेले, दूसरी महिलाओं के साथ, या पुरुषों के साथ जाने की एक जायज वजह बताएं.
और अक्सर कोई भी वजह काफी नहीं मानी जाती है: ताजा राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) में पाया गया कि तकरीबन 60 फीसद महिलाओं, खासकर जवान महिलाओं को अकेले और निगरानी के बिना घर से बाहर जाने की इजाजत नहीं मिलती है, यहां तक कि मार्केट जाने या बीमारी में दवा लेने जाने की भी इजाजत नहीं मिलती. ऐसे देश में, एक महिला ट्रैवलर को, अपने निर्बाध सफर से, फटाफट सामाजिक नियमों को तोड़ने वाली मान लिया जाता है, और पुरुष और महिलाएं दोनों ही उसे तारीफ या नफरत की नजर से या दोनों तरह से देखते हैं.
दूसरी ओर एक ऐसी महिला की कल्पना कीजिए जो ज्यादा लोकतांत्रिक संस्कृति में पली-बढ़ी है जहां प्राइवेसी उसके लिए एकदम सहज बात है. वह भारत आती है, परंपरागत कपड़े पहनने और समाज के कायदों का ख्याल रखने के लिए सतर्क रहती है. मगर इस सब के बावजूद उसे बॉडी लैंग्वेज को भी छिपाना था: साफ है कि उसे इस बात की जानकारी नहीं थी कि उस पर निगरानी रखी जा रही थी और उसे परखा जा रहा था.
भारतीय महिला बिंदास रहना चाहती है, हालांकि, साफ तौर पर जानती है कि उससे दास (गुलाम) बनने की उम्मीद की जाती है. ज्यादा लोकतांत्रिक संस्कृतियों की आदी महिलाएं बिंदास हैं, क्योंकि उन्हें इसका एहसास नहीं है कि उनसे दास बनने की अपेक्षा की जाती है. बिंदास महिला कामुक नजरों की माप-तौल और नुक्ताचीनी का केंद्र बन जाती हैं और यह वह नजर है जो नैतिकता के संरक्षकों और “अनैतिक” कीड़ों दोनों में ही पाई जाती है, जो महिलाओं से छेड़खानी करते हैं या उन पर हमला करते हैं.
जब महिलाओं को लगता है कि यह नजर उनके कपड़ों या चाल-चलन पर गड़ी है, तो उन्हें खतरे का एहसास, अपमान, गुस्सा और तेज डर महसूस होता है. यह वह नजर है, जो भारत में महिला ट्रैवलर का लगातार पीछा करती है, जो कि विशिष्ट भारतीय खतरा है.
समस्या यह है कि रेखा शर्मा खुद महिलाओं के बारे ऐसा ही नजरिया रखती हैं, जिसका पता उनकी NCW (राष्ट्रीय महिला आयोग) प्रमुख बनने से पहले के उनके ट्वीट से चलता है. एक ट्वीट में उन्होंने “कोरस गर्ल्स” (म्यूजिकल थिएटर ग्रुप की कोरस कलाकार) की एक तस्वीर साझा की है, जिसे शायद हिंदू श्रेष्ठतावादियों ने जवाहरलाल नेहरू को उनके बीच दिखाने के लिए मॉर्फिंग करके तैयार किया था, जिसमें उन्हें चरित्रहीन बताने वाली लाइनें लिखी हैं.
यह तस्वीर उन कई तस्वीरों (कुछ असल और कुछ मॉर्फ की हुई) में से हैं, जिसमें नेहरू महिलाओं के साथ करीब दिखाए गए हैं.
इन्हें यह “साबित” करने के लिए वायरल किया जाता है कि नेहरू पश्चिम से प्रभावित, गैर-भारतीय और चरित्रहीन थे- क्योंकि ऐसा नहीं था तो वे चरित्रहीन महिलाओं के साथ घुलना-मिलना क्यों पसंद करते?
रेखा शर्मा ने जो फोटो ट्वीट किया, उसमें असल में कलाकारों को एक शो की तैयारी करते हुए, हंसते-बोलते, आपसी दोस्ती में मजा लेते हुए, पूरी तरह बेपरवाह दिखाया गया है. वे बिंदास हैं, बेशर्म हैं क्योंकि उन्हें शर्म की कोई जरूरत महसूस नहीं होती.
रेखा शर्मा की ताक-झांक में मजा लेने वाली नजर उनकी बेशर्मी के लिए उनकी निंदा करती है. महिला ट्रैवलर के साथ भी यही होता है: यही नुक्ताचीनी वाली नजर बेपरवाह रोमांच पसंद महिला को चरित्रहीन मानती है. अगर वह किसी की दासी नहीं है, तो वह सभी के लिए खुला बुलावा है.
यह पहली बार नहीं है, जब रेखा शर्मा अपने स्त्री-विरोधी विचारों और दुष्कर्म की संस्कृति को राष्ट्रवाद के पाखंड के से छिपा रही हैं.
उन्होंने 2018 में थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के उस सर्वे को, जिसमें भारत को महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश बताया गया था, इस आधार पर खारिज कर दिया था कि इसने “दुनिया के सामने भारत की खराब छवि पेश की है.” उनका कहना था कि समस्या को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया था, क्योंकि NCW ने पाया है कि 30 प्रतिशत मामलों में महिलाओं ने अपमान का बदला लेने के लिए या संपत्ति विवाद में फायदा उठाने के लिए, या दुष्कर्म के मामले में सरकार की तरफ से रेप सर्वाइवर को मिलने वाला मुआवजा पाने के लिए झूठे आरोप लगाए थे.
रेखा शर्मा को यह कहने में कोई नैतिक बाधा नहीं है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा या दूसरे सामाजिक अन्याय और कट्टरता के बारे में बात करना देश को बदनाम करना है. यह मौजूदा सरकार की आधिकारिक नीति बन गई है.
उदाहरण के लिए, पुलिस का मानना था कि उत्तर प्रदेश के हाथरस में गैंग रेप और हत्या की शिकार दलित महिला के लिए इंसाफ की मांग को लेकर होने वाले विरोध प्रदर्शन राज्य सरकार को बदनाम करने की “अंतरराष्ट्रीय साजिश” है.
राज्य के मुख्यमंत्री ने कहा कि इस तरह के विरोध प्रदर्शन हिंसा भड़काने की “साजिश” हैं. इसी हिसाब से मामले को कवर करने वाले एक पत्रकार को आतंकवाद भड़काने की देशद्रोही साजिश में शामिल होने के आरोप में जेल में डाल दिया गया. प्रधानमंत्री खुद भी प्रदर्शनकारियों (किसानों, महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों, नागरिकों की आजादी के रक्षकों) पर “पेशेवर प्रदर्शनकारी” होने का आरोप लगाते हैं, जो देश को बदनाम करने और भारतीय समाज को तोड़ने के लिए “विदेशी विनाशकारी विचारधारा” फैलाने की साजिश रच रहे हैं.
हमें सरकार की ब्रांड इमेज और उसकी विचारधारा का सम्मान करने के लिए कहा जा रहा है, जो महिलाओं के जीवन और सम्मान से ऊपर राष्ट्र को महत्व देने का दावा करती है. हमें इस घटना पर डर और गुस्सा आना चाहिए कि स्पेन की एक महिला जो बाइक पर भारत की खोज का मासूम सा रोमांच लेने निकली थी, उसे गैंग रेप के अकल्पनीय सदमे का सामना करना पड़ा.
इसके बजाय, हमें इस बात पर नाराज होने के लिए कहा जा रहा है कि किसी ने कह दिया है कि भारतीय समाज को बेहतर बनाने की जरूरत है! हमारे द्वारा चुने गए नेताओं की ऐसी बेशर्म खोखली राजनीतिक नैतिकता “हमारी खराब छवि दिखाती है.” कुल मिलाकर वे हमारे सबसे खराब पहलू को दर्शाते हैं. एक समाज के तौर और एक देश के तौर पर, हमें बेहतर बनने की जरूरत है.
(कविता कृष्णन एक महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यह लेखिका के अपने विचार हैं. द क्विंट इनके लिए जिम्मेदार नहीं है.)
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