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मशहूर कवि केदारनाथ अग्रवाल ने ‘अंडे पर अंडा’ कविता लिखते समय जब सरकार की ताकत आजमाइश पर व्यंग्य किया था, तब कहां सोचा था कि अंडा सचमुच राजनीतिक हथकंडा बन जाएगा. खान-पान के राजनीतिक दांवपेंच से जनता को झांसा दिया जाएगा. मांसाहार-शाकाहार पर समुदायों की गोलबंदी की जाएगी. अंडा यह सब कर रहा है.
फिलहाल अंडा फिर चर्चा में है क्योंकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति यानी NEP 2020 के तहत एक्सपर्ट ग्रुप ने एक पोजीशन पेपर ड्राफ्ट किया है और इसे पब्लिक डोमेन में पेश किया गया है. इसमें आयुर्वेद के भ्रामक संदर्भों के साथ कहा गया है कि मिड डे मील को प्लान करते समय अंडे, फ्लेवर्ड मिल्क, बिस्कुट वगैरह को इस्तेमाल नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मोटापा और हार्मोनल असंतुलन पैदा करते हैं. मीट और अंडे, दोनों लाइफस्टाइल डिसऑर्डर की वजह होते हैं. यानी कुल मिलाकर, बहस भी वही है, अंडा मिड डे मील से हटा दिया जाए.
वैसे यहां कुछ सुधार की जरूरत है. मिड डे मील को काफी पहले से पीएम पोषण नाम दे दिया गया है. और इसके संयोजन में भी जगह-जगह बदलाव कर दिया गया है. हर राज्य में इसमें अलग-अलग किस्म का भोजन दिया जाता था. लेकिन कोविड-19 के बाद से इस योजना के दोबारा से पटरी पर आने में समय लगेगा. कई राज्यों में बच्चों को सूखा राशन दिया जा रहा था.
हालांकि आधिकारिक रूप से पश्चिम बंगाल, बिहार, ओड़िशा और झारखंड में मिड डे मील को बहाल कर दिया गया है लेकिन राइट टू फूड कैंपेन चलाने वाले एक्टिविस्ट्स का मानना है कि इस योजना को सामान्य रूप से लागू करने में समय लगेगा. दिक्कत यह भी है कि इस योजना का बजट केंद्र से मिलता है और महंगाई के दौर में इसे चलाना मुश्किल हो रहा है
जहां तक अंडे का सवाल है, ओड़िशा इनमें से सबसे आगे है. यहां मिड डे मील के मेन्यू में अंडे नियमित रूप से दिए जाते हैं. पश्चिम बंगाल और झारखंड में हफ्ते के दो दिन अंडे होते हैं. पश्चिम बंगाल के कुछ जिलों में कुछ दिन मछली और मीट दिया जाता है. शाकाहारी बच्चों को झारखंड फल या दूध देता है. बिहार में हफ्ते में एक दिन अंडा मिलता है और महीने में एक दिन चिकन. इस सिलसिले में राइट टू फूड कैंपेन के झारखंड के कनवीनर अशरफी नंद प्रसाद ने न्यूज वेबसाइट न्यूजक्लिक को बताया था कि आदिवासी और दलित परिवारों के बच्चे स्कूल बीच में ही छोड़ देते हैं, लेकिन मिड डे मील में अंडा उनके लिए स्कूल के प्रति खिंचाव का काम करता है.
लेकिन इसी अंडे को हिकारत की नजर देखा जा रहा है.
इसका तर्क यह दिया गया है कि आयुर्वेद में मांसाहार के नुकसान का जिक्र है. हां, इस पेपर को बनाने वाले पैनल में स्कूल टीचर या बच्चों के माता-पिता तो नहीं थे, लेकिन आयुर्वेद फिजिशियन और योग थेरेपिस्ट जरूर थे. लेकिन आयुर्वेद के विशेषज्ञों का कहना है कि आयुर्वेद मांस या अंडों के बारे में कुछ कहता ही नहीं. बेंगलुरू में यूनिवर्सिटी फॉर ट्रांस-डिसिप्लिनरी हेल्थ साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी में सेंटर फॉर आयुर्वेद बायोलॉजी एंड होलिस्टिक न्यूट्रीशन की असिस्टेंट प्रोफेसर मेघा का यही कहना है, बल्कि चरक संहिता में तो विभिन्न प्रकार के मांस पर श्लोक भी हैं जो बताते हैं कि उनकी क्या खासियत है. एक खंड तो अंडे पर भी है. पेपर में सात्विक भोजन के महत्व पर जोर दिया गया है जबकि ऐसा कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं है जो यह कहता है कि बच्चों के लिए सात्विक भोजन ज्यादा उपयोगी है
शाकाहारी बच्चों को छोड़ भी दिया जाए, तो जिन परिवारों में मांस-अंडा खाया जाता है, उन्हें सात्विक बनाने की जिद गलत ही है. अंडा खाना क्यों जरूरी है? क्योंकि भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या सबसे अधिक है. उनमें प्रोटीन, विटामिन, आयरन और दूसरे पोषक तत्वों की कमी है. नियमित अंडा खाने से उनके विकास में मदद मिलती है. अंडे बढ़ते बच्चों के लिए सुपरफूड की तरह होते हैं. उन्हें मिड डे मील में अंडे इसलिए खिलाए जाने चाहिए क्योंकि इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति बढ़ती है. फिर पोल्ट्री स्थानीय रोजगार का भी जरिया है जिसमें ग्रामीण परिवार और महिलाओं के स्वयंसहायता समूह शामिल होते हैं. इससे स्वरोजगार को बढ़ावा मिलता है. अंडे खिलाना सुरक्षित भी है. उसमें फूड प्वाइजनिंग का खतरा नहीं होता. दूध जल्दी खराब हो जाता है और उसे बांटना मुश्किल भी होता है. यूं दूध कितना शाकाहारी है, इसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक तय नहीं कर पाए थे. वह दूध को भी मांसाहारी ही मानते थे
अंडा इसलिए जरूरी है क्योंकि 2019 में दिल्ली हाई कोर्ट को पेश एक अंतरिम रिपोट में कहा गया है कि हमारे देश में 40% बच्चे खाली पेट स्कूल आते हैं. अक्सर उनका पहला भोजन मिड डे मील ही होता है. इसे पौष्टिक होना ही चाहिए. लेकिन अगर शाकाहारी जनसंख्या वाले मॉडल को जगह-जगह लागू किया जाएगा तो इसी तर्क के आधार पर कहीं अल्पमत में रहने वाले शाकाहारी और कहीं अल्पमत में रहने वाले मांसाहारी लोगों को अपने संविधान प्रदत्त अधिकार को अमल में लाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा.
यूं ज्यां द्रेज जैसे मशहूर अर्थशास्त्री ने अपने एक लेख ‘कास्ट, क्लास एंड एग्स’ में लिखा है कि अंडा खिलाने से परहेज करना, जाति और वर्ण से भी ताल्लुक रखता है. खाने की च्वाइस और उसकी शेयरिंग पर पाबंदी लगाने से एक तरह से जाति व्यवस्था मजबूत होती है. जो ऐसी पाबंदी लगाता है, वह खुद प्रिविलेज्ड क्लास का होता है. उसका फायदा इसी में होता है कि जाति व्यवस्था कायम रहे. जैसा कि इस पोजीशन पेपर में “भारतीय जातीयता और नस्लों की प्राकृतिक पसंद” की बात कही गई है. जाहिर सी बात है, नस्ल या जाति से तालुल्क यहां सिर्फ सवर्ण से है. 1948 में बाबा साहेब अंबेडकर ‘द अनटचेबल्स’ नामक किताब में लिख चुके हैं कि हिंदुओं में दो तरह की खाद्य वर्जनाएं काम करती हैं जो विभाजन का काम करती हैं... और इनके चलते टचेबल्स (यानी जिनसे छुआछूत नहीं किया जाता) अनटचेलब्स (यानी जिनसे छुआछूत किया जाता है) से पूरी तरह से अलग हो जाते हैं.
या यूं कहें, अंडा राजनीति का हथियार है, और धार्मिक गोलबंदी का जरिया. मांस और मुर्गी, और बीफ और बीफ उत्पाद भी. तभी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में हर साल ‘पवित्र महीनों’ के दौरान ‘पवित्र नगरियों’ में मांसाहार बेचने पर पाबंदी लग जाती है. असम में हिंदू धर्म से जुड़े धार्मिक केंद्रों के पांच किलोमीटर के दायरे में बीफ नहीं बेचा जा सकता, यह जानने के बावजूद कि 2011 की जनगणना के अनुसार पूरे राज्य में 1,59,818 पूजा स्थल हैं. यानी ऐसे में पूरे राज्य में ही इस पर पाबंदी लग जाएगी. बेशक, यह एक लंबी साजिश का हिस्सा है जो लगातार यह तय कर रहा है कि किस की अलमारी में कौन सी किताबें होंगी, किसी के शरीर पर कैसा कपड़ा होगा, किसी की थाली में क्या खाना होगा. अब इससे क्या ही फर्क पड़ता है कि किसी की सेहत दांव पर लग जाए.
चलते-चलते एक पुरानी खबर दोहराने की जरूरत है- प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने कई साल पहले स्कूली बच्चों को अक्षय पात्र की 300 करोड़वीं थाली परोसी थी. अक्षय पात्र मिड डे मील में बच्चों को प्याज-लहसुन भी नहीं खिलाता. अंडा तो बहुत दूर की बात है. क्या अंडे के लेकर छिड़ी बहस अब भी मायने रखती है?
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