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अभी उन्होंने पद भी नहीं संभाला था कि कुछ बौखलाए लोगों ने नीति आयोग के नवनियुक्त वाइस चेयरमैन राजीव कुमार के कुछ समय पहले एक अखबार में लिखे लेख को लेकर बखेड़ा शुरू कर दिया. उन्होंने भारतीय अर्थ नीतियों पर विदेशी प्रभाव के बारे में कुछ लिखा था और कहा था कि यह जल्द ही समाप्त हो जाएगा.
राजीव मेरे बहुत पुराने मित्र हैं. मैं उन्हें आधी सदी से जानता हूं. जब वह ICRIER के निदेशक थे, तो मैंने उनके सलाहकार के सरकारी पद पर भी काम किया. वह आर्थिक नीतियों और शोध एजेंडा पर महीने में दो बार चर्चा किया करते थे.
यह बात मैं पूरे भरोसे से कह सकता हूंः
वास्तव में उनकी मुझसे तब बहुत गर्मागर्म बहसें होती थीं, जब मैं कहता कि भारत के नीति सलाहकारों की जड़ें भारत की जमीन में रोपी हुई नहीं हैं. अक्सर मेरा तर्क होता था कि संस्कृति का परिष्कार धर्म द्वारा होता है, भारतीय अर्थशास्त्रियों को इसके सभी पहलुओं को समझना होगा. यह नहीं होना चाहिए कि वह कहीं से भी लेकर आयातित उपाय यहां फिट कर दें, जो कि मोटे तौर पर ईसाई प्रोटेस्टेंट मूल्यों पर आधारित हो और जब यह नाकाम हो जाए तो खुद को छोड़ हर किसी को इसके लिए जिम्मेदार ठहराएं.
राजीव सैद्धांतिक तौर पर इस तर्क से सहमत होते, लेकिन इसके प्रभावों से नहीं. बल्कि उन्होंने चर्चा के लिए एथिक्स एंड इकनॉमिक्स नाम से एक फोरम ही बना दिया. हम इसमें अक्सर अर्थशास्त्र की सांस्कृतिक जड़ों पर चर्चा किया करते थे. कई जाने-माने वक्ताओं ने अर्थशास्त्र समेत इतर विषयों पर भी इस फोरम को संबोधित किया.
मेरा सिर्फ इतना कहना है कि भारत ने अपने 1947 के पहले के अर्थशास्त्रियों को भुला दिया. इनमें से कई के पास विदेश की डिग्री थी, पर वो भारत की हकीकतों से भी पूरी तरह वाकिफ थे. लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने आयात को अपना लिया, पहले इंग्लैंड से, और फिर 1970 के बाद अमेरिका से.
इसी का नतीजा है कि आज जब हम भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्याओं के बारे में सोचते हैं, तो यह पश्चिमी पद्धतियों के माध्यम से करते हैं. ये पद्धतियां गलत नहीं हैं. लेकिन ये सटीक नहीं हैं, क्योंकि इनकी जड़ें हमारे देश के सामाजिक परिवेश में नहीं हैं. इन अर्थशास्त्रियों के पास राजनीतिक-अर्थशास्त्र की समझ ही नहीं हैं.
1970 के उत्तरार्ध और 1980 से एक नया दौर शुरू हुआ. IMF और वर्ल्ड बैंक में प्रशिक्षित अमेरिकी ईसाई धर्मप्रचारक सरकारी नौकरी में आना शुरू हो गए. 1980 के मध्य में राजीव गांधी की सरकार के कार्यकाल में वो धीरे-धीरे अधिक प्रभावी हो गए. 1981 के संकट के बाद वह और शक्तिशाली हो गए और करीब 25 सालों तक इनका सत्ता के केंद्र पर कब्जा रहा. इनकी बौद्धिक विरासत अब भी काफी मजबूत है.
लेकिन अब नरेंद्र मोदी को जरूरत है ऐसे शख्स की, जो अर्थशास्त्र में भारत में प्रशिक्षित हो. इसका मतलब यह नहीं है कि जिसके पास विदेश की Ph D वो अयोग्य हो जाएगा. लेकिन भारतीय Ph D वाले सैकड़ों अर्थशास्त्री हैं, जो अब देखते ही खारिज नहीं कर दिए जाएंगे, जैसा कि अभी तक होता रहा है. अपना नजरिया फिर से साफ करने के लिए बता दूं कि पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं की कामयाबी की जड़ें उनके समाज में हैं. हमारे उधार के अर्थशास्त्री इसलिए नाकाम हुए, क्योंकि इनकी जड़ें भारत में नहीं थीं.
लेकिन ये भारत में ‘जड़ें’ होने का मतलब क्या है? इसका जवाब यह है-
नोटबंदी में यही दिखा; व्यक्तिगत रूप से लोगों की प्रतिक्रिया में बहुत ज्यादा अंतर था, लेकिन समाज ने बड़े धैर्य और शालीनता से प्रतिक्रिया दी. यह बताता है कि किसी काम का एक सांस्कृतिक आयाम भी है, जिसकी सिर्फ व्यक्तिगत आयाम पर ध्यान देते हुए अनदेखी नहीं की जा सकती. लेकिन पाश्चात्य अर्थव्यवस्थाओं ने ऐसा ही किया है.
भारतीय अर्थव्यवस्था में इस फैक्टर को समाहित करना होगा. जो बात किसी एक के लिए सच है, वह सबके लिए सच नहीं है.
बेईमानी की आदत भी एक खास भारतीय प्रवृत्ति है. यही कारण है कि बहुत थोड़े से लोग ही आयकर चुकाते हैं. ऐसे में किस तरह की कर नीति बनाई जानी चाहिए? इसलिए अब समय आ गया है कि भारतीय अर्थनीति में भारतीय समाज शास्त्र को भी समाहित किया जाए. इस दिशा में पहला कदम होगा कि भारत में प्रशिक्षित अर्थशास्त्रियों को सुना जाए, ना कि सिर्फ अमेरिका और इंग्लैंड वालों को.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 13 Aug 2017,07:05 PM IST