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'ऐसी तैसी डेमोक्रेसी': UAPA और कुछ नहीं, प्रेस की आजादी को दबाने की कोशिश है

कुमार कार्तिकेय लिखते हैं कि UAPA संविधान द्वारा दी गई मौलिक सुरक्षा का उल्लंघन करता है.

कुमार कार्तिकेय
नजरिया
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<div class="paragraphs"><p>'ऐसी तैसी डेमोक्रेसी': UAPA और कुछ नहीं बल्कि प्रेस की आजादी को दबाने की कोशिश है</p></div>
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'ऐसी तैसी डेमोक्रेसी': UAPA और कुछ नहीं बल्कि प्रेस की आजादी को दबाने की कोशिश है

(फोटो- विभूषिता सिंह/क्विंट हिंदी)

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समाचार पोर्टल न्यूजक्लिक (NewsClick) से जुड़े कई पत्रकार और कॉन्ट्रिब्यूटर्स के निवास पर मंगलवार, 3 अक्टूबर की सुबह दिल्ली पुलिस ने अचानक छापेमारी की. इस दौरान कई पत्रकारों की संपत्ति भी जब्त की गई. जिन लोगों के घर छापे मारे गए, उनमें व्यंग्यकार संजय राजौरा भी शामिल हैं, जो 'ऐसी तैसी डेमोक्रेसी' नाम समूह का हिस्सा हैं, जो इस बारे में बात करता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में क्या खराबी है.

40 से ज्यादा जगहों पर छापे के बाद, दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने न्यूजक्लिक के एडिटर इन चीफ प्रबीर पुरकायस्थ (Prabir Purkayastha) और HR हेड अमित चक्रवर्ती को गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (UAPA) की धारा 13, 16, 17, 18, 22 और भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 153(बी) और 120(बी) के तहत गिरफ्तार किया.

यह पहली बार नहीं है, जब पत्रकारों पर UAPA के आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत आरोप लगाए गए हैं. साल 2020 में केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को इसी तरह के आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया था और लगभग 300 दिनों तक जेल में रखा गया था.

इसी फेहरिस्त में आसिफ सुल्तान का मामला शामिल है, जो 2018 से जेल में हैं, और इरफान मेराज, जिन्हें हाल ही में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) ने आतंकवादी संबंधों के आरोप में गिरफ्तार किया था. Alt News, The Wire और दैनिक भास्कर के संपादकों को भी इसी तरह के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.

इन मामलों और गिरफ्तारियों के मूल में पत्रकारों के बीच डर पैदा करने की कोशिश है. ऐसी कार्रवाइयां हाल के वर्षों में और ज्यादा होती दिख रही हैं, इनमें तेजी से इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं को जब्त करना शामिल हो गया है.

UAPA का बढ़ता दुरुपयोग

2014 के बाद से सरकार द्वारा कार्यकर्ताओं और सवाल करने वाले लोगों के खिलाफ UAPA का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग हो रहा है. 2018 में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) और पुणे पुलिस ने आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत 16 वकीलों, प्रोफेसरों और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया और उन्हें भीमा कोरेगांव मामले में जेल में बंद कर दिया.

2023 तक, 14 कार्यकर्ता जमानत पर हैं. जमानत आदेशों में, सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी और अदालत में पेश किए गए सबूतों पर सवाल उठाया है. गिरफ्तार किए गए लोगों में से एक, फादर स्टेन स्वामी की 83 साल की उम्र में जमानत के लिए लड़ते हुए जेल में मौत हो गई.

1985 में आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (TADA) और 2002 में आतंकवाद निवारण अधिनियम (POTA) की शुरूआत के बाद से आतंकवाद विरोधी कानून की असामान्य प्रकृति गर्म राजनीतिक चर्चा की वजह बनी हुई है.

TADA और POTA लंबे वक्त तक जांच से पहले हिरासत में रखने, जेल में दुर्व्यवहार, फर्जी आरोप और जबरदस्ती कुबूलनामे के लिए कुख्यात थे. खास तौर से अल्पसंख्यक आबादी के सदस्यों ने ऊंची कीमत चुकाई.

सरकार ने भारत की संप्रभुता पर सवाल उठाने वाले किसी भी संगठन को गैरकानूनी बनाने के लिए UAPA को फिर से जिंदा किया और इसे आतंकवाद विरोधी कानून में बदल दिया. तब से, कानून को तीन बार महत्वपूर्ण रूप से संशोधित किया गया है - 2008, 2013 और 2019 में. हर बदलाव में इसे और ज्यादा कठोर बना दिया गया है.

यह कानून न केवल अपने प्रारंभिक इरादे से आगे बढ़ गया है, बल्कि टाडा और पोटा से भी ज्यादा कठोर साबित हो रहा है.

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मामलों की पेंडेंसी ज्यादा, सख्त जमानत प्रावधान

UAPA को लेकर संदेह 2020 में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की रिपोर्ट के बाद पैदा हुआ. क्योंकि UAPA मामलों में बढ़ोतरी हुई है, इसलिए 2014 की रिपोर्ट में उन अपराधों को एक अलग कैटेगरी के रूप में दर्ज किया गया था.

पिछले पांच सालों में UAPA के मामलों में 72 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. पिछले सात सालों में सुनवाई के लिए लाए गए 6,900 मामलों में से केवल 4.5 प्रतिशत ही नतीजे तक पहुंचे. 2014 से 2020 के बीच 95.4% मामले साल के आखिरी तक लंबित थे.

UAPA इंसाफ के विचार के साथ-साथ संविधान द्वारा लोगों को दी गई मौलिक सुरक्षा की गारंटी का खुलेआम उल्लंघन करता है.

यह कानून अधिकारियों और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को धारा 43ए और 43बी में बहुत ज्यादा अधिकार देता है, जो पुलिस को बिना वारंट के किसी की भी तलाशी लेने, जब्त करने और गिरफ्तार करने में सक्षम बनाता है. इसके अलावा धारा 43डी, जो पुलिस को किसी को भी 30 दिनों के लिए पुलिस हिरासत में रखने और बिना आरोपपत्र के 180 दिनों तक अदालत में हिरासत में रखने की छूट देता है.

ज्यादातर लंबित मामलों के बावजूद, UAPA में सबसे गंभीर प्रावधान जमानत को नियंत्रित करने वाला है. अगर किसी आरोपी के खिलाफ प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो उसे धारा 43डी(5) के तहत जमानत पर रिहा नहीं किया जा सकता है. यहां तक कि CRPC की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत भी UAPA द्वारा अप्रभावी कर दी जाती है.

UPA के जमानत प्रावधानों के मुताबिक पुलिस की तलाशी और जब्ती के आधार पर 'प्रथम दृष्टया' मामला स्थापित करना ही किसी को हिरासत में रखने के लिए पर्याप्त है.

NIA बनाम जहूर अहमद शाह वटाली (2019) में, सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमा खत्म होने तक UAPA मामले में जमानत हासिल करना व्यावहारिक रूप से कठिन बना दिया. वटाली के फैसले के मुताबिक, UAPA के तहत जमानत के लिए की गई गुजारिशों का मूल्यांकन करते वक्त, अदालतों को यह मानना चाहिए कि FIR में हर आरोप तथ्यात्मक है.

इसके अलावा, जमानत अब केवल तभी दी जाती है, जब आरोपी ऐसे एविडेंस प्रदान करता है, जो अभियोजन पक्ष के मामले का खंडन करता है. इन परिस्थितियों में, किसी आरोपी को तब तक दोषी माना जाता है, जब तक कि वह निर्दोष साबित न हो जाए.

UAPA के तहत जमानत की सुनवाई एक तमाशा बनकर रह गई है. ऐसे कड़े साक्ष्य मानकों के साथ, किसी आरोपी के लिए जमानत प्राप्त करना नामुमकिन है और यह सरकार के लिए किसी को अनिश्चित समय तक कैद में रखने का एक उपयोगी हथियार है. जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया है, वे एक तकलीफ में जिंदगी बिता रहे हैं. UAPA में आरोपी को सजा दिलाने की प्रक्रिया बनती है.

आलोचकों, असहमत लोगों को चुप कराना

सरकार आलोचकों और असंतुष्ट लोगों को चुप कराने के लिए इन कड़े कानूनों का उपयोग कर रही है, जो आपातकाल के दौर के जैसा है.

न्यूजक्लिक के चीफ एडिटर प्रबीर पुरकायस्थ को आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी के खिलाफ असहमति जताने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था.

अदालत को यह तय करना होगा कि क्या UAPA का दायरा और इससे पड़ने वाला प्रभाव उसके घोषित उद्देश्यों से असंगत हैं. "आतंकवादी कृत्य," "गैरकानूनी गतिविधि," "वकालत," "साजिश," "धमकी देने की संभावना," और "आतंकवादी हमला करने की संभावना" जैसे शब्द बड़े स्तर पर प्रयोग में लाए गए और अधिकारियों को मनचाही शक्तियां मिलती दिखीं.

अभियोजन मानकों का भी अभाव है. इसके बजाय, कानून पुलिस मामलों पर निर्भरता की छूट देता है. भले ही "आतंकवादी कृत्य" जैसी शब्दावली सब्जेक्टिव हो और इसको परिभाषित करना कठिन हो, न्याय से संबंधित फैसले के लिए सही दायरे बनाए जा सकते हैं. इसका इरादा ऐसा कानून बनाना है, जो हमारे संविधान की जरूरतों को पूरा करते हुए आतंकवाद से मुकाबला करे.

प्रेस की आजादी पर चोट पहुंचाने से देश की लोकतांत्रिक संरचना पर बुरा असर पड़ता है. संजय राजौरा के शब्दों में, यह निश्चित रूप से "ऐसी तैसी डेमोक्रेसी" की स्थिति है.

(कुमार कार्तिकेय एक कानूनी रिसर्चर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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