advertisement
साल 2008 के मालेगांव ब्लास्ट मामले में मकोका के तहत आरोपी रहे कर्नल पुरोहित, साध्वी प्रज्ञा और कुछ अन्य लोगों के खिलाफ केस न चलाए जाने के एनआईए के फैसले ने भूचाल ला दिया है.
इस निर्णय के आने के साथ ही विरोधी राजनैतिक दलों के बीच इस मुद्दे को लेकर बहस तेज हो गई है. हालांकि इन आरोपियों के खिलाफ दूसरी धाराओं में लगेआरोपों को निरस्त नहीं किया है.
इस फैसले से सबसे ज्यादा सकते में वे आम लोग हैं, जो ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि सच कौन बोल रहा है. उनके लिए इस मामले को नजरअंदाज करना मुश्किल है, खासकर तब, जब इस पर अदालत का अंतिम फैसला भी नहीं आया है.
हमें ये भी समझ लेना चाहिए कि इस मसले पर NIA क्या सोचती है, उसका असर अंतिम नतीजे पर नहीं पड़ने वाला है. इस मामले में अब पूरा दारोमदार ट्रायल कोर्ट के जज पर होगा. हालांकि राज्य या आरोपी द्वारा अपील किए जाने पर उच्च अदालतें भी बाद में इस मामले पर संज्ञान ले सकती हैं.
जब मसला यहां तक पहुंच चुका है, तब जरूरत है सभी अनर्गल बातों को नजरअंदाज कर ऐसा माहौल बनाने की, जहां अदालत अपने सामने पेश किए गए सभी सबूतों की निष्पक्ष जांच कर सके.
इसमें एक बड़ा सबूत वो सूत्र है, जहां से इस धमाके में इस्तेमाल किया गया RDX लाया गया, जिससे 37 लोगों की मौत हो गई और 125 घायल हो गए. मामले के एक मुख्य आरोपी कर्नल पुरोहित को अपने घर में RDX रखने का दोषी पाया गया था और एटीएस उनके खिलाफ मुकदमा चलाया था.
कोई जांच एजेंसी विस्फोटक प्लांट करने की हद तक जा सकती है, ये किसी के लिए एक रहस्य के पर्दाफाश होने से कम नहीं है.
मैं ये जरूर कहना चाहूंगा कि भारतीय पुलिस का रिकॉर्ड इस मामले में ज्यादा बेहतर नहीं है. एटीएस के खिलाफ लगाए गए इन आरोपों की भी जांच होनी चाहिए और अगर ये सच पाया जाता है तो दोषियों को सजा भी मिलनी चाहिए.
पूरे मामले में विवाद का विषय कथित तौर पर हुई मीटिंग में हुई वह बातचीत है, जिसमें ये साजिश रची गई थी. एक गवाह ने एनआईए को बताया कि वो उस मीटिंग में मौजूद था, लेकिन उसने इस बारे में मीटिंग में मौजूद लोगों के बीच कोई बातचीत होती नहीं सुनी.
ऐसे में मौजूदा विवाद उस तथ्य के आस-पास घूमती है, जहां गवाह एटीएस को दिए गए अपने बयान से मुकर गए हैं.
ये एक ऐसी घटना है, जो हमारे देश की न्याय व्यवस्था का हिस्सा बन चुकी है. लेकिन जब ये आतंकवाद के मुद्दे पर होता है, तो चिंता का विषय बन जाता है, क्योंकि पूरी दुनिया की नजर पहली बार उठाए गए भगवा आतंकवाद के इस केस पर टिकी है. इस पर कोर्ट की कार्यवाही विवाद से मुक्त होने की उम्मीद करना किसी कल्पना से कम नहीं है.
अब पूरा ध्यान कहीं न कहीं कोर्ट में चल रहे मुकदमे पर चला जाता है. मामले की सुनवाई कर रहे जज के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिती है, क्योंकि उसके सामने दो जांच एजेंसियों द्वारा दी गई दो रिपोर्ट हैं, जिसका उन्हें पूरे एहतियात से निष्पक्ष जांच करना होगा. अगर इस दौरान उन्हें लगता है कि पूरी सच्चाई अभी तक सामने नहीं आई है, तो वे केस की आगे जांच का आदेश दे सकते हैं, ये उनका अधिकार है.
अगर उन्हें ये भी लगता है कि आरोपियों को राहत देने का फैसला सही नहीं है, तो वे उन पर मुकदमा जारी रखने का भी आदेश दे सकते हैं. जब एक जज के पास ये सारे अधिकार होंगे, तो जाहिर है, राजनैतिक हस्तक्षेप और आरोप-प्रत्यारोप की संभावना कम होगी.
कुछ लोगों ने मामले की दोबारा जांच की भी मांग की, जो सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो. ये काफी हद तक निरर्थक लगता है, खासकर तब, जब इस घटना को हुए इतने साल बीत चुके हैं. हमें ट्रायल कोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए, हो सकता है कि वहां से भी कुछ चौंकाने वाले फैसले सामने आएं. वो चाहे जो फैसला करें, हम ये उम्मीद कर सकते हैं कि मामला ऊपरी अदालतों तक जरूर पहुंच जाएगा.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)
Published: 17 May 2016,02:53 PM IST