मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019साल 2012 का निर्भया गैंग रेप और हत्या: 10 साल बाद भी मीडिया ने नहीं लिया सबक

साल 2012 का निर्भया गैंग रेप और हत्या: 10 साल बाद भी मीडिया ने नहीं लिया सबक

शालिनी नारायण बता रही है कि निर्भया केस और श्रद्धा वॉकर केस में मीडिया की रिपोर्टिंग लगभग एक जैसी ही है

शालिनी नारायण
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>साल 2012 का निर्भया गैंग रेप और हत्या: 10 साल बाद भी मीडिया ने नहीं लिया सबक  </p></div>
i

साल 2012 का निर्भया गैंग रेप और हत्या: 10 साल बाद भी मीडिया ने नहीं लिया सबक

(फोटो- क्विट/अरूप मिश्रा)

advertisement

"दक्षिणी दिल्ली में गैंगरेप" आज से ठीक 10 साल पहले 17 दिसंबर 2012 को मेरे मोबाइल फोन पर यह मैसेज फ्लैश हुआ. उस वक्त, मैं इस बात का अंदाजा नहीं लगा सकी कि इस केस का देश के कानून, समाज और खुद मुझ पर क्या असर पड़ने वाला है. 

मैं उस समय राजधानी दिल्ली (Delhi) में एक नेशनल डेली न्यूजपेपर के साथ एक क्राइम रिपोर्टर थी.  मुझे पता था कि 'साउथ दिल्ली' कीवर्ड का क्या मतलब है. मुझे अपने एडिटर को तुरंत ये जानकारी देनी थी और आगे डिटेल के लिए काम पर लगा जाना था. आखिर ये घटना कैसे घटी और बाकी डिटेल्स के लिए उस वक्त की साउथ दिल्ली की DCP छाया शर्मा को फोन किया.

फोन पर कोई जवाब नहीं मिला.  हालांकि कुछ ही मिनटों में मुझे और ज्यादा जानकारी फोन पर ही मिल गई. दिल्ली में चलती बस में 23 साल की पैरामेडिक स्टूडेंट जो वसंत कुंज से सिनेमा देखकर बस से जा रही थी उनके साथ घटना घटी. ये बहुत सदमा देने वाला था. 

ये मेरी उम्र की किसी महिला के साथ कैसे हो सकता है ? पूरे शहर में यह सबसे सुरक्षित इलाका माना जाता था. कोई सिनेमा देखकर घर लौट रहा हो और ये घटना कैसे घट सकती है...मैं खुद भी इस तरह से कई बार जाती थी .  

तब खबरों को ट्रैक करने के लिए शायद ही कोई सोशल मीडिया हुआ करता था. अब के विपरीत, ट्विटर पर मिनटों के भीतर घटनास्थल का कोई वीडियो और फोटो अपलोड नहीं किया जाता था; कोई हैशटैग आक्रोश नहीं था. ऑनलाइन रिपोर्टिंग की भी जल्दी नहीं थी. 

एक बार कुछ बेसिक जानकारी मिलने के बाद, मैं मौके पर वसंत कुंज पहुंची. हिंदी और अंग्रेजी समाचार पत्रों और समाचार चैनलों के कई अन्य पत्रकार भी उस स्थान पर पहुंचे थे जहां 23 वर्षीय महिला और उसके ब्वॉय फ्रेंड को एक रात पहले बलात्कार के बाद चलती बस से फेंक दिया गया था.

दिसंबर की सर्द और अंधेरी शाम थी. मौके पर मौजूद कोई भी मीडियाकर्मी से बात नहीं कर रहा था. इस बीच, मेरे साथी, जो उस समय हेल्थ रिपोर्टर थे, अस्पताल से महिला की स्थिति के बारे में अपडेट लेने का प्रयास कर रहे थे.

जैसे-जैसे शाम ढलती गई, हमें पता चला कि चोटें अकल्पनीय थीं. यह किसी जंगली जानवर के खतरनाक हमले जैसा था. यह भयानक, दिल दहला देने वाला था. वापस ऑफिस में जैसे ही मैंने रिपोर्टिंग शुरू की, मेरी आँखों से आँसू बह निकले. यह हम में से कोई भी हो सकता था.  यह एक बहुत लंबी कहानी की शुरुआत थी – एक महिला के साथ भयानक बर्बरता की गई थी. एक उदासीन सिस्टम था.  पीड़िता को ही शर्मसार करने वाली सामाजिक मानसिकता थी.  यह 2012 दिल्ली गैंग रेप और मर्डर केस था. 

एक दशक बाद, जब अब मैं श्रद्धा वॉकर मर्डर केस को देख रही हूं तो लगता है हालात में कुछ भी बदलाव नहीं हुए हैं.  एक दशक पहले निर्भया गैंग रेप और मर्डर को देखकर जो ख्याल दिमाग में आया था वही अभी फिर से आ रहा है- महिला से क्रूरता, एक उदासीन सिस्टम, समाज का निशाना और पीड़ित को शर्मशार करने की मानसिकता.  

जब सिस्टम की हुई कड़ी निंदा   

18 दिसंबर 2012 को - घटना के दो दिन बाद आरोपियों को पकड़ लिया गया था - सभी अखबारों और चैनलों के क्राइम रिपोर्टर इस मामले की पड़ताल करने वाले पुलिस स्टेशन पहुंचे. दिल्ली पुलिस पर 23 वर्षीय पैरामेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार और मारपीट करने वाले लोगों को गिरफ्तार करने का बहुत दबाव था. 

मीडिया में हड़कंप मचा हुआ था. अपराध की भयावहता से रिपोर्टर नाराज थे. एक रिपोर्टर ने कहा "कैसे जानवर है ये लोग जिन्होने ऐसा हाल किया?" . मैं दो साल से थोड़ा अधिक समय से क्राइम रिपोर्टर थी, लेकिन जो लोग एक दशक से अधिक समय से अपराध की खबरें कर रहे थे वो भी घटना की डिटेल को जानकर सकपका गए थे और गुस्से में थे. 

जनता भी आरोपियों के खून की प्यासी थी. थाने पर पत्रकारों के अलावा आक्रोशित नागरिकों का एक समूह जमा हो गया था.  दो रात पहले जिस बस में उसके साथ गैंगरेप हुआ था वह थाने पहुंच चुकी थी. लोगों का गुस्सा ऐसा था कि उन्होंने बस पर पथराव किया. मुझे अभी भी मुख्य सड़क पर टूटे शीशे वाली बस और "मारो सालो को" चिल्लाते हुए लोग याद हैं.

उसी दिन, दिल्ली पुलिस के तत्कालीन कमिश्नर (सीपी) ने इस मामले पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी. इस बीच, मेरे संपादक ने मुझे बस के रुट की डिटेल लेने को कहा था. इसलिए, मैं उस समय के सीपी के साथ बैठी थी. कमिश्नर ने A4 साइज की शीट पर 3 किमी के दायरे में जो बस घूमती रही थी, उसका एक नक्शा बनाया.

उन दिनों पुलिस सूचनाओं को छिपाती नहीं थी. बेशक हम अपने सूत्रों पर निर्भर थे, लेकिन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने नियमित रूप से इनपुट साझा किए. यह सब इसलिए किया गया ताकि कोई गलत सूचना प्रसारित न हो. 

राजनीतिक तौर पर भी यह मामला काफी तूल पकड़ चुका था. सरकार को विरोध प्रदर्शनों को नियंत्रित करना था जो भड़क जाते. समाज से भारी प्रतिक्रिया हुई. विवरण सामने आया, जिसमें दावा किया गया कि घटना की रात पुलिस ने बड़ी चूक की. वसंत कुंज में व्हाइट लाइन चार्टर बस के दो चक्कर लगाने के बाद, इलाके में तैनात कोई भी ट्रैफिक पुलिसकर्मी यह पूछने के लिए नहीं रुका कि पर्दे क्यों खींचे गए हैं. यहां तक कि इलाके में चलाई जा रही बस के सीसीटीवी फुटेज भी खराब क्वालिटी के थे. 

सिस्टम को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा था.  मीडिया इसे बख्शने के मूड में नहीं था. समाचार चैनलों और अखबार पुलिस की खामियों पर पर अपनी भड़ास निकाल रहे थे. पीसीआर वैन के आने में देरी, ड्यूटी पर मौजूद ट्रैफिक कर्मियों की अनदेखी, और शहर को आबाद करने वाले कई काले धब्बे. दिल्ली पुलिस के अधिकारियों को पता था कि अगर सूचना को छिपाया गया तो चीजें एक खतरनाक मोड़ ले लेंगी. उन्हें दबाव महसूस हुआ. 

ADVERTISEMENT
ADVERTISEMENT

2012, 2022: पीड़ित पर आरोप लगाना जारी

मैंने महसूस किया कि पत्रकारों और पुलिस कर्मियों दोनों के लिए संवेदनशीलता की ट्रेनिंग जरूरी है. यह कोई नई बात नहीं थी. जितने भी मामलों में मैंने जेंडर क्राइम संबंधी अपराधों के लिए कवर किया था, उन सबमें वही उदासीनता और निर्ममता देखी थी.

दुख की बात है कि घटना के कुछ दिनों बाद ही समाज और मीडिया के एक वर्ग ने सवाल करना शुरू कर दिया कि पीड़िता रात 8.30 बजे बाहर क्यों थी. वह व्वॉय फ्रेंड के साथ क्यों थी? वह उसके साथ फिल्म देखने क्यों गई थी? लोग जो सदमे और गुस्से में थे वो भी जल्दी ही पीड़ित को ही दोष देने लगे.   

साल 2022 में, श्रद्धा वाकर की जघन्य हत्या में भी वही सवाल उठ रहे हैं. जैसे कि पिता के ऐतराज के बाद भी वो कैसे लिव-इन रिलेशनशिप में थी. वही पीड़ित को शर्मिदा करने वाली मानसिकता. सवाल पूछे जा रहे हैं कि, शादी से पहले वह मर्द के साथ क्यों रहती थी? वो भी एक मुस्लिम आदमी? उसने अपने पिता की बात क्यों नहीं मानी?

दो मामले, दो महिलाओं की मौत और 10 साल.. आखिर हमारे समाज में क्या बदलाव आया है? यह लगभग वैसा ही है जैसे इन दो महिलाओं को उनके साथ जो हुआ उसके लिए उन्हें ही दोषी ठहराया जाए. 

2012 के मामले को कवर करते हुए, कुछ पत्रकारों ने यहां तक कह दिया कि यह एक चेतावनी है कि महिलाओं को रात में बाहर निकलने की अनुमति क्यों नहीं दी जानी चाहिए - वाकर के मामले की तरह, जो भी, अलग अलग धर्म के साथ शादी या रिश्ते रखते हैं  उनको चेतावनी की तरह घटना की याद दिलाई जाती है..

जब मैं पीड़िता की मां आशा देवी से मिली, तो उन्होंने कहा, “मैंने तो घर से जाते समय उसे सिर्फ बाय बोला था और वो चली गई, मुझे नहीं पता था वो वापस नहीं आएगी… क्या मुझे रोकना चाहिए था उसे? क्या मैंने गलती करी?"

समाज ने उनके भीतर गिल्ट पैदा कर दिया.. लेकिन वह नहीं जानती थी कि क्यों..

रिपोर्टर - विशेष रूप से क्राइम रिपोर्टर की चमड़ी थोड़ी मोटी होती है क्योंकि वो एक त्रासदी के साथ ही दूसरी त्रासदी की रिपोर्टिंग करते रहते हैं. मैं भी इसी तरह रिपोर्टिंग करती रहती थी. लेकिन एक दिन, मैं आशा देवी से उनके घर पर मिली. एक कमरे में जहां उनकी बेटी का सारा सामान - उनकी किताबें, एक टेडी बियर और उनके कपड़े – सब वैसे ही रखे थे. मुझे नहीं पता था कि अब उनसे क्या पूछना है. वह एक कोने में खड़ी होकर रोई, और मैं भी. मैं उनकी बेटी की उम्र की थी, और वह मेरी मां की उम्र की थीं. उनका दर्द अथाह था.

लेकिन अजीब तरह से एक या दो साल बाद ही ऐसा लगा जैसे मीडिया आशा देवी से "चिढ़" गया था.  कुछ ने उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने अपनी बेटी की मौत का इस्तेमाल अपने बेटों के लिए मुआवजा या नौकरी पाने के अवसर के रूप में किया.

लोगों ने कहा कि आशा देवी हर समय इंटरव्यू देती हैं और उनके पास कहने के लिए कुछ नया नहीं होता. हमें उससे क्या उम्मीद थी? हमें किस "नए" बाइट्स की उम्मीद थी? वह किसी टीवी शो की पात्र नहीं थी; वह एक ऐसी महिला थी जिसने इतने क्रूर अपराध में अपनी इकलौती बेटी को खो दिया था. वो गुस्से में थी, उन्हें गुस्सा करने का अधिकार था, और किसी को भी उसे या उसके परिवार को ‘जज’यानि आंकने का अधिकार नहीं था.

घर पर इस बातचीत को झेलना भी आसान नहीं था. घर पर, मेरे पिता जो थोड़े प्रोटेक्टिव नेचर के थे. वो कहते थे, , "मैं नहीं चाहता कि तुम बाहर जाओ. सोचो यह दक्षिण दिल्ली में हुआ है. यह नौकरी तुमको नहीं करना चाहिए.” मैं उनसे लड़ती रहती थी. 

बदलाव की उम्मीद : 2012 का इंडिया गेट पर ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन

जल्द ही, देश में व्यापक विरोध शुरू हो गया. मैंने इंडिया गेट पर ऐतिहासिक विरोध प्रदर्शन को कवर किया. क्या मुझे बदलाव की उम्मीद थी? हां...मैंने इस पैमाने का विरोध कभी नहीं देखा था - पुरुष, महिलाएं, बच्चे, युवा और बूढ़े सभी सड़क पर उतरे थे.  हर कोई न्याय और बदलाव चाहता था. मुझे लगा कि आखिरकार, कोई इस तथ्य पर ध्यान देगा कि सिस्टम इसी तरह काम करता है कि मानसिकता में कुछ बदलाव आएगा. शायद, सीसीटीवी कैमरे, ट्रैफिक पुलिस, या निगरानी कुछ ज्यादा बढ़ी.. लेकिन एक रिपोर्टर के तौर पर मैं जुनूनी भी थी. मैं मानती थी सिर्फ सिस्टम ही नहीं था जिसे दुरुस्त करना जरूरी था बल्कि पब्लिक की मानसिकता को भी ठीक करना जरूरी था.  

मैं अब यूनाइटेड किंगडम में दो चीनी महिलाओं के साथ रहती हूं जो मेरी फ्लैटमेट हैं. मैंने हाल ही में उन्हें बताया कि एक दशक पहले, दिल्ली में एक सामूहिक बलात्कार हुआ था और इससे पहले कि मैं अपनी बात पूरी कर पाती, उनमें से एक ने कहा, "ओह, चलती बस वाला..."

मेरी एक फ्लैटमेट की उम्र 22 साल है. 2012 में, वह 12 साल की थी –तब वो उस गैंग रेप के बारे में जानती थी. इस मामले ने उस समय अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी थीं और जो भी इसके बारे में पढ़ा या सुना था, इस घटना से चौंका था .

जब मैं अब पीछे मुड़कर देखती हूं, तो मैं मीडिया की भूमिका के बारे में सोचती हूं - क्या हमने कोई सबक सीखा? क्या हम बेहतर कर सकते थे? मैं जवाबों के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कह सकती. समाचार चैनलों पर 24X7 टिकर और अखबारों में आठ कॉलम की सुर्खियों के साथ मीडिया ने यह सुनिश्चित किया कि वे पुलिस पर बहुत दबाव डालें. मामले पर वर्षों तक कार्रवाई होती रही. दोषियों को फांसी पर चढ़ाया गया.

न्यूज की प्रकृति अब बदल गई है, विशेष रूप से सोशल मीडिया के आने के साथ. अब रीडर की जानकारी लेने का तरीका बदल गया है. सोशल मीडिया की इसमें बहुत बड़ी भूमिका है. अब तुरंत-तुरंत एक खबर से दूसरी खबर पर अटेंशन बढ़ता जाता है. लोगों की आदत हो गई है एक खबर के बाद दूसरी बड़ी कहानी पर जाने की. 

काश हमने उस समय इस मामले को अपनी रिपोर्ट के केंद्र में रखा होता, लेकिन हम आगे बढ़ गए. हम उसे बहुत जल्दी भूल गए और उसे "निर्भया" या सिर्फ एक डाटा बना दिया. मीडिया एक दशक बाद श्रद्धा वाकर के साथ ऐसा कर रही है. वे दोनों मांस और हड्डियों से बने इंसान थे, न कि सिर्फ सुर्खियां.

(शालिनी नारायण ने 2022 में University of Sheffield से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनी मास्टर डिग्री पूरी की है और यूके में रहती हैं. उन्होंने 2010 और 2015 के बीच द इंडियन एक्सप्रेस में एक इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट के रूप में काम किया है. वो जेंडर आधारित हिंसा, आतंकवाद, दंगे, राजनीति और मानवाधिकारों के मुद्दों पर रिपोर्टिंग करती हैं.)

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: undefined

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT