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दिल्ली में CAB पर BJP का साथ दे बिहार में क्या पाना चाहती है JDU?

अब यह तय है कि 2020 में बिहार की सत्ता में वापसी के लिए नीतीश कुमार को हिंदुत्व के घोड़े की सवारी से गुरेज नहीं है.

निहारिका
नजरिया
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 बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी के नेताओं से ही घिर चुके हैं
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बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी पार्टी के नेताओं से ही घिर चुके हैं
(फाइल फोटो: PTI)

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बीते जुलाई में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह और जेडी (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार की मुलाकात हुई थी, तो लोगों के दिमाग में कई प्रकार के सवाल थे. शाह और बीजेपी पुराने मध्यमार्गी ढर्रे को छोड़ राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के मुद्दे पर खुले तौर पर सामने आ चुकी थी, तो नीतीश “अपने उसूलों” से समझौता करने को तैयार नहीं थे. सबके दिमाग में एक ही सवाल था कि दोनों कैसे और कितने दिनों तक साथ रहेंगे? हालांकि, नागरिकता (संशोधन) बिल पर जेडी (यू) की रजामंदी ने इस सवाल पर पूर्ण विराम लगा दिया है.

अब मोटे तौर पर यह तय हो चुका है कि 2020 में बिहार की सत्ता में वापसी के लिए नीतीश को हिंदुत्व के घोड़े की सवारी से गुरेज नहीं है. साथ ही पार्टी की खुद को भाजपा से अलग दिखाने की कोशिश भी खत्म हो गई है. खुद पार्टी के नेता दबी जुबान में मानने लगे हैं कि नीतीश ने अब एनडीए का धर्मनिरपेक्ष चेहरा बनने के सपने को तिलांजलि दे दी है. इस बारे में उन्हें प्रशांत किशोर और पवन वर्मा जैसे करीबियों का विरोध झेलना पड़ रहा है. पार्टी नेताओं की मानें तो सत्ता में वापसी के लिए कुमार इस वक्त कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते.

धर्मनिरपेक्षता को तिलांजलि?

दरअसल, 2005 में बिहार की सत्ता पर काबिज होने के साथ ही नीतीश कुमार ने अपनी इमेज को तराशने का काम शुरू कर दिया था. भाजपा से इतर उन्होंने बिहार में 17 फीसदी मुसलमानों को लुभाने की कोशिशें शुरू कर दीं. इसके तहत अल्पसंख्यकों के लिए कई योजनाओं की शुरुआत की गई. साथ ही, उन्होंने 2009 के आम चुनाव के दौरान गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार करने से भी रोक दिया. अगले वर्ष स्थानीय अखबारों में अपनी और मोदी की तस्वीर वाले एक विज्ञापन से नाराज कुमार ने भाजपा के दिग्गज नेताओं को दिए भोज को रद्द कर दिया. तमतमाते गुस्से में उन्होंने उस वक्त कहा था, “बिना पूछे मेरी तस्वीर विज्ञापन में छाप दी. ऐसा कोई करता है भला?”

नरेंद्र मोदी के बढ़ते कद की वजह से नीतीश कुमार ने जून, 2013 में भाजपा से संबंध तोड़ लिया. साथ ही, वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में मुसलमानों को लुभाने की जबरदस्त कोशिशें की. हालांकि, उस चुनाव में पार्टी बमुश्किल दो सीटें ही जीत पाई. 

फिर लालू प्रसाद के साथ मिलकर 2015 में चुनाव लड़ा और भाजपा के विजय अभियान को रोका. हालांकि, लालू और राजद के साथ भी कुमार ज्यादा दिनों तक नहीं टिक सके और अंततः वापस एनडीए के खेमे में आ गए. हालांकि, एनडीए में “घर-वापसी” के वक्त भी उन्होंने कहा था कि वे और जेडी (यू) धर्मनिरपेक्षता, राम-मंदिर और दूसरे मुद्दों पर विरोध जारी रखेगी.

हालांकि, यह दावा ज्यादा दिनों तक नहीं चला. तीन तलाक, धारा 370 के खात्मे और अब नागरिकता (संशोधन) बिल पर कुमार ने भाजपा की लकीर ही पकड़ी. तो नई रणनीति की जरूरत क्यों पड़ी? कुमार के करीबी इसे वक्त का तकाज़ा बता रहे हैं. जेडी (यू) के एक सांसद ने कहा, “देश का एक बड़ा जन मानस इस बिल के पक्ष में है. विधानसभा चुनाव अगले वर्ष होने वाले हैं. ऐसे में जोखिम क्यों लेना? लोकतंत्र में सबसे अहम होता है सरकार बनाना. अगर सत्ता आपके पास तो आप अपने तरीके से विकास के काम कर सकते हैं. वैसे भी नीतीश सरकार के विकास का रिकॉर्ड किसी से छुपा नहीं हुआ है.”

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नई रणनीति की क्या जरूरत?

अंदरखाने की चर्चाओं की मानें तो बिहार भाजपा में नीतीश के बढ़ते विरोध को शांत करने के लिए और “जन-मानस” को ध्यान में रखकर जेडी (यू) अब भगवा पार्टी के साथ कदम-से-कदम मिलाकर चल रही है. भाजपा की राज्य ईकाई के कई नेता पार्टी नेतृत्व के नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के फैसले से खुश नहीं हैं. इनमें विधायकों, सांसदों और कई केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं. खुलकर तो कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है, लेकिन इनमें से ज्यादातर 2020 में बिहार में भाजपा का मुख्यमंत्री देखना चाहते हैं. साथ ही, वे नीतीश सरकार की अल्पसंख्यक कल्याण की नीतियों का इस्तेमाल मुख्यमंत्री पर जुबानी तीर चलाने में करते हैं. जेडी (यू) नेताओं के मुताबिक इन्हें चुप कराना जरूरी है.

इसके अलावा, अक्टूबर में हुए विधानसभा उप-चुनाव में नीतीश कुमार की खुद को भाजपा से अलग दिखने की रणनीति फेल हो गई. इसमें पार्टी पांच से महज एक सीट ही जीत पाई.

पार्टी को सिमरी बख्तियारपुर और बेलहर सीट पर राजद के हाथों शिकस्त खानी पड़ी, तो सिवान की दौरंदा सीट पर भाजपा के बागी उम्मीदवार से जेडी (यू) प्रत्याशी को 27 हजार से ज्यादा मतों से हराया. भागलपुर की नाथनगर सीट पर जेडी (यू) उम्मीदवार की जीत के पीछे बड़ा कारण विपक्षी वोटों का बंटवारा रहा. किशनगंज सीट, जोकि पहले कांग्रेस के कब्जे में थी, उस पर असदुद्दीन औवैसी की AIMIM की जीत ने सभी को हैरत में डाल दिया.

इस उप-चुनाव में भाजपा की ओर से जबरदस्त दबाव के बावजूद नीतीश कुमार ने एक बार भी कश्मीर, राम मंदिर या तीन तलाक का जिक्र नहीं किया. इसीलिए भाजपा नेताओं ने हार का ठीकरा भी कुमार पर ही फोड़ा. वहीं, जेडी (यू) के प्रति मुसलमानों के घटते समर्थन को भी इसकी वजह बताई जा रही है. लोकसभा चुनाव के बाद के सर्वेक्षणों के मुताबिक मई में महज 6 फीसदी मुसलमानों ने जेडी (यू) को वोट दिया था. वहीं, अक्टूबर के उप-चुनाव में तो यह संख्या और भी घट गई.

वहीं, कई लोग इसे भाजपा के नए रूप के मुताबिक ढलने की कोशिश बता रहे हैं. उनके मुताबिक अरूण जेटली और सुषमा स्वराज के निधन के बाद भाजपा का उदार चेहरा अब बैकग्राऊंड में चला गया है. जेडी (यू) के एक मंत्री ने बताया, “नई भाजपा अब उग्र और आक्रमक है. यहां बात अब विचारों की नहीं रही. बात अब सत्ता की है. अमित शाह ने जरूर कहा है कि अगले वर्ष का विधानसभा चुनाव एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ेगा. लेकिन अगर भाजपा को हमसे ज्यादा सीटें आ गई तो? तब क्या भाजपा अपना दावा छोड़ देगी? नहीं न. ऐसे में हमें भी खुद को नई परिस्थिति के मुताबिक ढालना होगा.“

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