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आतंकी हमले: भारत ने ऐसे दिया था जवाब, अबकी बार मोदी सरकार की बारी

जानिए क्यों पाकिस्तान पर सीधा हमला नहीं कर सकता भारत. साथ ही समझिए वो सभी वजहें और आंकड़े, जो युद्ध के खिलाफ हैं.

प्रशांत चाहल
नजरिया
Updated:
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(फोटो: द क्विंट)
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इंडियन आर्मी के ब्रिगेड हेडक्वॉर्टर पर फिदायीन हमले को ‘देश पर हमला’ माना जाए? क्या शहीद हुए 18 जवानों के बदले दुश्मन देश के 1800 जवानों के सिर कलम कर देना भारत का लक्ष्य होना चाहिए? और क्या अब सिर्फ युद्ध ही भारत-पाक समस्या का समाधान बचा है?

ये सब वो सवाल हैं, जिनपर सोशल मीडिया में काफी चर्चा हो रही है. तमाम लोग ऐसे हैं, जो देशप्रेम के नाम पर भारत सरकार को ललकार रहे हैं और लाहौर को दिल्ली से मिलाने की बात कर रहे हैं.

पीएम मोदी ने वादा किया था कि उरी अटैक में शहीद हुए भारतीय जवानों की शहादत को वो व्यर्थ नहीं जाने देंगे. आरोपियों को सजा जरूर दी जाएगी. (फोटो: Twitter/@Shiv Aroor)

लोगों में यह जनाक्रोश जम्मू-कश्मीर में उरी बेस्ड इंडियन आर्मी के 12वें ब्रिगेड हेडक्वॉर्टर पर रविवार सुबह हुए उस हमले को लेकर है, जिसमें 4 हथियारबंद फिदायीन हमलावरों ने अटैक कर 18 भारतीय जवानों को शहीद कर दिया था. पूरा देश इस समय इन शहीदों की मौत का दुख मना रहा है.

लेकिन अपने आप में यह कोई पहला मामला नहीं है, जब आतंकी हमले को लेकर देश की मौजूदा सरकार पर पाकिस्तान पर चढ़ाई करने का दबाव बनाया गया हो. इससे पहले साल 2008 और 2001 में भी इस तरह की मांग उठी थी.

लेकिन रक्षा मामलों के जानकार हमेशा से यह मानते आए हैं कि पाकिस्तान के साथ युद्ध करना भारत के लिए उतना भी आसान नहीं होगा, जितना यह कहने में आसान लगता है. इसके क्या कारण हैं, इसपर आगे बात करते हैं. पहले जानिए कि सरकार पर कब-कब दबाव बनाया गया कि भारत को पाकिस्तान से निपटने के लिए ‘जुबान’ की नहीं, ‘जंग’ की जरूरत है.

2008 : मुंबई : UPA सरकार

आतंकी संगठन लश्कर-ए-तैयबा के 10 आतंकियों ने 26 नवंबर को मुंबई के सीएसटी, ताज होटल, ओबरॉय होटल और नरीमन हाउस समेत कई ठिकानों को निशाना बनाया. इस हमले में पुलिसवालों समेत 164 लोग मारे गए.

उस समय मनमोहन सिंह पीएम थे. उन्होंने संसदीय कमेटी, NSA चीफ और इंटेलिजेंस प्रमुख से मुलाकात कर सभी संभावनाओं पर बात की, जिसमें पाकिस्तान में घुसकर लश्कर-ए-तैयबा के हेडक्वॉर्टर पर हवाई हमला करना भी शामिल था.
मुंबई में आतंकियों ने ताज होटल पर किया था हमला (फोटोः Reuters)
  • इस हमले में शामिल एक आतंकी, अजमल कसाब को जिंदा पकड़ा गया. उसका लंबा ट्रायल चला और उसे फांसी दे दी गई.
  • उस समय अमेरिका ने बीच-बचाव किया. पाकिस्तान पर दबाव बनाया गया कि उसके यहां छिपे आतंकी संगठनों के खिलाफ सबूत मिलने पर कार्रवाई की जाए.
  • इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर के मुताबिक, अमरिकी सेनेटर जॉन मकेन ने लाहौर में एक मीटिंग के दौरान कहा था कि भारत में मनमोहन सिंह की डेमोक्रेटिक सरकार दबाव में है. मनमोहन सिंह तिलमिलाए हुए हैं. और पाकिस्तान ने आंतकी संगठनों के खिलाफ सबूत मिलने पर कोई कार्रवाई नहीं की, तो भारत हमला कर सकता है.
  • सूत्रों की मानें, तो उस वक्त भारतीय फौज की युद्ध को लेकर तैयारी अधूरी थी. अमेरिका का भी दबाव था कि भारत युद्ध में नहीं उतरे.
मुंबई हमले में जिंदा पकड़ा गया एक मात्र आतंकी अजमल कसाब (फोटोः Reuters)

फिर हुआ क्या?

अमेरिका ने लश्कर-ए-तैयबा को आकंती संगठन करार दिया. पाकिस्तान ने माना कि भारत पर हमला करने वाले पाकिस्तानी थे. इसके चलते कुछ गिरफ्तारियां की गईं. वहीं भारत ने कहा कि पाकिस्तान के साथ भारत कोई द्वि‍पक्षीय संबंध नहीं रखेगा. लेकिन यह भी कहा गया कि 2005 में शुरू की गई बस सेवा को और क्रॉस बॉर्डर ट्रेड को जारी रखा जाएगा.

2001 : भारतीय संसद : वाजपेयी सरकार

13 दिसंबर, 2001 को कथित तौर पर जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा के 5 हथियारबंद आतंकियों ने भारतीय संसद पर हमला किया. फर्जी एंट्री पास बनवाकर संसद में घुसे आतंकियों ने एक घंटे चली गोलीबारी में एक पत्रकार, एक माली समेत 12 सुरक्षा गार्ड्स को मौत के घाट उतार दिया.

उस वक्त केंद्र में एनडीए की सरकार थी. गृहमंत्री थे लालकृष्ण आडवाणी. उन्होंने हमले के तुरंत बाद संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई और पाकिस्तान के खिलाफ खूब जहर उगला. भारत सरकार ने पाकिस्तान को इस हमले का जिम्मेदार ठहराया.

मंच साझा करते लाल कृष्ण आडवाणी और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी. (फोटो: PIB)
आडवाणी ने कहा- बीते दो दशक में पाकिस्तान द्वारा की गई यह सबसे बड़ी आतंकी वारदात है. इसके लिए पाकिस्तान को माफ नहीं किया जाएगा.
  • कुछ रिपोर्ट्स में छपा कि इंडियन कैबिनेट कमेटी ने संसद हमले के लिए पाकिस्तानी एजेंसी आईएसआई (ISI) को जिम्मेदार ठहराया. साथ ही कहा कि पाकिस्तान को सैन्य हमले की घुड़की देनी ही होगी.
  • तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पश्चिमी सीमा पर सैनिकों की संख्या बढ़ाने का आदेश दिया. तो पाकिस्तान ने युद्ध की स्थिति प्रबल होते देख अमरिका के साथ अफगानिस्तान में तैनात अपने सैनिकों को भारतीय सीमा पर लगा दिया था.
  • दोनों देशों ने उस समय बस परमाणु हथियार तैयार किए ही थे. और यह पहला मौका था जब अमेरिका को लगने लगा था कि साउथ एशिया में परमाणु हथियार इस्तेमाल हो सकते हैं.
  • अमरीका ने इस मामले में बीच-बचाव किया. ब्रिटेन और रूस भी खुलकर सामने आए और युद्ध को टालने का प्रयास किया. पूरे मामले को शांत कराया गया. तत्कालीन पाकिस्तानी पीएम परवेज मुशर्रफ को कहा गया कि वे जिहादी संगठनों के खिलाफ सख्त रवैया अपनाएं.
  • जानकार बताते हैं कि युद्ध को लेकर भारत उस वक्त खुद असमंजस में था. वाजपेयी परमाणु हथियार इस्तेमाल करना नहीं चाहते थे. साथ ही उनका सपना था कि लोग उन्हें शांति और सौहार्द के लिए याद करें, इसलिए युद्ध पर कोई फैसला नहीं हो पाया.

...और इसके बाद

अक्टूबर, 2002 में सेनाएं सीमा से पीछे हटा ली गईं. जनवरी, 2004 में दोनों देशों ने संयुक्त वार्ता का रास्ता चुना.
(फोटो: PIB)

2016 : उरी हमला : मोदी सरकार

2008 और 2001 के आतंकी हमलों के मुकाबले जम्मू-कश्मीर के उरी आर्मी हेडक्वॉर्टर पर हमला होना और 18 जवानों का शहीद होना, क्या वाकई भारत के लिए इतना बड़ा कारण है कि मौजूदा केंद्र सरकार पाकिस्तान से युद्ध का चुनाव करे? इसका जवाब टटोलने के लिए 1988-2016 तक आतंक के आंकड़ों पर एक नजर डालिए:

  • 1988 से 18 सितंबर, 2016 तक कुल 6,250 भारतीय रक्षाकर्मी आतंकी वारदातों में शहीद हुए हैं.
  • वहीं जवाबी कार्रवाई में कुल 23,084 आतंकियों को भारतीय जवानों ने मार गिराया.
  • उरी आतंकी हमले में मारे गए 18 जवानों से अलग 156 जवान अकेले नरेंद्र मोदी सरकार (दो साल) में शहीद हुए हैं.
  • आतंकी वारदातों में मारे गए जवानों की सालाना औसत मृत्यु दर पर नजर डालें, तो यह आंकड़ा कांग्रेस की मनमोहन सरकार से जरा भी कम नहीं है.
  • बल्कि कश्मीर में आतंकी वारदातों की संख्या वाजयेपी और मनमोहन सरकार की तुलना में मोदी सरकार में बढ़ी हैं.

(सभी आंकड़े साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के मुताबिक)

लाहौर में नवाज़ शरीफ के घर पर पीएम मोदी का स्वागत करते पाक अधिकारी. (फोटो: PTI)

बहरहाल, भारतीय इतिहास में पाकिस्तान को आतंकवाद का गुनहगार ठहराकर, उसे युद्ध में घसीटने के लिए भारत के पास दो ही सबसे बड़े मौके थे. 2001 और 2008. लेकिन इन मौकों को भी भारत ने युद्ध में तबदील नहीं किया. जानकारों के मुताबिक, इसके कई कारण थे.

युद्ध से बचना: चुनाव या फिर मजबूरी?

रक्षा विशेषज्ञ उदय भास्कर, वाजयेपी सरकार में पाकिस्तान को घुड़की देने के लिए चलाए गए ऑपरेशन पराक्रम (2001-2003) का हवाला देते हुए कहते हैं कि बिना तैयारी के मैदान में उतरना भारत को पहले भी बहुत भारी पड़ा है. वो बताते हैं,

संसद हमले के बाद दोनों देशों ने अपने 8 लाख सैनिक सीमा पर खड़े कर दिए थे. इसमें भारत को 3 बिलियन डॉलर खर्च करने पड़े. ऑपरेशन खत्म होने के बाद जुलाई, 2003 में तत्कालीन रक्षामंत्री जॉर्ज फर्नांडिस ने बताया कि ऑपरेशन के दौरान भारत के 798 जवान शहीद हुए, जबकि 1999 के कारगिल युद्ध में भारत के 527 जवान ही शहीद हुए थे.
सेना के शहीद जवानों को श्रद्धांजलि. (फोटो:Twitter/SpokespersonMoD)

उदय भास्कर ‘ऑपरेशन पराक्रम’ को भारतीय सेना की सबसे बड़ी गलती मानते हैं. वहीं रक्षा मामलों के अन्य जानकार मानते हैं...

  • दोनों देशों के पास परमाणु हथियार हैं. इसका डर ही युद्ध की ओर न जाने का एक बड़ा कारण भी है.
  • अंतरराष्ट्रीय दबाव भी युद्ध रोकने के लिए हमेशा बना रहेगा.
  • भारत की इकोनॉमी और सैन्य तैयारी पाकिस्तान से युद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है.
  • कारगिल युद्ध में दोनों देशों के लगभग बराबर सैनिक मारे गए थे. दोनों देशों के बॉर्डर जहां थे, वहीं रहे. ऐसे में फिर युद्ध करने का कोई कारण नहीं नजर आता.
  • भारत में लगा विदेशी निवेशकों का पैसा आसानी से भारत को युद्ध में उतरने की इजाजत नहीं देगा.
  • पीएम नरेंद्र मोदी के डिजीटल इंडिया और मेक इन इंडिया जैसे प्रोजेक्ट भी युद्ध की इजाजत नहीं देते.

सभी आंकड़ों पर नजर डालें और मोदी सरकार की बंदिशों को समझें, तो भारत-पाकिस्तान का युद्ध कहीं से भी व्यावहारिक विकल्प नहीं लगता है.

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Published: 20 Sep 2016,11:29 PM IST

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