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राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल ने गुरुवार को सरदार पटेल मेमोरियल व्याख्यान में जो मुद्दे उठाए हैं, उसका समर्थन करना बहुत मुश्किल है. किसी भी ऑपरेशन को पूरी दक्षता के साथ पूरा करने के लिए मशहूर रहे तेज तर्रार डोभाल ने कहा:
डोभाल का यह कठोर बयान उसी दिन आया है, जिस दिन सरकार ने कानून के शासन को नीचा दिखाया और इसके खुफिया अधिकारी संदिग्ध रूप से सीबीआई प्रमुख की जासूसी करते पकड़े गये. इससे एक रात पहले ही सीबीआई प्रमुख से उनके अधिकार ले लिए गए थे.
2014 में 30 साल में पहली बार भारत को एक ऐसी सरकार मिली, जो गठबंधन सरकार नहीं थी. इसके नेता को सरकार और बीजेपी पर पकड़ रखने और बेरोकटोक फैसला लेने के लिए जाना जाता था. तोहफे के तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण कच्चे तेल की कीमतें विगत वर्ष की तुलना में आधी हो चुकी थीं और 2017 तक निचले स्तर पर बनी रहीं.
मोदी ने भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का वादा किया था. एक ऐसी सरकार, जो निर्णय लेने में सक्षम होगी और बाजार के अनुकूल सुधार को आगे बढ़ाएगी. हकीकत में हम ऐसी सरकार के गवाह बने जो पूरी तरह से पक्षाघात की शिकार थी. देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी के नंबर 1 और नंबर 2 अधिकारी एक-दूसरे के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगा रहे थे. इतना कहना अपर्याप्त है कि सरकार का जवाब अस्पष्ट रहा है.
आधुनिक तकनीक से लैस सेना और चौथी पीढ़ी के कॉन्टेक्ट-लैस वॉर की तैयारी की जहां तक बात है सरकार का रिकॉर्ड बहुत ही बुरा है. मोदी सरकार में सशस्त्र सेना गम्भीर वित्तीय संकट में रही है.
भारत का रक्षा बजट जीडीपी का महज 1.57 फीसदी है जो 1962 में घातक चीनी हमले के समय से भी कम है. लेकिन यह मुद्दा नहीं है. महत्वपूर्ण बात ये है कि जब तीनों सेवाओं के लिए नये उपकरणों की खरीददारी की बात आती है, पूंजीगत खर्च का ब्योरा तैयार किया जाता है तो गंभीरता के साथ सभी तीनों सेनाओं की जरूरतों को छोटा कर दिया जाता है.
थल सेना के मामले में 21,338 करोड़ का आवंटन वास्तव में पिछले कॉन्ट्रैक्ट के पेमेंट के लिए भी कम पड़ जाता है, जो 29 हजार 33 करोड़ का है. ये कॉन्ट्रैक्ट उन नये उपकरणों के हैं जो सेना को उस युद्ध के लिए तैयार करेगी, जिसकी चर्चा डोभाल कर रहे हैं. और, अभी की बात करें तो उस मोर्चे पर कुछ भी नहीं हो रहा है.
डोभाल की क्षमता को सरकार से ज्यादा दिखाने की परंपरा जस की तस है. हालांकि, इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पूर्व अधिकारियों के मुकाबले उन्हें अभूतपूर्व जिम्मेदारी मिली हैं. प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव रहे ब्रजेश मिश्रा जरूर अपवाद हैं.
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के तौर पर किसी भी मामले में वे सुरक्षा एजेंसियों का नेतृत्व करते हैं. चीन और पाकिस्तान संबंधी नीतियों के वे सूत्रधार हैं. वे न्यूक्लियर कमांड अथॉरिटी की एक्जीक्यूटिव काउंसिल का नेतृत्व करते हैं.
साल के शुरुआत में सरकार ने अपने विवेक से डोभाल को रक्षा योजना समिति का प्रमुख बना दिया. यह एक बहुत असामान्य व्यवस्था थी, जिसमें भारत की परम्परागत और बिखरे हुई रक्षा प्रबंधन व्यवस्था को आंका जाना था. यह साफ नहीं है कि इस नवाचार का कोई नतीजा निकलेगा या नहीं. या फिर, हमारी रक्षा व्यवस्था को प्रभावित करने वाली अहम समस्याओं को दूर करने में यह प्रभावी होगा या नहीं.
डोवाल जिस राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद का नेतृत्व करते हैं और जिसका उन्होंने विस्तार किया है, उस परिषद की व्यवस्था में वे अहम बदलाव लेकर आए हैं. बाद के तथ्य इसके बजट में जबरदस्त विस्तार से साफ हो जाते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद ने पार्लियामेंट स्ट्रीट में मौजूद समूचे सरदार पटेल भवन का अधिग्रहण कर लिया है, जहां आधे से ज्यादा जगह पर हाल तक इसका कब्जा रहा था.
एक बार फिर ये बात सही नहीं है कि सारी जिम्मेदारी डोभाल के माथे पर डाल दी जाए. लेकिन कुछ उदाहरणों में उन्हें निश्चित रूप से जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी जो निम्नस्तरीय ऑपरेशनों और बुरी रणनीतियों से जुड़ी हैं. आगाह कर दिए जाने के बावजूद व्यक्तिगत रूप से ऑपरेशन के प्रभारी रहे डोभाल ने भारतीय प्रतिक्रिया को दबाया. तब जम्मू और कश्मीर में अपने कठिन रणनीतिक रास्ते पर वे चल पड़े जिससे कोई रास्ता नहीं निकला. उनकी नीतियों से तनाव बढ़ा.
चीन के लिए निर्वासित तिब्बतियों और उईघुरों को बढ़ावा देकर चीन को परेशान करने वाली नीतियों के बाद एनएसजी में भारत को समर्थन देने या मसूद अजहर के मामले में मात खानी पड़ी. डोभाल के बॉस प्रधानमंत्री मोदी ने तय किया कि विवेक से फैसला लेना ही बेहतर है और शी जिनपिंग के साथ वुहान में शांति की बात की.
डोभाल ने अपने भाषण में जो कुछ आज कहा है उसकी अहमियत को समझने के लिए उनके रिकॉर्ड का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण है. निश्चित रूप से भारत की जरूरत मजबूत स्थिर और निर्णय लेने वाली सरकार है, ऐसी सरकार, जो कारोबार और तकनीकी अधिग्रहण को बढ़ावा दे और जिसमें कानून के शासन की धार मजबूत हो.
लेकिन जरूरत इस बात की भी है कि सरकार सक्षम हो. दुर्भाग्य से जिस सरकार के लिए डोभाल ने काम किया है उसने अब तक नीतियों को प्रभावी तरीके से लागू करने में अपनी क्षमता का प्रदर्शन नहीं किया है.
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउन्डेशन, नई दिल्ली के प्रतिष्ठित फेलो हैं)
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