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जाओ पहले उस आदमी का साईन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पर ये लिख दिया कि सभी देशवासी टैक्सचोर हैं. अजीब देश है भारतवर्ष भी. और अजीब हैं हम सब भारतवासी.
एक ओर हम अपने से अलग जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति वालों पर विश्वास नहीं करते. दूसरी तरफ हम अपने प्रिय प्रधानमंत्री पर विश्वास कर बैठे हैं कि 500-1000 रुपए के नोटबंदी से देश का कालाधन खत्म हो जाएगा. भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा. आतंकवाद खत्म हो जाएगा. जाली नोट खत्म हो जाएंगे.
मुश्किल से एक या दो प्रतिशत टैक्सचोरों की वजह से 98 प्रतिशत देशवासी अपने खून-पसीने का पैसा बैंक में जमा कराने या निकालने के लिए लाइनों में खड़े हैं.
नहीं खड़े हैं तो सिर्फ वो लोग, जो टैक्स की चोरी करते रहे हैं. जिनकी वजह से कालाधन बनता रहा है. नेता, सरकारी बाबू, बड़े वकील, बड़े डॉक्टर, पुलिस अफसर. क्या इनमें से किसी को बैंक की लंबी लाइनों में लगे देखा है.
कांग्रेस की भी कुछ यही हालत है. पंजाब और उत्तर प्रदेश में चुनाव जो लड़ना है. तो ये नोटबंदी का निर्णय न निगलते बन रहा है न उगलते.
अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी मोदी विरोधी खेमे की धुरी बनने की कोशिश में लगे हैं.
चलिए जब मोदीजी ने इतना बड़ा फैसला लिया ही है तो उसका राजनीतिक फायदा तो उनकी पार्टी को मिलना ही चाहिए. आखिर टाइमिंग भी कोई चीज होती है. तो पंजाब और यूपी तो जेब ही में समझिये!
लेकिन अगर प्रधानमंत्री के इस फैसले के बारे में बीजेपी की राज्य इकाइयों और नेताओं को पहले से जानकारी थी तो मामला बेईमानी का बैठेगा. और इस मुद्दे पर अब तक ठोस जवाब नहीं आया है.
अब फैसला बड़ा हुआ तो उसका असर भी बड़ा हो गया. 8 नवंबर को रात आठ बजे घोषणा करते वक्त मोदी साहब को भी इतनी उम्मीद न थी कि आम जनता को, खास कर गरीब, मजदूर, किसान को इतनी परेशानी उठानी पड़ेगी.
ये सब बेचारे इसी उम्मीद में लाइन में लगे रहे कि अब भ्रष्टाचारियों की खैर नहीं. बस अब देश से कालाधन खत्म होने को ही है! और तो और आतंकवाद भी खत्म हो जाएगा.
लाइन में लगे समझदार लोगों को कहां पता था कि प्रधानमंत्री जो घोषणा कर रहे हैं कि दो दिन बाद से एटीएम मशीनें काम करने लगेंगी उनको खुद नहीं पता था कि रीकेलिब्रेशन भी कोई बला है.
देश में एक बार में 86 प्रतिशत नोट नाजायज करने से कैसे छठी का दूध याद आ जाता है इसका इल्म चलो मोदीजी को न रहा हो, ये तो माना जा सकता है, लेकिन पूरी जिंदगी वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक में काम करने वाले बाबू ये सब नहीं जानते थे तो उनका अपनी मोटी तनख्वाह और ऊंची कुर्सी पर बैठने का कोई अधिकार नहीं! और इसलिये अब कोशिश हो रही है कि संसद के अंदर और बाहर विपक्ष के दोषारोपण से नरेंद्र मोदी को किसी तरह अलग किया जाये और ठीकरा बाबूओं के सिर फोड़ा जाये.
हां, बात हो रही थी टाइमिंग की. यूपी के चुनावों की. अब एक बात बीजेपी को सताने लगी है कहीं ये डिमाॅनेटाइजेशन पार्टी के लिये "इंडिया शाइनिंग" मोमेन्ट न हो जाये! आडवाणी जी और प्रमोद महाजन ने देश की नब्ज पकड़ने में गलती की, 2004 के चुनाव समय से पहले कराये और हार गये.
2016 में नतमस्तक हुआ मीडिया लगातार दिखा रहा है की आम आदमी फैसले से बहुत खुश है. याद रहे, अंदर की लहर नजर नहीं आती! मीडिया और इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट अपने आकाओं को खुश करने के हिसाब से बनाई जाती है!
जब इंसान बेबस, नाराज और लाचार होता है तो उसका गुस्सा चुनाव में ही फूटता है. तो कहीं ये गुस्सा यूपी और पंजाब चुनावों में ही न फूट पड़े!
वैसे भी 2019 के लोक सभा चुनावों तक लेवल प्लेयिंग फील्ड हो ही जाना है. या तो सभी दलों के पास समान रूप से काला धन होगा या सभी दलों को बड़े व्यापारियों और इंडस्ट्रियलिस्टों ने इतना पैसा मुहैया करा दिया होगा कि वो मजे से चुनाव लड़ रहे होगें! भई, सबको अपनी अपनी दुकान चलानी होती है!
हां, इतना जरूर है कि आम आदमी, जिस ने देश बदलने के लिये अपने प्रधानमंत्री पर भरोसा किया, वो तब भी आपको किसी न किसी लाइन में ही लगा मिलेगा!
(इस आर्टिकल के लेखक जाने-माने पत्रकार और NDTV वर्ल्डवाइड के मैनेजिंग एडिटर हैं. यह उनके निजी विचार हैं. आलेख के विचारों में क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 29 Nov 2016,07:32 PM IST