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इस किताब का नाम संजय बारू की साल 2014 की बेहद सफल बुक ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ से लिया गया है, लेकिन दोनों के बीच समानता इतनी ही है.
बारू, मनमोहन सिंह के मीडिया एडवाइजर थे. वह चार साल तक पूर्व प्रधानमंत्री के साथ काम कर चुके थे. बारू पहले से भी मनमोहन को अच्छी तरह जानते थे, लेकिन थरूर को मोदी को करीब से जानने का ‘सौभाग्य’ नहीं मिला है. शायद थरूर इसे ‘सौभाग्य’ न मानते हों, क्योंकि कई लोग नरेंद्र मोदी को पारवेन्यू (parvenu) मानते हैं.
कैंब्रिज डिक्शनरी में पारवेन्यू का मतलब है- ऐसा गरीब इंसान, जिसे बाद में ख्याति मिली, जिसका प्रभाव बढ़ा या जिसने सेलिब्रिटी का दर्जा हासिल किया.
थरूर ऐसे नहीं हैं. वह मंजे हुए इंटेलेक्चुअल हैं. अच्छे परिवार से आते हैं. उन्हें अच्छी शिक्षा मिली है. वह फाइन डाइनिंग और दुर्लभ वाइन की दुनिया से वाकिफ हैं. वैसे थरूर ने कोशिश की है कि किताब में मोदी के प्रति पूर्वाग्रह न दिखे. कांग्रेस पार्टी के दूसरे नेताओं की तरह उन्होंने मोदी को कोसा नहीं है.
उन्होंने मोदी को 'मौत का सौदागर', 'चोर', 'चायवाला' या 'नीच' नहीं बताया है. ऐसी भाषा शायद थरूर की गरिमा से मेल नहीं खाती. हालांकि मोदी नाम की परिघटना से वह किस कदर हैरान हैं, वह किताब में साफ दिखता है. यह भी कह सकते हैं कि मोदी को समझना उनके बस की बात नहीं है.
थरूर लिखते हैं कि मोदी कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं. किताब में इसकी कई मिसालें हैं. थरूर के मुताबिक इससे मोदी के विरोधाभासी होने का पता चलता है. लेकिन क्या यह विरोधाभास है? लगभग सारे नेता ही इसी तरह से सफलता हासिल करते हैं. वे सत्ता पाने के लिए वादे करते हैं, लेकिन राज करने के लिए उन्हें वादे तोड़ने पड़ते हैं.
इस लिहाज से देखें, तो थरूर की किताब का नाम ‘ब्रोकेन प्रोमिसेज’ या ‘शैटर्ड होप्स’ या ऐसा ही कुछ और होना चाहिए था. ये नाम भले आकर्षक न हों, लेकिन किताब की मूल भावना के करीब जरूर हैं.
किताब में ‘विरोधाभासी’ मोदी के अलग-अलग पहलुओं पर 50 जुनूनी लेख हैं. लेख लंबे हैं, लेकिन किताब के ज्यादातर चैप्टर्स में मोदी के साढ़े चार साल के कार्यकाल के बारे में कई ऐसे मुद्दे उठाए गए हैं, जो आंशिक तौर पर सही हैं. मोदी का फेल होना किताब की थीम है.
सरकार के कामकाज का विश्लेषण करते वक्त थरूर ने कोई मुरव्वत नहीं बरती है. वह मोदी सरकार के वादों की तरफ ध्यान दिलाते हैं और कहते हैं कि प्रधानमंत्री ने इन्हें पूरा नहीं किया. थरूर की नजर में मोदी घपलेबाज हैं. वैसे दुनिया के सभी प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों के बारे में यही बात कही जा सकती है. मैंने ऐसा एक भी प्रधानमंत्री नहीं देखा है, जिसने सारे वादे पूरे किए हों.
अक्सर किसी प्रधानमंत्री के प्रति हमारे मन में काफी समय के बाद आदर का भाव पनपता है और तब हम उसके कार्यकाल को भावुकता के साथ याद करते हैं. थरूर को यह बात जरूर पता होगी. उन्हें इसका जिक्र किताब में करना चाहिए था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. इससे थरूर का पक्ष कमजोर होता है.
यह भी सच है कि मेरे जैसे कई लोगों ने शुरू में मोदी का समर्थन किया था, लेकिन जिनका जल्द ही उनसे मोहभंग हो गया. वह बदलाव के मसीहा बनकर आए थे, जिन पर जनता ने भरोसा किया था. हालांकि जब राजकाज चलाने की बात आई, तो जहां उन्हें अड़ना चाहिए था, वहां उन्होंने टालमटोल किया. जहां सख्ती दिखानी चाहिए थी, वहां वह नरम पड़ गए.
मोदी को जहां मेच्योरिटी दिखानी चाहिए थी, वहां वह ड्रामा करने लगे और जिन मामलों में दूसरे से सलाह करके फैसला करना था, वहां उन्होंने अपने मन की चलाई.
इस अप्रोच की वजह से किताब का प्रभाव काफी कम हो जाता है, न कि इस वजह से कि थरूर में ऐसे विश्लेषण की क्षमता नहीं है. वह इस उम्मीद को खुद यह कहकर तोड़ देते हैं कि भारतीय राजनीति सूक्ष्म विश्लेषण का विषय नहीं है. ऐसे में आप यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि कहीं पूरी किताब सिर्फ राजनीतिक विरोध के लिए तो नहीं लिखी गई है.
थरूर यह मानने तक को तैयार नहीं हैं कि कम से कम मोदी की नीयत ठीक है. न ही वह यह मानते हैं कि मोदी इसलिए बड़े लक्ष्य तय करते हैं, क्योंकि अगर उसका 25 पर्सेंट हिस्सा भी पूरा हुआ, तो भारतीय संदर्भ में वह बड़ी उपलब्धि होगी. अगर आप पीएमओ में प्रधानमंत्री के साथ काम करने वालों से पूछें तो वे बताएंगे कि मोदी की वजह से कितने बदलाव हुए हैं. इसका असर आने वाले वर्षों में सबके सामने आ जाएगा.
थरूर ने यह समझने की कोशिश भी नहीं की है कि मोदी का दिमाग कैसे काम करता है. अगर उन्होंने यह कोशिश की होती तो विरोधाभास वाली पहेली सुलझ सकती थी. अगर दूसरे प्रधानमंत्रियों के साथ मोदी का तुलनात्मक विश्लेषण किया जाता, तो भी किताब बहुत काम की साबित होती, लेकिन थरूर ने इसकी कोशिश तक नहीं की.
नेहरू का दिमाग आदर्शों के हिसाब से काम करता था. इंदिरा गांधी को लगता था कि हर चीज उनकी जागीर है. राजीव दूसरों पर भरोसा करके चलते थे और नरसिम्हा राव का दिमाग हमेशा उहापोह में रहता था. अटल बिहारी वाजपेयी को नेहरू और राव का मिला-जुला रूप माना जा सकता है, जबकि मनमोहन सिंह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे.
मोदी को लगता है कि पुरातन हिंदू ग्रंथों में समूचा ज्ञान है, लेकिन यह भी मानते हैं कि सिर्फ साइंस और टेक्नोलॉजी की मदद से हम गरीबी को खत्म कर सकते हैं.
नोटबंदी को छोड़ दें, तो मोदी को भ्रमित प्रधानमंत्री नहीं कहा जा सकता. वह फटाफट काम करना चाहते हैं. सारी बाधाओं को खत्म करने के हिमायती हैं. वह भारतीय नौकरशाही के सुस्त रवैये के बावजूद काफी काम करने की कोशिश कर रहे हैं. मोदी ऐसे प्रधानमंत्री नहीं हैं, जिसे अच्छी विरासत मिली हो. 2014 में उन्हें कांटों का ताज मिला था.
अगर उनमें कोई कमजोरी है, तो वह बड़बोलापन और चुनाव हारने का भय है. कभी चुनाव न हारने वाले मोदी के लिए सब कुछ राजनीतिक और उनसे जुड़ा हुआ है. शायद उसी तरह, जैसे इंदिरा गांधी को लगता था कि देश पर राज करने की योग्यता सिर्फ उनके परिवार के पास है. थरूर किताब में ऐसी तुलना नहीं करते. वह मोदी के कामकाज का विश्लेषण संदर्भों से जोड़कर नहीं करते. इसके बजाय उनका पूरा ध्यान मोदी राज की गलतियों पर है और वह अपने नेता राहुल गांधी की तरह बचकाने अंदाज में इसके लिए निजी तौर पर प्रधानमंत्री को कसूरवार ठहराते हैं.
कुल मिलाकर, यह किताब राजनीतिक विरोध से काफी आगे तक जा सकती थी. अफसोस की बात यह है कि थरूर ने वही रास्ता चुना, जिस पर पहले न जाने कितने लोग चल चुके हैं. असल में यह किताब एक राजनेता ने लिखी है, न कि गंभीर विश्लेषक ने.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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