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सिंबा जैसी फिल्में न्यायिक व्यवस्था से हमारा भरोसा कम करती हैं

सिंबा पुलिसिया यातना और हत्याओं को ही सही साबित करती हैं

माशा
नजरिया
Updated:
(फिल्म पोस्टर)
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(फिल्म पोस्टर)

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हैरानी की बात नहीं कि सिंबा ने वीकेंड पर सौ करोड़ कमाए. बलात्कार की प्रतिशोध कथाओं को दर्शक पसंद ही करते हैं. नायक औरत (सिंबा में ‘बहन’) की इज्जत के लिए कानून हाथ में लेता है- हम खलनायक की पिटाई पर तालियां पीटते हैं. सिंबा भी इसी फॉर्मूले पर हिट कहलाई जा रही है. हीरो पुलिस वाला है, पहले करप्ट है, फिर ‘बहन’ के बलात्कार के बाद ईमानदार बन जाता है. पीड़ित को न्याय देने के लिए अपराधी को सजा देता है. फिल्म हिट हो जाती है.

हमें इसमें कुछ भी असामान्य नहीं लगता. पुलिसवाला तो सजा देने के लिए ही होता है. सामान्य बात है. इसी के साथ कस्टोडियल वॉयलेंस, कस्टोडियल टॉर्चर, एंकाउंटर और एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल किलिंग भी सामान्य ही लगती है. सिंबा इन सबको सेलिब्रेट करती है. हिंसा के सभी दृश्य सामान्य लगते हैं, जिसके लिए सत्ता की अनुमति है और जिसे नायक फलीभूत कर रहा है. असल दिक्कत यहीं से शुरू होती है.
(फोटो: Ranveer Singh Twitter)

जब हम मनमाने ढंग से हिरासत में लेने, हिंसा और यातना देने, साथ ही न्याय प्रणाली के बाहर हत्या को वैध करार देते हैं तो अक्सर इसका शिकार वह तबका होता है जिसके पास न्याय व्यवस्था तक पहुंचने के साधन नहीं होते. ये कौन हैं- दलित, आदिवासी, मुसलमान और कमजोर तबके. हाल ही में उत्तर प्रदेश में हुई घटनाओं के बाद सिटिजंस अगेंस्ट हेट नामक ग्रुप ने एक शोध किया और यही पाया कि एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल किलिंग्स और एंकाउटर के अधिकतर शिकार दलित और मुसलमान ही हुए.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े कहते हैं कि जेलों में बंद लोगों में 15.8 प्रतिशत मुसलमान हैं और अंडरट्रायल्स में उनका प्रतिशत 20.9 है. यह देश में उनकी कुल जनसंख्या 14.2% से ज्यादा है. कुछ राज्यों में तो यह अंतराल बहुत बड़ा है. इसी तरह एनसीआरबी की रिपोर्ट यह भी कहती है कि जेलों में 53% दलित, मुसलमान और आदिवासी कैदी हैं, जबकि देश में उनकी आबादी 39% है.

(फोटो: iStock)
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यूं पुलिसिया यातना पर देश में कोई ठोस कानून नहीं है, पिछले साल विधि आयोग ने विधि और न्याय मंत्रालय को एक रिपोर्ट सौंपी थी. इस रिपोर्ट में कानून के जरिए यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार या सजा देने की पड़ताल की गई थी. आयोग ने गौर किया था कि मौजूदा भारतीय कानूनों में यातना की कोई परिभाषा नहीं दी गई है. एक यातना रोकथाम विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है, जिसके दायरे में पब्लिक सर्वेंट या उसकी तरफ से यातना देने वाले लोगों के लिए सजा तय की गई है, लेकिन अभी यह मसौदा ही है.


सिंबा या उससे पहले की तमाम फिल्में पुलिसिया यातना और हत्या को वैध साबित करती हैं. इस तरह हम सरकारी मशीनरी को इस बात के लिए आजाद कर देते हैं कि वे अपने विवेक से फैसला करें. पूछताछ, जांच और कानूनी प्रक्रिया सिरे से नदारद हो जाती है. नायक उसे अंगूठा दिखाता है और बलात्कार के आंकड़ों से भरा हुआ भाषण देता है. बाकी सब चुप हो जाते हैं.
(फोटो: फिल्म स्टिल)

सिंबा सजा देने की वकालत करती है

फिल्म ‘सिंबा’ सजा देने की वकालत करती है और उसका तरीका भी सुझाती है. एक पुलिसवाला कहता है, जब तक हम रेपिस्ट्स लोग को ठोकते नहीं ना, तब तक कुछ नहीं बदलेगा. हीरो पुलिसवाला गोलियां चलाता है, अपराधियों को ठोकता चलता है. दूसरी दिक्कत भी यहीं से शुरू होती है. 2012 में ज्योति सिंह के बलात्कार के बाद भी बहुत से लोगों ने यही कहा था. बलात्कारियों को चौराहे पर फांसी देने की वकालत की गई थी.

अभी हाल ही में आपराधिक कानून संशोधन अध्यादेश भी आया है, जिसमें 12 साल से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार करने वाले अपराधी को फांसी का प्रावधान है. यह बात अलग है कि दुनिया भर के तमाम अध्ययनों में कहीं यह बात साबित नहीं हो पाई है कि फांसी से बलात्कार के मामले कम होते हैं या बलात्कार का खात्मा होता है.

इस पर भिन्न-भिन्न कानूनविदों के भिन्न-भिन्न विचार हैं. बलात्कार के मामलों में सजा पर विचार करते समय जस्टिस वर्मा कमेटी (2013) ने भी बलात्कार के लिए मौत की सजा का समर्थन नहीं किया था. मार्च 2013 में संसद ने आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 पारित किया था ताकि बलात्कार के उन मामलों में मृत्यु दंड देने के लिए आईपीसी, 1860 में संशोधन किया जा सके, जहां बलात्कार के साथ की गई क्रूरता से पीड़ित की मृत्यु हो जाए या वह लगातार वेजिटेटिव स्टेट में चली जाए, या अगर अपराधी कई बार अपराध कर चुका हो.

(फोटो: क्विंट)

‘सिंबा’ जैसी फिल्में इस न्याय व्यवस्था से दर्शकों का भरोसा कम करती हैं. नायक ही सारी लड़ाई लड़ता है, अक्सर कानूनी दायरे को लांघते हुए, उसे दर्शक फ्रीहैंड देते हैं कि चलो भइया हमारी तरफ से आप उठ खड़े हो जाओ. कभी-कभी दर्शक खुद भी इंसाफ देने पर उतारू हो जाता है. तब हिंसक भीड़ ही तय कर लेती है कि कौन अपराधी है और किसे कितनी सजा दी जानी चाहिए. दर्जन भर से ज्यादा लोग मॉब लिंचिंग का शिकार हो चुके हैं. यही भीड़ दर्शकों में बदलती है और सिंबा को हिट और ब्लॉक बस्टर बनाती है, इसमें हैरानी की क्या बात है.

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Published: 04 Jan 2019,01:55 PM IST

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