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पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के एनडीए सरकार के कार्यकाल में अल्पसंख्यकों के असुरक्षित महसूस करने वाले बयान पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है. कई लोगों का कहना है कि उन्हें उपराष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद ऐसी बात कहनी चाहिए थी.
इन लोगों का मानना है कि अगर अंसारी ने उपराष्ट्रपति पद छोड़ने के कुछ मिनट बाद भी यह बयान दिया होता, तो इससे संवैधानिक पद की मर्यादा बनी रहती. इस मामले में मैं कुछ सवाल करना चाहता हूं.
1. अगर यही बात किसी हिंदू उपराष्ट्रपति ने कही होती, तो क्या प्रधानमंत्री की तरफ से इतनी तीखी प्रतिक्रिया होती?
2. इससे भी जरूरी बात यह है कि अगर हामिद अंसारी यूपी के अलावा किसी और राज्य से होते, तो क्या उन्होंने यह बयान दिया होता?
3. क्या यूपी के मुसलमान जितने डरे हुए हैं, उतने ही दक्षिण भारत के मुसलमान भी डरे हुए हैं?
4. क्या अंसारी ने जिस असुरक्षा का जिक्र किया है, वह सिर्फ बीजेपी के राज वाले राज्यों तक सीमित है?
5. केरल में मुसलमानों की बड़ी आबादी है, लेकिन वहां लड़ाई वामपंथियों और आरएसएस के बीच क्यों है? क्या यह हिंदू बनाम मुस्लिम नहीं होना चाहिए था? इसी तरह, बंगाल में कौन, किससे लड़ रहा है? वहां लड़ाई टीएमसी और बीजेपी के बीच है या हिंदू और मुसलमानों के बीच?
अगर आप इन सवालों का जवाब ईमानदारी से देंगे, तो पाएंगे कि हिंदू-मुसलमान के रिश्ते को जिस तरह से देखा जाता है, वही असल समस्या है. किस तरह से उत्तर भारत की राजनीति ने देश में सांप्रदायिक रिश्तों पर बुरा असर डाला है. यूपी के वोटरों की संख्या अधिक है, इसलिए राजनीति में उसका जोर भी ज्यादा है. इसलिए हम मान लेते हैं कि यूपी में जो रहा है, वही देश में भी हो रहा है.
इसके बजाय यह समझना जरूरी है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में इस्लाम का तजुर्बा कैसा रहा है. उसके बाद हम मुसलमानों के सवाल पर आएंगे. जब तक हम इसे नहीं समझते, तब तक हम राष्ट्रीय राजनीति को सांप्रदायिक चश्मे से देखते रहेंगे, जबकि यह समस्या सिर्फ यूपी और खासतौर पर पश्चिमी यूपी तक सीमित है.
उत्तर भारत में इस्लाम पंजाब से आया और यूपी के जरिए इसका प्रसार हुआ. इस्लाम के प्रसार के लिए पहले तलवार का इस्तेमाल किया गया, लेकिन अकबर के बाद से आर्थिक कारणों ने इसमें बड़ी भूमिका अदा की. अकबर की सेना दोआब क्षेत्र से काफी सामान खरीदती थी. उसे सिर्फ मुसलमानों से यह सामान खरीदने का निर्देश दिया गया. इससे कारीगरों का बड़े पैमाने पर धर्मांतरण हुआ.
हालांकि, जिन लोगों ने रोजी-रोटी की वजह से इस्लाम कबूला था, वे कई पीढ़ियों तक इसे लेकर सिर्फ दिखावा या रस्म अदायगी करते रहे. इसके बावजूद जिन कारीगरों ने धर्म नहीं बदला था, उनकी आर्थिक हैसियत कम होती चली गई. इससे एक स्थायी दुश्मनी का भाव पैदा हुआ.
उत्तर भारत का इस्लाम का तजुर्बा हिंसक और भेदभाव वाला था, जिसे ‘तुर्की वैरायटी’ कहा जाता है. इस क्षेत्र में इस्लाम के प्रसार के लिए हिंसा के इस्तेमाल की बात लोगों के जेहन में बनी हुई है. देश के दूसरे हिस्सों में इस्लाम व्यापार के जरिये आया, तलवार के जरिये नहीं. इसलिए वहां इसे लेकर वैसी तल्खी नहीं है. हालांकि, यह भी सच है कि वहां भी दोनों समुदाय एक दूसरे को पसंद नहीं करते, लेकिन वे एक दूसरे से नफरत भी नहीं करते.
बदकिस्मती की बात यह है कि अगर नफरत ना हो, तो उसकी कोई पॉटिलिकल या सोशल वैल्यू नहीं रह जाती. इन क्षेत्रों में वोट की खातिर नेता उत्तर भारत वाले हिंदू-मुसलमान मॉडल पर जोर देते हैं. यह हाल तब है, जबकि यूपी को छोड़कर देश के दूसरे हिस्से इसकी अच्छी मिसाल हैं कि मुसलमानों के साथ किस तरह से अच्छे रिश्ते बनाए जा सकते हैं. दूसरे इलाकों में दोनों समुदाय एक दूसरे की अनदेखी करते हैं और इस तरह से वहां शांति बनी रहती है.
पंजाब और यूपी का दिखावटी झप्पी-पप्पी कल्चर यहां नहीं है. यहां जियो और जीने दो का सिद्धांत चलता है. यहां तक कि हैदराबाद में भी हिंदू और मुसलमानों के रिश्ते यूपी से अलग हैं. अंसारी यूपी के रहने वाले हैं, इसलिए वह यह बात भूल गए. मैं तमिल मूल का हूं, लेकिन दिल्ली में 1958 से रह रहा हूं. मेरी पढ़ाई हिंदी मीडियम स्कूल में हुई है.
मैंने उत्तर और दक्षिण भारत दोनों की संस्कृतियों को जिया है. उत्तर भारत में रहने वाला तमिल होने के नाते मैं यह नहीं समझ पाता कि मुसलमानों के बारे में यहां की सोच देश के दूसरे हिस्सों से अलग क्यों है? यहां तक कि बिहार में भी यूपी जैसे हालात नहीं हैं. देश का बंटवारा इसकी एक वजह हो सकता है. लेकिन जहां तक मैं समझता हूं, यह पंजाबियों और बंगालियों से कहीं अधिक जुड़ा है.
मैंने यह लेख पांच सवालों के साथ शुरू किया था. मैं इसे एक और सवाल से खत्म करना चाहता हूं: मुसलमानों के नजरिये से सोचें तो क्या यह बात हैरान नहीं करती है कि आजादी के 70 साल बाद हमने एक राजनीतिक पार्टी- कांग्रेस को उसी तरह की दूसरी पार्टी बीजेपी से रिप्लेस कर दिया है? दोनों की राजनीति भारतीय मुसलमानों के प्रति उनके जरिये से परिभाषित होती है. दोनों ही पार्टियों को मुसलमानों की जरूरत है.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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