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पहले तो खूब शोर-शराबा हुआ, और फिर हंगामा गाली-गलौज में तब्दील हो गया. ये सब इससे पहले कि थमता, गोलिबारियों के बाद मोर्टार फायरिंग और फिर तोपें चलने लगीं. ये झड़प दोनों ओर से बराबर हो रही थी. ये माजरा हाल ही में हुए पाकिस्तान-अफगानिस्तान (Pakistan-Afghanistan) के बीच सीमा विवाद को लेकर हुई झड़प का था. वैसे तो सही मायने में, नियंत्रण रेखा पर होने वाली गोलिबारियों के मुबाकले, हालांकि ये झड़प मामूली घटना जैसी है.
दूसरी ओर, भले ही ये झड़प मामूली जान पड़ती हो, लेकिन वास्तव में इस लड़ाई की मूल वजह बहुत गंभीर है, क्योंकि तालिबान ने अभी-अभी इस झड़प के बहाने, सालों पुराने ड्युरंड लाइन सीमा विवाद के चिराग से मतभेदों के जिन्न को बाहर निकाला है. यह सीमा विवाद का मसला इस्लामाबाद के लिए फलक पर दोबारा लौट आया है, साथ ही लौट आई है तालिबान 2.0 की तस्वीर और एक ताजा तैयार हुए इस्लामी हुकूमत की पहचान.
यह सब तब शुरू हुआ जब नांगरहार प्रांत के तालिबानी खुफिया विभाग के प्रमुख को पाकिस्तानी सीमा चौकी पर बेतहाशा चिल्लाते हुए सुना गया, जो कथित तौर पर सीमा का उल्लंघन करने पर पाकिस्तानियों को युद्ध की धमकी दे रहा था. उनकी इस ललकार का उनके साथियों ने तालियों से स्वागत किया.
नए साल के आते, चीजें और ज्यादा गंभीर हो गईं. एक वीडियो में तालिबान को पाकिस्तान की ओर से लगाई गई बाड़ को बड़े बेझिझक तरह से उखाड़ फेंकते हुए दिखाया गया है. इसके बाद अफगान रक्षा मंत्रालय के एक प्रवक्ता का बयान सार्वजनिक होने पर पाकिस्तान तमतमा गया.
विडंबना यह थी कि बयान एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में दिया गया था, जो इस्लामाबाद की ओर से कई बार हर दूसरे महीने मनाए जानेवाले 'कश्मीर दिवस' के दौरान देखने में आया. यह कुछ हद तक काफी दयनीय है क्योंकि यहां कश्मीर का नहीं पाकिस्तान का खून बह रहा है.
एक और दूसरी सबसे बड़ी विडंबना है. पाकिस्तान की 40 साल की अफगान नीति का मकसद है, काबुल से ड्युरंड रेखा को मान्यता दिलाना. यह भी एक कारण है कि प्रधान मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो ने, मुजाहिदिनों को अमेरिका का साथ मिलने से काफी पहले ही, काबुल के खिलाफ अपना छद्म युद्ध शुरू कर दिया था.
इस बॉर्डर का मकसद जमीनी तौर पर, दुनिया की सबसे बड़ी जनजाति पश्तूनों को दो भागों में बांटना था, जिसका आधा हिस्सा बेबस तौर पर अंततः पंजाबियों के प्रभुत्व वाला पाकिस्तान हो गया.
तार्किक रूप से चार करोड़ या उससे ज्यादा पश्तूनों का अपना एक देश होना चाहिए था, जिसकी वे पिछले कई दशकों से रुक-रुक कर मांग करते रहे हैं. अब केंद्र में तालिबान के साथ, वे अभी भी इसकी मांग कर रहे हैं. जाहिर है, एक पश्तून पहले पश्तून है, और फिर तालिबान. यह पाकिस्तान के लिए बुरा ख्वाब है, जो उसे परेशान करने के लिए लौट रहा है.
इस बीच, पाकिस्तान 2017 से अफगानिस्तान के साथ 'सीमा' पर बाड़ लगाने में व्यस्त है, और 2019 से ईरान के साथ-यहां तक कि भारत ने अपनी सीमा को घेर लिया है - इस प्रकार यह दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन गया है जो चारों ओर से बाड़ों से घिरा है. बाड़ एक जटिल मामला है, जिसमें दोमुहें तार, सेंसर, सर्वेलांस कैमरे और एक हजार से ज्यादा किलेबंदियां हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि फ्रंटियर कोर के कर्मियों को सीमा पर नियंत्रण के लिए अच्छी तरह से रखा गया है.
इस गोरख धंधे का भांडाफोड़ तब हुआ जब एक लेफ्टिनेंट जनरल सहित सेना के 6 अधिकारियों को बर्खास्त कर दिया गया, वो भी लाभ रहित. यह खास कांड तब सामने आया जब फ्रंटियर कॉर्प्स के आईजी मेजर जनरल एजाज शाहिद के बेटे की एक स्पोर्ट्स कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई.
दिलचस्प बात है, कि कथित अफगान सरकार की वेबसाइट में यह साफ-साफ कहा गया है कि "ड्युरंड लाइन को अफगान राष्ट्र पर थोपा गया है, और यह वह रेखा है जिसे कभी भी अफगान सरकार और उसके राष्ट्र ने स्वीकार नहीं किया है. बताई गई लाइन बदख्शां प्रांत के वखान जिले के नवशाख क्षेत्र से निमरोज प्रांत के चाहर-बुर्जक जिले के मलिक स्या पर्वत तक है.
इससे भी अधिक आश्चर्यजनक रूप से, वेबसाइट कहती है, "अफगानिस्तान अपनी 102 किलोमीटर की संयुक्त सीमा जेमो (जम्मू) और कश्मीर के साथ साझा करता है जो वखजीर किनारे से शुरू होता है और वखान जिले के नौशाख में समाप्त होता है". यदि यह वास्तव में तालिबान सरकार की वेब साइट है, तो यह पूरे मामले को एक अलग ही ढांचा देता दिखता है.
सिराजुद्दीन हक्कानी जैसे पाकिस्तान परस्तों और जंग में उनके साथी रहे अनस, नजीबुल्लाह और खलील उर रहमान -अफगानिस्तान में प्रमुख मंत्रालयों को नियंत्रित करते हैं, यह कोई अच्छी बात नहीं है. हक्कानी और दोहा ग्रुप के बीच सत्ता संघर्ष जारी है. जिसका नेतृत्व अब्दुल गनी बरादर करता है, जिसने सितंबर में काबुल हिंसा के दौरान उसे तब छोड़ दिया था, जब उसके और हक्कानी समर्थकों के बीच लड़ाई शुरू हो गई थी, जो सचमुच एक सत्ता संघर्ष था. इस ग्रुप में सीमा और जनजातीय मामलों के मंत्रालय के प्रमुख नूरुल्ला नूरी भी शामिल हैं.
अब तालिबान का कम से कम एक तबका सामने आ रहा है, जो रावलपिंडी के हुक्म पर चलने के बजाय अपना देश चलाना चाहता है. हालाँकि, हक्कानी और उनकी ज़दरान जनजाति, जिनकी जड़ें पाकिस्तानी संरक्षण से तस्करी के बल पर कमाई गई दौलत के साथ पाकिस्तानी आदिवासी पट्टी में जमी हुई हैं.
तहरीक ए तालिबान या अल कायदा जैसे आतंकी समूहों से निपटने में सिराजुद्दीन धुरि की कील की है. उसे इस्लामाबाद को अलग-थलग करने से बहुत कम फायदा है, जो दूसरों के साथ अपने बद्री इकाई की ट्रेनिंग और सप्लाई करता है. लेकिन मुसीबत आगे बढ़ जाती है क्योंकि खुफिया विभाग के प्रमुख अब्दुल हक वसीक जैसे शक्तिशाली लोग अफगान राष्ट्रवादियों पर हमला करते हैं, यहां तक कि आईएसआई परेशान करने वालों को जड़ से खत्म करने और उन्हें किनारे करने का काम करता है.
मौटे तौर पर, भ्रष्टाचार किसी भी अफगान सरकार का अभिन्न अंग है, लेकिन इसमें सहायता केवल उन समूहों को मिलने की संभावना है जो पाकिस्तान का समर्थन करते हैं. यह भविष्य के लिए अफगान योजनाओं के लिए खतरनाक और हानिकारक है.
अंत में, पश्तूनी नफरत का मजाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए. जैसे-जैसे सीमा के और खंभे गड़ेंगे, यह गुस्सा पाकिस्तान की ज़मीं पर फैल सकता है. हालांकि, यह कोई संयोग नहीं है कि यहां पूर्व डीजी आईएसआई लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद हैं, जो अब इस सीमा के प्रभारी पेशावर कोर के प्रमुख हैं. निश्चित रूप से, हमीद एक निराश जीवन की शिकायत नहीं कर सकते. यह उनकी सौदेबाजियों की हद से ज्यादा रोमांचक भी हो सकता है.
(डॉ तारा कर्था इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज (आईपीसीएस) में एक विशिष्ट फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल @kartha_tara है. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है. )
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Published: 12 Jan 2022,07:27 PM IST