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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक बार फिर खुद को (टि्वटर के जरिए) 'आस्था के रक्षक' और 'मुस्लिम दुनिया के चैंपियन' के तौर पर दिखाने की कोशिश की है: फ्रांस के ताजा घटनाक्रम पर उन्होंने कहा- “यह एक ऐसा समय है जब राष्ट्रपति मैक्रों कट्टरता की तरफ ले जाने वाले धुव्रीकरण को पैदा करने के बजाए चरमपंथियों को जगह देने से बच सकते थे.”
“यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि राष्ट्रपति मैक्रों ने हिंसा करने वाले आतंकियों, फिर चाहे वे मुस्लिम हों, श्वेत वर्चस्ववादी हों या नाजी विचारधारा के हों के बजाए इस्लाम पर हमला करके सिर्फ इस्लामोफोबिया को बढ़ावा देना चुना. अफसोस की बात है कि राष्ट्रपति मैक्रों ने इस्लाम और हमारे पैगंबर साहब को निशाना बनाने वाले ईशनिंदापूर्ण कार्टूनों के प्रदर्शन को बढ़ावा देने के जरिए अपने नागरिकों समेत मुस्लिमों को जानबूझकर भड़काने वाला पक्ष चुना.''
“साफ तौर पर इस्लाम की कोई भी समझ रखे बिना, इस्लाम पर हमला करके, राष्ट्रपति मैक्रों ने यूरोप और दुनियाभर में लाखों मुस्लिमों की भावनाओं पर हमला किया है और उनको ठेस पहुंचाई है. आखिरी चीज जो दुनिया चाहती है या जिसकी उसे जरूरत है, वो है और ध्रुवीकरण. अज्ञानता पर आधारित सार्वजनिक बयान ज्यादा नफरत, इस्लामोफोबिया और चरमपंथियों की जगह पैदा करेंगे.”
कुछ घंटों बाद, तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोआन ने अपने एक भाषण में कहा: “मैक्रों नाम के इस व्यक्ति की मुस्लिमों और इस्लाम के साथ क्या समस्या है? मैक्रों को मानसिक इलाज करवाने की जरूरत है.” और उसी दौरान पाकिस्तान में तहरीक-ए-लब्बैक के संस्थापक और प्रेसिडेंट खादिम हुसैन रिजवी ने सोशल मीडिया पर फ्रांस के खिलाफ 'जिहाद' का आह्वान किया: वह यह कहते हुए सुने गए - “फ्रांस आपको चुनौती दे रहा है, जिहाद का ऐलान करो.”
जहां इनमें से ज्यादातर केस शिया मुस्लिमों के खिलाफ दर्ज किए गए हैं और जहां सितंबर में ईशनिंदा के आरोप में लाहौर कोर्ट ने एक ईसाई शख्स को मौत की सजा सुनाई. जबकि जुलाई में एक अन्य शख्स को पेशावर की कोर्ट में ईशनिंदा के मामले की सुनवाई के दौरान ही गोली मार दी गई.
इमरान खान ने फेसबुक को लेटर लिखा, उन्होंने दूसरे देशों पर 'इस्लामोफोबिया' का आरोप लगाते हुए मुसलमानों के खिलाफ अपमानजनक कॉन्टेंट पर पाबंदी लगाने को कहा. लेकिन, उनके देश के साथियों द्वारा लगातार अपमानित किए जाने (या हत्या किए जाने) पर दूसरों को आहत होने की इजाजत नहीं है.
यह अभियान एक महीने से कम समय पहले शुरू हुआ था, जब पाकिस्तान में फ्रांसीसी झंडे जलाए गए, नफरत भरे भाषण दिए गए और ‘जिहाद’ का आह्वान किया गया. इसे पीएम इमरान खान और विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी का भी समर्थन मिला. इसका नतीजा ये हुआ कि व्यंग्य पत्रिका शार्ली एब्दो के पुराने ऑफिस के सामने दो पत्रकारों पर चाकू मारकर हमला किया गया. इसके बाद एक स्कूल टीचर का गला काटकर उसकी हत्या कर दी गई, जो अपनी क्लास में स्टूडेंट्स को शार्ली एब्दो का कार्टून दिखा रहा था.
इसी बीच, एक फ्रांसीसी मुस्लिम करीम अकौचे ने उस देश के मूल्यों को बचाने के लिए, जिसमें उसका जन्म हुआ, 'अल्लाह के सैनिकों के नाम एक खुले खत' में लिखा कि 'मुझे भाई कहना बंद करो.' बहुत से लोगों ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया दी कि ''शार्ली एब्दो ने मुस्लिमों को आहत किया है और भड़काया है- और मैक्रों ने भी ऐसा किया है.'' उनका मानना है कि चाकू मारना और हत्या करना महज 'दुर्भाग्यपूर्ण घटना' और 'जाहिर सा नतीजा' है- 'ऐसा करना बंद करो, उन्हें वो दे दो, जो वे चाहते हैं और फिर सब कुछ ठीक हो जाएगा.'
जो उन्हें समझ नहीं आता, वो ये है कि फ्रांस एक धर्मनिरपेक्ष देश है; यूरोप एक धर्मनिरपेक्ष क्षेत्र है. वो क्षेत्र, जहां लोगों ने किसी भी नियम कायदे में ईसाईयत की जड़ों को शामिल न करने के लिए संघर्ष किया. जहां देश के लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब ईसाई, मुस्लिम, यहूदी, बौद्ध या और किसी तक सीमित नहीं है, बल्कि वहां नागरिकों पर जोर होता है. और उन नागरिकों से संविधान और कानून का पालन करने की अपेक्षा की जाती है और वे सभी एक जैसे नियमों के दायरे में होते हैं.
अगर आप धर्म के आधार पर किसी खास सलूक के लिए कह रहे हैं तो आपने इसे पूरी तरह गलत तरीके से समझा है. “मेरे प्यारे देशवासियों, गणतंत्र की लड़ाई इस वक्त धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई बन गई है.” - मैक्रों ने यह बात बीते सितंबर की शुरुआत में थर्ड फ्रेंच रिपब्लिक की 150वीं सालगिरह पर कही थी.
मैक्रों के मुताबिक, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा सिर्फ तब ही कायम रह सकते हैं, जब धर्मनिरपेक्षता और बोलने की आजादी कायम रहे. वह बिल्कुल सही हैं.
धर्मनिरपेक्षता, पूरे यूरोप में साझा किए जाने वाले मूल्य और फांसीसी क्रांति के मूल्यों को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता. यूरोप धार्मिक आजादी, बोलने की आजादी, धार्मिक और नस्लीय आधार पर किसी के साथ भेदभाव न होने के अधिकारों की रक्षा करता है और इनकी गारंटी देता है.
कैथोलिक चर्च ने उन्हें रोकने की कोशिश की (किसी का गला काटकर नहीं, बल्कि ट्राइब्यूनल्स के जरिए) और वे लगातार इस संघर्ष में हारते भी रहे.
इमरान खान, एर्दोआन और रिजवी ने जो नहीं समझा, वो ये है कि हो सकता है कि यूरोपियन भी शार्ली एब्दों के निम्न स्तर के ह्यूमर से सहमत न हों, लेकिन वे बोलने की आजादी, अपनी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक संस्थाओं की रक्षा के लिए सब कुछ करेंगे.
(फ्रांचेस्का मरीनो एक पत्रकार और दक्षिण एशिया एक्सपर्ट हैं. वह बी नताले के साथ 'ऐपोकलिप्स पाकिस्तान' किताब लिख चुकी हैं. उनका ट्विटर हैंडल @francescam63 है. यह एक ओपनियन लेख है. ये लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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Published: 30 Oct 2020,12:56 PM IST