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विपक्षी सांसदों का निलंबन: BJP के दौर में संसदीय मानकों में आई गिरावट

ये विडंबना है कि अब एक बीजेपी सरकार ही है जो संसद में हंगामे को लेकर नाराज होने का दावा करती है

शशि थरूर
नजरिया
Published:
<div class="paragraphs"><p>मोदी सरकार के दौर में संसद का कामकाज</p></div>
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मोदी सरकार के दौर में संसद का कामकाज

(फोटो: क्विंट हिंदी)

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संसद के सत्र में बाधा डालने का जो काम हमने शुरू किया है उसे जनता के बीच ले जाया जाएगा जब तक कि हम निष्पक्षता और कुछ हद तक जवाबदेही बहाल करने में सक्षम न हो जाएं.” ये कहना था विपक्ष के एक सांसद का. उनका कहना था कि “अगर संसदीय जवाबदेही को खत्म किया जा रहा है और चर्चा का इस्तेमाल सिर्फ संसदीय जवाबदेही को खत्म करने की मंशा के लिए किया जाता है तो ये विपक्ष के लिए अपने अधिकार में उपलब्ध संसदीय साधनों के माध्यम से सरकार को बेनकाब करने के लिए एक जायज रणनीति है.”

संसद में जिस काम के लिए उन्हें भेजा जाता है उस काम को करने में उनके और उनके सहयोगियों के असफल रहने के बारे में चुनौती देने पर वो गुस्सा हो जाते हैं. “ संसद के काम में बाधा पहुंचाने का मतलब काम नहीं करना नहीं है. हम जो कर रहे हैं दरअसल वो बहुत की महत्वपूर्ण काम है.” क्या संसद का इस्तेमाल हंगामे के बजाए चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए ये पूछे जाने पर विपक्षी सांसद का जवाब था कि कभी-कभी बाधा पहुंचाने से देश को ज्यादा फायदा होता है.

नहीं, ये सभी बातें राज्यसभा से पूरे शीत सत्र के लिए निलंबित विपक्ष के 12 सांसदों में से एक ने नहीं कही हैं और जिनकी कार्यवाही से निष्कासन ने संसद को संकट में नहीं डाला है.

ये सभी बातें भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के अपने स्वर्गीय अरुण जेटली ने 2011-13 के हंगामेदार सत्र के दौरान कही थीं, जब बीजेपी ने टेलीकॉम स्पेक्ट्रम आवंटन पर संयुक्त संसदीय समिति (JPC) की मांग को लेकर और यूपीए सरकार के कथित घोटालों की जांच की मांग को लेकर एक के बाद एक कई संसद सत्रों में काम नहीं होने दिया था.

2014 में बीजेपी ने कहा था: ‘हम चुप नहीं बैठेंगे’

ये विडंबना है कि अब एक बीजेपी सरकार ही है जो संसद में हंगामे को लेकर नाराज होने का दावा करती है, बीजेपी के एक संसदीय कार्य मंत्री जिन्होंने सांसदों को निलंबित करने का विवादित अमान्य प्रस्ताव पेश किया और बीजेपी के टिकट पर चुने गए एक उप-राष्ट्रपति जिन्होंने इस अलोकतांत्रिक निष्कासन को वापस लेने से इनकार कर दिया. अंत में जिनका नाम लिया गया, हमेशा स्थिर रहने वाले, संसद में व्यवधान के प्रसिद्ध समर्थक थे. 2014 में जब बीजेपी सांसदों के असंसदीय रणनीति के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कोई खेद जताए बिना जवाब दिया - “हमें नई रणनीति इजाद करने दें जिससे कि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम शांत नहीं बैठेंगे. हम इस लड़ाई को जनता तक ले जाएंगे.”

अक्सर कानूनी बारीकियों के साथ बीजेपी नेतृत्व का यही जवाब होता था जब 10 सालों के यूपीए के शासन के दौरान उन्होंने संसद को लगातार बाधित किया. पंद्रहवीं लोकसभा का करीब 68 फीसदी समय बीजेपी के नेतृत्व में व्यवधान के कारण हंगामे की भेंट चढ़ गया. इसमें हैरानी की बात कम ही है कि एक सरकार जो विधेयकों को बिना चर्चा या बहस पास कराती है, वैसे में असहाय होकर गुस्से में यूपीए सदस्यों ने विपक्ष में अपने पूर्ववर्तियों के अनुसरण का फैसला किया.

शिकारी ही रक्षक बन गए हैं

ये दुख की बात है कि हमारी राष्ट्रीय राजनीति भरोसे के रिश्ते, जो किसी भी लोकतंत्र में सरकार और विपक्ष के बीच जरूर होनी चाहिए, में इस तरह की टूट का गवाह बन रही है. हममें से जो लोग मिशनरी स्कूल गए हैं उन्होंने ये गोल्डन रूल सीखा है. दूसरों के साथ वैसा ही करो जैसा तुम चाहते हो कि वो तुम्हारे साथ करें. भारतीय राजनीति का नया गोल्डन रूल ये बन गया है: दूसरों के साथ वैसा ही करो जैसा उन्होंने तुम्हारे साथ किया है.

एक आश्चर्यजनक बदलाव में शिकारी अब रक्षक बन गए हैं. वहीं राजनेता जो व्यवधान के पक्ष में तर्क देते थे- जिन्होंने जवाबदेही के उच्च सिद्धांत के कारण सालों तक संसद के काम में बाधा डालने के लिए कुतर्क और नैतिकता का इस्तेमाल किया, अचानक फैसला किया कि इस मुद्दे पर आप कहां खड़े हैं वो इस बात पर निर्भर करता है कि आप कहां बैठते हैं. अब वो ट्रेजरी बेंच पर बैठे रहे हैं तो व्यवधान बेकार है, यहां तक कि राष्ट्र विरोधी भी.

मुझे माफ कीजिए, लेकिन ये नहीं चलेगा. बेशक गलत काम के जवाब में किया गया गलत काम सही नहीं होता. लेकिन ये बीजेपी थी जिसने संसदीय आचरण का पैमाना तय किया था जिसकी अब वो निंदा कर रहे हैं.

सुषमा स्वराज से जब संसद में बाधा डालने से राष्ट्रीय खजाने को होने वाले नुकसान के बारे में पूछा गया, जिस पर करदाताओं के करोड़ों रुपये खर्च हुए थे, तो उनका जवाब था कि “जब संसद सत्र इस तरीके से खत्म होता है, इसकी आलोचना होती है, हमें बताया जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया जिसके कारण नुकसान हुआ है. संसद की कार्यवाही नहीं चलने से होने वाले 10-20 करोड़ के नुकसान से अगर हम सरकार पर दबाव बना सकते हैं तो ये स्वीकार्य है.” एलके आडवाणी ने भी कहा था कि कभी-कभी संसद की कार्यवाही को रोकने से परिणाम मिलते हैं. ऐसा अभी भी होता है लेकिन दूसरे पक्ष के लिए.
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संसद एक नोटिस बोर्ड बन कर रह गया है

मेरे राजनीति में आने के पहले, मुझे उस समय के लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने प्रतिष्ठित नागरिकों (नारायण मूर्ति और श्याम बेनेगल भी उसमें शामिल थे) की एक बैठक में संसद के काम काज पर चर्चा के लिए बुलाया था. हमने शिष्टाचार और बहस के उच्च मानकों को सुनिश्चित करने के लिए नियमों को सख्ती से लागू करने की मांग की थी और लोकसभा अध्यक्ष ने हमारे भ्रम को दूर किया था. उनका कहना था कि व्यवधान इसलिए हुए, क्योंकि बड़ी संख्या में विपक्ष ने उसे अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के हिस्से के तौर पर देखा, नियमों का इस्तेमाल कर उन्हें रोकने की सत्ताधारी दल सहित सभी पार्टियां अलोकतांत्रिक कहकर आलोचना करेंगी. इसलिए निष्कासन की बात छोड़ दें, सांसदों को निलंबित करना भी ऐसा विकल्प नहीं है जिसे वो आसानी से लागू कर सकें.

संसदीय विरोध के इस तरीके का गुण जो भी हों और निजी तौर पर मैंने कभी इसकी परवाह नहीं की. ये भारतीय संसदीय कार्य प्रणाली की परंपरा का हिस्सा हो गया है. लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार, जिनकी शालीनता और सज्जनता का एक आक्रामक बीजेपी ने शर्मनाक तरीके से गलत इस्तेमाल किया, बावजूद इसके उन्होंने जोर देकर कहा था कि हंगामा करने वाले विपक्षी सदस्यों को सभी दलों की सहमति के बिना निष्कासित करना गलत होगा. इसलिए, जब लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने 2015 में, नियम 374 ए, जिसका इस्तेमाल स्वतंत्र भारत के पूरे 67 साल के इतिहास में सिर्फ तीन बार किया गया था, लगाते हुए कांग्रेस के 44 सदस्यों में से 25 को पांच दिनों के लिए निष्कासित कर दिया था, वो हैरान करने वाला था.

उन्होंने दोबारा ऐसा नहीं किया, लेकिन वेंकैया नायडू 12 सांसदों को पूरे सत्र के लिए, उस सत्र से जिसमें उन्होंने अभद्र व्यवहार नहीं किया, बल्कि उस सत्र के अभद्र व्यवहार के लिए जो पहले ही स्थगित हो चुका था, सदन खत्म हो चुका था, निलंबित कर एक कदम आगे बढ़ गए.

संसदीय मानकों में एक पीढ़ी से गिरावट आई है. सांसदों का चयन का उनके संसदीय कौशल से ज्यादा लेना-देना नहीं है. ज्यादातर सांसदों को कानून निर्माण में सीमित रुचि होती है और सिद्धांतों पर चर्चा की तुलना में वे कार्यवाही को बाधित करना पसंद करते हैं. इस बीच, बीजेपी सरकार विपक्षी सांसदों से बात करने से इनकार कर रही है और बिल पास करने के लिए विपक्ष को कुचलने के लिए तैयार है. वो संसद को एक नोटिस बोर्ड और एक रबर स्टांप की तरह इस्तेमाल करती है विधायिका के लिए उनकी उपेक्षा मुश्किल से ही छिप पाती है.

पीएम मोदी का गुजरात विधानसभा मॉडल

जवाहरलाल नेहरु के उलट, जो हर दिन संसद आते थे, प्रधानमंत्री मोदी कभी-कभी ही अपनी उपस्थिति से सदन की शोभा बढ़ाते हैं. उन्होंने लोकसभा जिसके वो सदस्य हैं, वहां से ज्यादा भाषण विदेश की संसद में दिए हैं. मौजूदा संकट सिर्फ एक घटना नहीं बल्कि कई असफलताओं का नतीजा है.

मैं पूरी तरह से स्वीकार्य संसदीय आचरण बनाने के पक्ष में हूं, लेकिन सभी पार्टियों के साथ सहमति से. अपने विपक्षी सांसद का निष्कासन लोकतंत्र नहीं है. लेकिन पीएम मोदी ये जानते हैं. गुजरात विधानसभा में उन्होंने बार-बार ठीक यही किया है, सदन के करीब-करीब पूरे विपक्ष को निलंबित कर कानून पास किया है.

2014 के उनके चुनावी अभियान में मोदी ने कहा था कि, वो गुजरात मॉडल को देश के बाकी हिस्सों में लागू करेंगे. हमें अब उन्हें गुजरात विधानसभा मॉडल को राष्ट्रीय संसद में लागू करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए.

(लेखक कांग्रेस के सांसद हैं और संयुक्त राष्ट्र के अंडर सेक्रेटरी रहे हैं. उनका ट्विटर हैंडिल @ShashiTharoor. है. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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