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इस मंगलवार की सुबह भारतीय घरों की टीवी स्क्रीनों पर भारी-भरकम चकाचौंध भरी अमेरिकी चुनाव मशीन की आवाज सुनाई पड़ रही थी. यह मशीन अपना एक और तमाशा पेश कर रही थी. सभी चैनलों पर अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बहस के लिए आमने-सामने थे. यह डिबेट हर चार साल में एक बार होती है.
बहस डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के बीच थी. डेमोक्रेटिक पार्टी अपनी मूल नीतियों में काफी कुछ भारत की कांग्रेस पार्टी की तरह है, जबकि रिपब्लिकन अपने मूल्यों और नीतियों में बीजेपी जैसी दिखती है. इस तरह की दो डिबेट और होंगी.
यह कहना सही हो सकता है, क्योंकि क्लिंटन गलत चीजों को मुस्कुराहट बिखेरकर अच्छी तरह कह देती हैं, जबकि ट्रंप सही चीजों को भी बड़े ही बुरे तरीके और गुस्से में कहते हैं. अगर भीतर की ठोस चीज की बजाय ऊपरी आवरण के नजरिए से देखा जाए, जैसा कि अमेरिका में ऐसा अक्सर होता है, तो हिलेरी क्लिंटन के समर्थकों के लिए यह जश्न की बात हो सकती है.
लेकिन टीवी बहस में प्रदर्शन बेहतर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनने का पैमाना नहीं हो सकता है. बहस गुमराह कर सकती है. अमेरिका को कमजोर होता देखने वाले राष्ट्रपति बराक ओबामा टीवी पर काफी अच्छा बोलते हैं. लेकिन राष्ट्रपति के तौर पर उनका प्रदर्शन खराब रहा है.
क्लिंटन ने ट्रंप पर भले ही कई वार किए हों, लेकिन वह ग्रोथ, नौकरी और सुरक्षा के अपने मूल मुद्दों पर जमे रहे. बड़ी तादाद में गरीब अमेरिकी जनता, निम्न मध्य आय वर्ग के लोग और मध्य वर्ग यही सुनना चाहता है, इसलिए इस वर्ग के लोग बड़ी ताताद में ट्रंप को वोट दे सकते हैं.
दुनियाभर में कथित उदारवादी लोग सोच रहे हैं कि ट्रंप की नीतियां तबाही लाने वाली साबित होंगी. निक्सन के राष्ट्रपति चुने जाने के वक्त भी ऐसे लोग इसी तरह सोच रहे थे. भारत में भी नरेंद्र मोदी के बारे में लोगों की ऐसी ही सोच थी.
इस तरह की टीवी डिबेट 1960 से ही अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का हिस्सा रही है. उस दौरान डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जॉन एफ केनेडी और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रिचर्ड एम. निक्सन टीवी बहस में उतरे थे. बहस में निक्सन की हार हुई थी और वह चुनाव भी हार गए थे. लेकिन निक्सन 1969 और 1973 में राष्ट्रपति बनने में सफल रहे थे. हालांकि केनेडी बाद में 'औरतखोर' और निक्सन 'झूठे' साबित हुए.
दरअसल इस तरह की टीवी बहसें अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवारों को वोटरों के सामने अहम मुद्दों पर अपनी राय जाहिर करने का मंच होती हैं. कुछ हद तक यह अपना औचित्य सिद्ध करती हैं. लेकिन जैसा कि हमने ट्रंप और क्लिंटन के मामले में भी देखा, ऐसी बहसें आखिरकार तू-तू, मैं-मैं और एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का जरिया बन जाती हैं.
हर उम्मीदवार दूसरे पर आरोप लगाता है. उम्मीदवार एक-दूसरे पर गलत नीतियां अपनाने से लेकर नस्लवाद, महिला विरोध, धार्मिक कट्टरता और धोखाधड़ी का आरोप लगाता है. कोई भी संयम नहीं बरतता और खुलेआम आरोप लगाए जाते हैं.
मसलन, ट्रंप ने इस बार की बहस में हिलेरी क्लिंटन की डिलीट की हुई 33,000 ई-मेल्स का मुद्दा उठाया. ट्रंप का मानना है हिलेरी कुछ भारी रहस्यों को छिपा रही हैं या फिर अपनी कुछ आपराधिक करतूतों पर पर्दा डाल रही हैं.
क्लिंटन ने इसके जवाब में ट्रंप पर टैक्स चोरी करने और दूसरी धोखाधड़ियों का आरोप लगाया. दर्शकों को पता है कि इनमें से एक शख्स दुनिया के सबसे शक्तिशाली और कई मायनों में अद्भुत इस देश का राष्ट्रपति बनने जा रहा है. दोनों को देखते हुए यह कोई सुकून भरी बात नहीं है. यह अच्छे और बुरे के बीच चुनाव का मुद्दा नहीं है. यहां बुरे और उससे भी बुरे के बीच चुनाव करना है.
आखिरकार अमेरिकी वोटर क्लिंटन और ट्रंप में किसी एक को किस आधार पर चुनेंगे? समान रूप से दो खराब कैंडिडेट्स के बीच वो कैसे चुनाव करेंगे. इस तरह के चुनाव को हॉब्सन चॉइस कहते हैं, जहां कस्टमर (इस मामले में वोटर) को जो सामान उपलब्ध हो उसी में से चुनना होता है या फिर खाली हाथ लौट जाना होता है. चूंकि चुनाव में न चुनने का विकल्प नहीं होता है, इसलिए इसे चुनाव नहीं कहा जा सकता.
हॉब्सन चॉइस, शब्द 16वीं सदी का है, जब इंग्लैंड में घोड़े बेचने वाले एक व्यापारी हॉब्सन ने ऐसा भ्रम पैदा किया कि लोग 50 घोड़ों में से कोई भी घोड़ा चुन सकते हैं. लेकिन हकीकत यह थी कि लोग एक ही घोड़ा चुनने के लिए बाध्य किए जाते थे. उनके पास और दूसरा विकल्प नहीं होता था.
हॉब्सन ऐसा करके अपने सबसे उम्दा घोड़ों को ज्यादा इस्तेमाल होने से बचा लेता था. हॉब्सन के लिए यह फायदे का सौदा था, लेकिन ग्राहकों के लिए घाटे का. हॉब्सन अमीर होता गया, लेकिन ग्राहक असंतुष्ट रह गए.
यह अनोखा नहीं है. अमेरिका ही एक ऐसा देश नहीं है, जहां हॉब्सन चॉइस वाली स्थिति देखने को मिलती है. लगभग हर लोकतंत्र अलग-अलग तौर पर हॉब्सन चॉइस जैसी स्थिति का सामना करता है. उसे दो खराब विकल्पों में से एक को चुनना होता है और इस तरह यह कोई चुनाव नहीं रह जाता है.
भारत में 1967 से हम यह स्थिति देखते आ रहे हैं, जब भारतीय राजनीति में कांग्रेस का वर्चस्व पहली बार टूटा था. कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि 2014 में भी हॉब्सन चॉइस जैसी स्थिति थी, जब मतदाताओं को नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच चुनाव करना था.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर राय रखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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Published: 30 Sep 2016,06:19 PM IST