मेंबर्स के लिए
lock close icon
Home Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Voices Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019Opinion Created by potrace 1.16, written by Peter Selinger 2001-2019पार्ट 1- मोदी सरकार के 5 साल में 4 आर्थिक सुधार; गजब हो गया! 

पार्ट 1- मोदी सरकार के 5 साल में 4 आर्थिक सुधार; गजब हो गया! 

यह प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल का रिपोर्ट कार्ड देखने का बिलकुल सही समय है

राघव बहल
नजरिया
Updated:
मोदी सरकार के रिपोर्ट कार्ड देखने का समय आ गया है
i
मोदी सरकार के रिपोर्ट कार्ड देखने का समय आ गया है
फोटो: द क्विंट

advertisement

चलिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 1.0 यानी उनके पहले कार्यकाल पर परदा गिर चुका है. लोकसभा चुनाव की आचारसंहिता लागू होने के साथ उनकी पहली पारी खत्म हो गई. वह दोबारा चुने जाने के लिए जनता से वोट मांग रहे हैं. इसलिए यह उनका रिपोर्ट कार्ड देखने का बिल्कुल सही समय है.

फोटो: द क्विंट

उतने ही समझदार एनालिस्टों के एक वर्ग का कहना है कि अर्थव्यवस्था पर सरकार की कथनी और करनी में बहुत फर्क रहा है. खुद प्रधानमंत्री मोदी के शब्द में इस तरह सवाल उठाया जा सकता है:

<b>सवा सौ करोड़ हिंदुस्तानी ये जानना चाहते हैं कि मोदी ने अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाया या एक बहुमूल्य मौका गंवा दिया?</b>

घटते क्रम में मोदी के चार महत्वपूर्ण सुधार


मैं इसका जवाब दो लेख में दूंगा (पार्ट 2 आप कुछ दिनों के बाद पढ़ सकेंगे). इसकी शुरुआत मैं सरकार की उपलब्धियों के साथ कर रहा हूं. बिना लाग-लपेट के विनम्रता से कहूं तो यह विश्लेषण का आसान और छोटा हिस्सा है. बदकिस्मती से मोदी के सुधार (इसमें संशोधन,प्रशासनिक कदम शामिल नहीं हैं) गिनने के लिए एक हाथ की अंगुलियां भी अधिक पड़ेंगी. मैं यहां घटते क्रम में मोदी के चार महत्वपूर्ण सुधारों का लेखा-जोखा पेश कर रहा हूं:

  • उज्जवलाः इस योजना में 6 करोड़ गरीब और ग्रामीण महिलाओं को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन दिए गए ताकि उन्हें लकड़ी से जलने वाले पारंपरिक चूल्हों के खतरनाक धुएं से बचाया जा सके. ओह, आपको मेरी बात गलत लग रही है. एक और सब्सिडी को रिफॉर्म यानी सुधार कहने से आपको गुस्सा आ रहा है. दरअसल, यह इकलौता रिफॉर्म है, जिसकी आर्थिक बुनियाद सुधारवादी है यानी इसमें जनरल सब्सिडी से सरकार टारगेटेड सब्सिडी की तरफ बढ़ी है. इससे भी बड़ी बात यह है कि फ्री मार्केट के सिद्धांतों को अपनाते हुए मोदी ने जरूरतमंदों की खातिर उन लोगों को स्वेच्छा से एलपीजी सब्सिडी छोड़ने के लिए मनाया, जिन्हें इसकी जरूरत नहीं है. इसके लिए किसी तरह का दबाव नहीं डाला गया. जरा उन शब्दों को देखिए, जिन पर मैंने यहां जोर दिया है. टारगेटेड, फ्री मार्केट, बिना दबाव के, मनाया, स्वेच्छा से और जरूरतमंद. किसी भी आर्थिक सुधार में ये शब्द शामिल किए जाने चाहिए, लेकिन अफसोस की बात यह है कि उज्जवला मोदी सरकार की इकलौती योजना है, जो इन पैमानों पर खरी उतरती है. इसलिए मेरे हिसाब से सिर्फ उज्जवला को ही मोदी असल में अपना आर्थिक सुधार बता सकते हैं.
  • इनसॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) यानी दिवाला कानूनः भारत में अब भ्रष्ट (कभी-कभार अयोग्य) मालिकों से बुरे ढंग से चलाई जाने वाली कंपनियों को छीना जा सकता है. भारत की पहले इसलिए काफी आलोचना होती थी कि यहां बड़ी संख्या में खराब कंपनियां हैं, जिनके मालिक अमीर बने हुए हैं (कहने का मतलब ऐसे लोगों से है, जो टैक्सपेयर्स के पैसों से और अमीर हो रहे हैं) और शेयरहोल्डर्स कंगाल. खुशकिस्मती से ऐसे धूर्त अमीरों के होश अब कानून के जरिये ठिकाने लगाए जा सकते हैं. इस बुनियादी सुधार को पहले के बजाय मैंने दूसरे नंबर पर सिर्फ इसलिए रखा क्योंकि इसका कानूनी ढांचा और सख्त बनाया जा सकता था. तब इसमें इतनी कमियां ना होतीं. खैर, जो भी हो, इसमें कोई शक नहीं है कि यह बड़ा सुधार है.
  • डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर (डीबीटी): यह एक और बड़ा सुधार है. इस साल लाभार्थियों के बैंक खातों में 2.8 लाख करोड़ यानी 40 अरब डॉलर की सब्सिडी सीधे ट्रांसफर की गई. पिछले चार साल में इससे 1.20 लाख करोड़ की लीकेज और फ्रॉड रुके हैं. डीबीटी से अलग-अलग योजनाओं में 7 करोड़ फर्जी खातों को खत्म किया गया है. हालांकि, मोदी को इसका श्रेय उस ‘गांधी परिवार’ के साथ साझा करना होगा, जिससे वह नफरत करते हैं. वह मानें या न मानें (वैसे मोदी कभी नहीं मानेंगे), इस बड़े सुधार की जमीन उनके राजनीतिक दुश्मनों यानी डॉ मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने रखी थी, जिन्हें कोसने का मोदी एक भी मौका नहीं चूकते. कांग्रेस सरकार ने देश में एक अरब से अधिक लोगों के लिए आधार डिजिटल आइडेंटिटी का सुपरस्ट्रक्चर तैयार किया, जिसका यूपीए राज में मोदी ने लगातार विरोध किया था. इसलिए मोदी अकेले इसका श्रेय नहीं ले सकते. अधिक से अधिक वह इसमें बराबरी के हक का दावा कर सकते हैं.
  • आखिरकार, गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी): यह असल में लंगड़ा सुधार है. इसे बहुत उलझा दिया गया, जबकि जीएसटी का मकसद टैक्स सिस्टम को सिंपल बनाना था. मैं इसे साबित करने के लिए एक मिसाल देता हूं. जीएसटी काउंसिल ने हाल ही में बिना इनपुट टैक्स क्रेडिट के रियल एस्टेट ट्रांजेक्शंस पर जीएसटी को 12 पर्सेंट से घटाकर 5 पर्सेंट कर दिया था. जरा आप ही बताएं, अगर इनपुट क्रेडिट ना मिले तो क्या उसे ‘जीएसटी’ कहना भी ठीक होगा? क्या इसे एक और इनडायरेक्ट टैक्स यानी अप्रत्यक्ष कर नहीं कहा जाना चाहिए? खैर जाने दीजिए, मोदी सरकार में इन बातों की परवाह किसे है. और यह किस्सा इतने पर ही खत्म नहीं हुआ. इस फैसले के एक हफ्ते बाद रियल एस्टेट ट्रांजेक्शन पर इनपुट टैक्स क्रेडिट के साथ 12 पर्सेंट और बिना क्रेडिट के 5 पर्सेंट जीएसटी का ऑप्शन दिया गया. इस हैरतंगेज मिसाल से यही साबित होता है कि ‘मोदी जीएसटी’बस नाम का जीएसटी है, इसमें वैसी बात नहीं है. इस नए टैक्स सिस्टम में आधा दर्जन से अधिक रेट, सेस शामिल हैं. शराब और पेट्रोलियम प्रॉडक्ट्स को इससे बाहर रखा गया है. इसे तो जीएसटी कहना भी नहीं चाहिए, लेकिन इससे हमारे संघीय टैक्स ढांचे में एक बदलाव आया है, इसलिए दरियादिली दिखाते हुए मोदी को इसका श्रेय दे देते हैं. आखिर, इस बड़े टैक्स रिफॉर्म की तरफ उन्होंने लड़खड़ाते और गिरते-पड़ते पहला कदम तो उठाया ही है.

30 साल के बाद पूर्ण बहुमत के साथ बनी सरकार के नाम पांच साल में सिर्फ इतने ही आर्थिक सुधार हैं!

इन्हें देखते हुए अर्थव्यवस्था पर मोदी सरकार के प्रदर्शन को आप क्या कहेंगे- अच्छा, बुरा, कमतर या बेढंगा? लेकिन फैसला सुनाने से पहले मोदी बिजनेस सम्मेलनों (‘क्रांतिकारी गरीब समर्थन योजनाओं’ से बाहर) में जो कहते रहते हैं, उसका भी विश्लेषण करते हैः

  • विदेशी पूंजीः 2014 से पहले के सात साल में जितना प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आया था, उतना एफडीआई तो पिछले चार साल में आ चुका है (क्या चालाकी है. मोदी इसमें समय के साथ पैसों की वैल्यू में आई कमी या तेजी से बढ़ रहे नॉमिनल जीडीपी के मुकाबले में एफडीआई के अनुपात का जिक्र नहीं करते)
  • वित्त वर्ष 2012-14 के बीच औसतन सालाना इक्विटी फाइनेंसिंग 14,000 करोड़ रुपये थी, जो पिछले चार वर्षों में 40,000 करोड़ रुपये रही (बहुत खूब! आप यूपीए के संकट के दो वर्षों की तुलना अपने चार साल के कार्यकाल से कर रहे हैं, जिस दौरान ग्लोबल इकनॉमिक ग्रोथ तेज रही है).
  • 2011-14 के बीच सालाना 40 अरब डॉलर की रकम बॉन्ड बेचकर जुटाई गई, जबकि पिछले चार वर्षों में यह 75 अरब डॉलर रही है (यहां भी ऊपर बताई गई चालबाजी का इस्तेमाल किया गया है)

यह आर्थिक आंकड़ों पर वह जादुगरी है, जिसमें मोदी का जवाब नहीं, लेकिन क्या इससे तस्वीर में बहुत अधिक बदलाव आता है? इस‘पॉजिटिव‘ लेख के दूसरे हिस्से में मैं मोदी राज के निगेटिव आर्थिक पहलुओं का विश्लेषण करूंगा. तो तैयार हो जाइए अगले सफर के लिए.

(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

अनलॉक करने के लिए मेंबर बनें
  • साइट पर सभी पेड कंटेंट का एक्सेस
  • क्विंट पर बिना ऐड के सबकुछ पढ़ें
  • स्पेशल प्रोजेक्ट का सबसे पहला प्रीव्यू
आगे बढ़ें

Published: 23 Mar 2019,07:35 PM IST

ADVERTISEMENT
SCROLL FOR NEXT