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इन दिनों मोदी सरकार, मुझे चेशायर कैट और एलिस के बीच हुई प्रसिद्ध बातचीत की याद दिलाती है. वही एलिस, जो वंडरलैंड में खो जाती है. बिल्ली से एलिस पूछती है किधर जाऊं. तब बिल्ली कहती है, ये तो तुम पर निर्भर करता है कि तुम किधर जाना चाहती हो. बिल्ली ये भी कहती है– ओह, वास्तव में इसका कोई फर्क नहीं पड़ता.
इस मामले में ये बिल्ली कहती है, इसका कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किधर जाते हैं.
जैसा कि सभी कहते हैं, समस्या ये है- प्रत्याशी के रूप में मोदी शायद ये जानते हैं कि वो क्या चाहते हैं और उसे कैसे हासिल किया जाए. प्रधानमंत्री के रूप में मोदी हमेशा खोए हुए से दिखते हैं. इसका कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई क्या तलाश रहा है, ये आभास हो रहा है कि यहां उद्देश्य की कमी और दिशा का अभाव है.
कम से कम अभी तो सभी ऐसा ही समझ रहे हैं. हालांकि सराकरी प्रचार तंत्र और वेबसाइट कुछ और ही कह रहे हैं. उसके मुताबिक सरकार ने लक्ष्य का बहुत सारा हिस्सा हासिल कर लिया है. शायद ऐसा हो भी, लेकिन क्या ये काफी है? कुछ भी हो, लेकिन सरकार की छवि तो ऐसी नहीं. कहां हैं उसे संवारने वाले?
सचाई ये है कि सरकार और भारतीय जनता पार्टी, दोनों ही काफी समय से बिल्कुल सामान्य सी दिख रही है. यहां तक कि मोदी के सबसे उत्साही प्रशंसकों और बीजेपी के सबसे कट्टर अनुयायियों से अगर ये पूछा जाए कि क्या सरकार परेशानी में है, तो वो थोड़ा घबराए हुए से दिखते हैं.
वोटरों का एक खास तबका पहले से ही ये मान बैठा है कि नरेंद्र मोदी सरकार और मनमोहन सिंह सरकार में कोई फर्क नहीं. जैसी पुरानी सरकार, वैसी नई सरकार. ये क्यों हो रहा है, वो भी साफ दिख रहा है.
1970 के 'गरीबी हटाओ' और उसके बाद इसी तरह के दूसरे नारों को याद करिए. जवाबी हमले में बीजेपी ने कहा था, "बेटा कार बनाता है, मां बेकार बनाती है". यहां बेटा, संजय गांधी के लिए कहा गया था और वो कार थी मारुति.
इस समय भी बहुत हद तक ऐसा ही हो रहा है. ये क्यों हो रहा है? मैं तीन अनुमान लगाऊंगा.
इसमें से पहला ये कि मोदी चीन से काफी प्रभावित हैं. चीन अपने फरमान और फतवे के दम पर अपनी अर्थव्यवस्था चला रहा है. मोदी वामपंथ से भले ही नफरत करते हों, लेकिन ऐसा लगता है कि वो उसके तौर-तरीके, उसके ढांचों के साथ-साथ सत्ता की पकड़ को सही मानते हैं.
चीन की अर्थव्यवस्था केंद्रीय कमान और नियंत्रण के आधार पर चलती है. मुझे तो अंदेशा है कि मौजूदा प्रधानमंत्री कार्यालय इसे सही मान रहा है. अगर आप मानें, तो यही चीनी मॉडल भारतीय छौंक के साथ यहां दिखाई देता है.
अगर ये सामान्य जैसे होते, जैसा कि ये हर तरफ से दिखते हैं, तो धीमे विकास की वजह का पता चल जाता. इसका एक तरीका ये था कि इस तरह से फैसले करने की प्रक्रिया को उलट दिया जाए और इसे मंत्रियों पर छोड़ दिया जाए.
लेकिन अरुण जेटली, नितिन गडकरी, सुरेश प्रभु, मनोहर पर्रिकर, पीयूष गोयल, निर्मला सीतारमण जैसे कुछ ही ऐसे मंत्री हैं, जो बगैर योजना आयोग या इस तरह की दूसरी संस्थाओं की मदद के अपने फैसले कर सकते हैं.
मेरे अनुमान का दूसरा पहलू है कि मोदी अब भी अमेरिकी राष्ट्रपति शासन प्रणाली से प्रभावित हैं, जिसमें राजनीतिक पहलू का प्रबंधन सरकार करती है. अमेरिका की तर्ज पर केंद्रीय शासन का ये रूप उन खर्चों में दिखता है, जिसमें कोई नेता महज अपने चुनावी फायदे के लिए अपने क्षेत्र में बेतहाशा खर्च करता है. यहां हरेक खर्च इस आशय के लिए होता है कि उसकी सरकार मजबूत हो सके.
मेरा तीसरा अनुमान है, कि वो दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के लिए बेकरार हैं. इसके लिए वो कोई खतरा नहीं लेना चाहते, और वो बेहद सतर्क दिख रहे हैं. ठीक वैसे ही, जैसे कोई बल्लेबाज पहला गेंद खेलने के साथ ही सेंचुरी का लक्ष्य तय कर बैठता है, लेकिन वो एक या दो रन ही बनाता रह जाता है. चौका-छक्का मारना भूल जाता है और इसका उस पर असर भी पड़ता है.
मोदी के लिए एक और उदाहरण लिया जा सकता है, जो उनसे ज्यादा मेल खाता है. वह नारद की तरह हैं, जिन्हें एक बार भगवान ने पृथ्वी से एक कप दूध ले जाने को कहा. दूध कहीं गिर न जाए, इस चिंता में नारद इतना उलझ गए कि वो भगवान को ही भूल गए. आखिरकार भगवान नाराज हो गए. समय आने पर मतदाता भी नाराज दिखेगा.
(लेखक आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर लिखने वाले वरिष्ठ स्तंभकार हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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