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जब मैंने कहा था कि उदारीकरण के बाद यानी पिछले 25 साल में यह सबसे ज्यादा यथास्थितिवादी और दखलंदाजी करने वाली सरकार है, तब मोदी के प्रशंसक मुझ पर टूट पड़े थे. हालांकि पिछले 24 घंटों में पेट्रोल-डीजल पर सरकार ने जो गलती की है, उससे मेरी बात सही साबित हुई है. पर मैं उदास हूं. बगैर सोचे-समझे एक झटके में सरकार ने ऐसे आर्थिक सुधार को खत्म कर दिया, जिसमें वर्षों लगे थे.
आप जरा इन तथ्यों पर गौर कीजिएः
आप सरकार के इस फैसले को क्या कहेंगे? क्या यह ईमानदार भूल थी. क्या उसे अंदाजा नहीं था कि इसका अंजाम क्या होगा? जी नहीं, मुझे नहीं लगता कि मोदी सरकार संदेह के लाभ की हकदार है. मेरे जेहन में यह बात बिल्कुल साफ है और मैं पहले कह चुका हूं कि यह 1991 के उदारीकरण के बाद देश की सबसे यथास्थितिवादी और दखलंदाजी करने वाली सरकार है.
नरेंद्र मोदी नेपोलियन के ‘लकी जनरल’ की तरह हैं. 1991 में देश की अर्थव्यवस्था को खोले जाने के बाद वह पहले शख्स हैं, जो एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार चला रहे हैं. ब्रेंट क्रूड की कीमत जब 2014 के 108 डॉलर से 2016 में गिरकर 30 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी, तब उनके सितारे चमक रहे थे. इससे तीन साल में उनकी सरकार के हाथ 7 लाख करोड़ यानी करीब 100 अरब डॉलर की ‘लॉटरी’ लगी.
जरा सोचिए, अगर सरकार ने इसका फायदा पेट्रोल पंपों पर फ्यूल के दाम घटाकर आम ग्राहकों को दिया होता तो क्या होता? प्राइवेट डिमांड और कॉरपोरेट इनवेस्टमेंट के लिए यह कमाल का टैक्स स्टीमुलस (टैक्स छूट से अर्थव्यस्था में तेजी लाने की कोशिश) होता. अगर मोदी ने वित्तीय मुश्किलों में फंसे बैंकों और इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों के लिए इन 7 लाख करोड़ रुपयों से TARP (*) जैसा फंड बनाया होता, तब क्या होता? इससे एक झटके में वह बैंकों और कंपनियों की बैलेंस शीट की समस्या खत्म कर चुके होते और अर्थव्यवस्था जंजीरों से आजाद होकर तेजी से भाग रही होती.
(*) TARP यानी ट्रबल्ड एसेट रिलीफ प्रोग्राम को पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और फेडरल रिजर्व के फॉर्मर चीफ बेन बर्नान्की ने अमेरिका में 2008 सब-प्राइम क्राइसिस से निपटने के लिए शुरू किया था.
इसके बजाय मोदी ने पेट्रोल-डीजल पर टैक्स दोगुना ही नहीं, तीन गुना कर दिया, जिससे यह मौका हाथ से निकल गया. इस पैसे को उन विशाल कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करके उन्होंने समस्या और बढ़ा दी, जो अक्षमता के लिए बदनाम हैं और जिनका पूरा पैसा कभी जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता.
मोदी देश की ऑयल इकनॉमी को लेकर भ्रम में हैं. इसी साल पहले जब उनकी सरकार विनिवेश का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई थी और उसे तत्काल कैश की जरूरत थी, तब उसने अपनी नाकामी छिपाने के लिए एक खराब रास्ता निकाला. इसमें तेल क्षेत्र की दिग्गज एक्सप्लोरेशन कंपनी ओएनजीसी पर 35,000 करोड़ में एचपीसीएएल में सरकार के शेयर खरीदे के लिए दबाव डाला गया. इसके बाद केंद्र ने छोटे निवेशकों के अधिकारों का दमन किया.
नियम यह कहता है कि ओएनजीसी को एचपीसीएल के शेयरधारकों के लिए 26 पर्सेंट अतिरिक्त स्टॉक्स खरीदने का ओपन ऑफर लाना चाहिए था. इससे जो निवेशक एचपीसीएल से निकलना चाहते थे, वे निकल पाते.
हालांकि, ओपन ऑफर से बचने के लिए मोदी सरकार ने 40 साल पुराना राष्ट्रीयकरण कानून लहराते हुए कहा कि एचपीसीएल इस सौदे के बाद भी सरकारी कंपनी ही रहेगी. बस इसका नियंत्रण पेट्रोलियम मंत्रालय से लेकर ओएनजीसी के हाथों में दिया जा रहा है. इसके बाद सेबी (सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया) ने सरकार को सलाम ठोका और सौदे को ओपन ऑफर से छूट दे दी. पेट्रोल-डीजल पर गुरुवार के बदकिस्मत फैसले से पहले खुद रेगुलेटर बनने का ये खेल हुआ था.
यह ‘बिग गवर्नमेंट’ का अहंकार है. इसलिए बाजार की ताकतों के हिसाब से दाम तय होने के एक बड़े सुधार को खत्म कर दिया, जिसे वर्षों की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद हासिल किया गया था.
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Published: 05 Oct 2018,06:23 PM IST