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इजरायल में मोदीः बराबरी के स्‍तर पर रक्षा समझौता हो हमारा एजेंडा

प्रधानमंत्री मोदी तेल अवीव में विशाल स्वागत समारोह में इजरायली जनता से जुड़ना चाहते हैं, जिनका भारत से संबंध है

भरत कर्नाड
नजरिया
Updated:
नरेंद्र मोदी इजरायल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं
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नरेंद्र मोदी इजरायल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री हैं
(फोटो: द क्विंट)

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ज्यादा पुरानी बात नहीं है, जब इजरायली राजनयिकों के बीच भारत में पोस्टिंग एक कठिन नौकरी मानी जाती थी. उन हिम्मती लोगों को मुंबई के पेडर रोड के तंग इलाके में इजरायली काउंसुलेट में सशस्त्र महाराष्ट्र पुलिस की 24X7 निगरानी में रहना पड़ता था. इसके एवज में उनको मोटे भत्ते और पदोन्नति से नवाजा जाता था.

यह राजनयिक रिश्तों के सहज होने और 1992 में नरसिम्हा राव सरकार के समय राजदूत स्तर के रिश्ते बनने से पहले की बात है.

नई सहस्त्राब्दि में दिल्ली एक ज्यादा पसंदीदा जगह बन चुकी थी. उदाहरण के लिए राजदूत एलोन उशपिज को दिल्ली के बाद प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के सलाहकार पद पर नियुक्ति मिली और उन्होंने भी अपने बॉस से इजरायली विदेश विभाग में भारत के मामलों को देखने के लिए एक ब्यूरो बनवाने में देरी नहीं लगाई.

नेतन्याहू ने दो महीने पहले इस पर पूरी तरह अमल भी कर दिया है. भारत और इजरायल के बीच अनूठा करीबी रिश्ता रहा है. यह किंग सोलोमन के समय में व्यापार और रोमनों द्वारा 70 ईस्वी में यरूशलम में सेकेंड टेंपल को तबाह किए जाने के बाद पहले यहूदी के भारत में पनाह लेने के समय से है.

आधुनिक राष्ट्र के रूप में दोनों देशों के जन्म का इतिहास भी एक साथ ही शुरू होता है.

विदाई की बेला में औपनिवेशिक सत्ता को त्यागने से पहले ब्रिटेन ने अपने चिर-परिचित फटाफट अंदाज में 1948 में फिलिस्‍तीनी मैंडेट टेरिटरी में वही किया, जो उन्होंने एक साल पहले भारतीय उपमहाद्वीप में किया था और अपने पीछे एक रक्तरंजित बंटवारा छोड़ गए थे.

अब, भारत इजरायल से आधुनिक सैन्य तकनीकी, बंजर को हरा-भरा बनाने वाली कृषि पद्धति, उच्च प्रौद्योगिकी में स्टार्टअप देश बनाने में मदद चाहता है. दूसरे शब्दों में, दोनों देश एक स्थिर स्थिति में पहुंचने से पहले सभ्यता के विकास में कमोबेश एक जैसे ही उतार-चढ़ाव के दौर से गुजरे हैं.

आजकल दोनों देशों के बीच संभावित साझेदारी की व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा उप सलाहकार सेवानिवृत्त मेजर जनरल एमॉस गिलाड का दिया एक जुमला इजरायली रक्षा मंत्रालय के अफसरों के बीच चलन में है, “the sky's the limit ( संभावनाओं का अंत नहीं है)

इजरायल का ध्यान खींचने की होड़

बंजर जमीन पर खेती के अलावा, इजरायल का आधुनिक सैन्य प्रौद्योगिकी उद्योग इस देश की कामयाबी का केंद्र बिंदु है. इसकी आधुनिक सैन्य प्रौद्योगिकी के तीन पहलू हैं, जिनमें से दो ने भारत पर नकारात्मक असर डाला है और भविष्य में भारत-इजरायले के बीच मजबूत रिश्ते बनने में रोड़ा बन सकते हैं.

80 फीसद से अधिक इजरायली सैन्य शोध और विकास के लिए पैसा अमेरिका देता है, जिसके एवज में तेल अवीव सरकार कौन सी प्रौद्योगिकी किस देश को बेच/हस्तांतरित कर सकता है, इस पर वाशिंगटन को वीटो करने की शक्ति मिली है.

भारत के इजरायल या अमेरिका से रिश्तों को देखें तो ये बेहतर से बेहतरीन हैं, लेकिन कोई भी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के मुद्दे को लेकर हमेशा कोई भी समझौता होने से पहले ही टूट जाता है. जैसे कि इजरायल भारत द्वारा अपने युद्धक विमान बेड़े के लिए तैयार किए जा रहे AESA (इलेक्ट्रॉनिकली स्कैन्‍ड एरे) रडार (इसकी मदद से भारत फाइटर बॉम्बर विमानों को जमीन से आकाश में और आकाश से आकाश में फ्लाइट को निर्देशित करने में सक्षम हो सकता था) के लिए Elbit 2052 कंप्यूटर देने को राजी था, लेकिन अमेरिका ने सिर्फ निम्नस्तरीय 2032 वर्जन की अनुमति देते हुए इसे ठुकरा दिया.

दूसरा, पहलू यह है कि भारत और चीन इजरायली सैन्य उत्पादों के दो अच्छे ग्राहक हैं. इजरायली सैन्य उद्योग दोनों को ही नहीं छोड़ सकता, क्योंकि इसका तकरीबन सारा निर्यात इन दोनों देशों को ही होता है. उदाहरण के लिए वर्ष 2015 में 5.7 अरब डॉलर के इजरायली हथियार निर्यात में चीन ने 3.4 अरब डॉलर और भारत ने 2.3 अरब डॉलर के हथियार खरीदे. लेकिन यहां एक मुश्किल है.

भारत के लंबी दूरी के ग्रीन पाइंस रडार के ‘Swordfish’ वैरियंट, जो कि भारतीय बैलेस्टिक मिसाइल डिफेंस सिस्टम में इस्तेमाल किया जा सकता है, बनाने को लेकर बीजिंग आशंकित दिख रहा है. यह वैरियंट 800 किलोमीटर दूर से भारत की तरफ आती चीनी मिसाइल का पता लगा सकता है.

इस तरह, तेल अवीव हमेशा भारत की मांगों पर अमेरिका और चीन की चिंताओं को समाधान करने की कोशिश करेगा, और भारत पीछे रह जाएगा.
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DRDO की शिकायत

भारत-इजरायल के बीच हथियार आपूर्ति में सुगम चल रहे रिश्तों में भारत के इजरायल से खरीदारी, जो कि वैमानिकी के अलावा मुख्यतः मिसाइल के क्षेत्र में है, को लेकर DRDO (रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन) में असंतोष बढ़ रहा है.

फिलहाल तीन बड़ी खरीद/संयुक्त विकास परियोजनाएं पाइप लाइन में हैं- भारतीय नौसेना और वायुसेना के लिए 50-70 किलोमीटर मिडियम रेंज की SAM (जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइल) का 2.5 अरब डॉलर का सौदा, भारतीय युद्धपोतों पर बराक सिस्टम की जगह लगाने के लिए 15 किलोमीटर की सीमित दूरी की SAM का 1.5 अरब डॉलर के उत्पादन का सौदा, और पाकिस्तान से लगती सीमा पर तैनात थल सेना के लिए 2.75 अरब डॉलर में स्पाइडर क्विक रिएक्शन मोबाइल एयर डिफेंस मिसाइल की खरीद.

DRDO की नाराजगी की दो वजहें हैं. पहली, सरकार और भारतीय फौजों को पहले से ही अपने पास देश में तैयार जमीन से आकाश में मार करने वाली आकाश मिसाइल के वेरियंट की मांग करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को आगे बढ़ाना चाहिए. DRDO का मानना है कि इजरायली चीजों पर फिजूल में पैसा खर्च किया जा रहा है.

दूसरा यह कि संयुक्त विकास परियोजना में भारत और DRDO की एजेंसियों को कनस्तर और लॉन्‍चर बनाने के मामूली काम सौंपे जाते हैं और अगली पांत के वारहेड, गाइडेंस और फायर कंट्रोल सिस्टम जैसे उच्चस्तरीय महंगे काम नहीं दिए जाते.

स्वामित्व की मूलभूत जानकारी- डिजाइन तैयार करने और सिस्टम के अलगोरिदम- इजरायल साझा नहीं करता, जबकि इस बौद्धिक संपदा पर भारत का अधिकार होना चाहिए, क्योंकि भारत ने इसके विकास के लिए पैसा दिया है.

शिकायत है कि इजरायली अनुसंधान और विकास के लिए भारत द्वारा पैसा दिया जाता है, जबकि इजरायल इस पर भारत को बौद्धिक स्वामित्व का कोई अधिकार नहीं देता.

भारत के भले के लिए ये मुश्किल मुद्दे हल किए जाने की जरूरत है. मोदी को दिल्ली के पैसे से तैयार की इजरायली सैन्य प्रौद्योगिकी में भारत के बराबरी के हिस्से की मांग करनी चाहिए. अगर वह ऐसा करते हैं तो ऐसे विवादास्पद मुद्दों का समाधान भविष्य के अर्थपूर्ण गठबंधन की बुनियाद तैयार करेगा.

मोदी नेतन्याहू से यह भी सीख सकते हैं कि इजरायल अपने समाजवादी सेटअप वाले सरकारी रक्षा उद्योग को किस तरह विश्वस्तरीय, कम लागत वाला, नई प्रौद्योगिकी को जन्म देने वाले उद्योग में बदलने में किस तरह कामयाब हुआ, और इसे अपने यहां भी लागू कर सकते हैं.

लेकिन प्रधानमंत्री मोदी तेल अवीव में विशाल स्वागत समारोह में इजरायली जनता, जिसका भारत से संबंध है, से जुड़ने को ज्यादा उत्सुक दिखाई दे रहे हैं. यह अच्छी नौटंकी तो है, लेकिन इससे भारत को कुछ हासिल नहीं होगा.

(भरत कर्नाड नई दिल्ली में सेंटर फॉर पॉलिसी में नेशनल सिक्योरिटी स्टडीज में प्रोफेसर हैं. उन्होंने हाल ही में Why India is Not a Great Power (Yet) पुस्तक लिखी है. वे www.bharatkarnad.com पर ब्लॉग लिखते हैं, जो कि उनका निजी ब्लॉग है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इनका समर्थन करता है, न ही इनके लिए उत्तरदायी है. यह लेख सबसे पहले BloombergQuint पर प्रकाशित हुआ.)

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Published: 04 Jul 2017,04:06 PM IST

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